रघुबीर सिंहः रंगों में हिन्दुस्तान की आत्मा पहचानने वाले स्ट्रीट फ़ोटोग्राफ़र

  • 6:22 am
  • 15 November 2019

उस दौर में जब फ़ोटोग्राफ़ी की दुनिया के उस्ताद रंगीन तस्वीरों को गंभीरता से नहीं लेते थे, और पश्चिमी दुनिया में ब्लैक एण्ड व्हाइट फ़ोटो ही कलात्मकता की पहचान थे, रघुबीर सिंह ने हिन्दुस्तान को रंगीन तस्वीरों की मार्फ़त देखने-दिखाने की पहल की. वह मानते थे कि रंग हिन्दुस्तानी सौंदर्य-चेतना का अभिन्न हिस्सा हैं और रंगों के बग़ैर इस देश की आत्मा को समझ पाना संभव नहीं. यही वजह है कि क़रीब तीन दशकों के उनके काम में शैली के स्तर पर बदलाव ज़रूर दिखाई देते हैं मगर रंगों के प्रति उनका आग्रह ताउम्र बना रहा. भारतीय फ़ोटोग्राफ़ी के प्रति दुनिया का नज़रिया बदलने के साथ ही अपनी दृष्टि और विशिष्ट शैली के बूते वह आधुनिकतावाद के भारतीय संस्करण की ऐसी मिसाल बन गए, जो उनके जाने के दो दशक बाद भी विमर्श का हिस्सा बनी हुई है.

और यह भी कम दिलचस्प नहीं कि जिन दो लोगों को वह अपना प्रेरणास्रोत मानते रहे, उनमें हेनरी कार्तिए ब्रेसां तो रंगीन तस्वीरों को ‘फ्रेंच सेना की अश्लील ज़बान’ की तरह मानते थे और सत्यजीत राय की शुरुआती फ़िल्में भी ब्लैक एण्ड व्हाइट ही थीं. बाद में वह विलियम गेडनी और ली फ़्रीडलेंडर सरीखे फ़ोटोग्राफ़र के संपर्क में भी आए, मगर अभिव्यक्ति की अपनी शैली विकसित करते रहे. ऐसी शैली जो पूरी तरह उनकी अपनी हो, जिसका उत्स भारत के इतिहास, यहां के जीवन और लोक मान्यताओं में हो.

उनकी पैदाइश जयपुर के ज़मींदार ख़ानदान में हुई, सन् 1942 में. जयपुर के सेंट जेवियर्स स्कूल और दिल्ली में हिन्दू कॉलेज होते हुए रघुबीर कलकत्ता पहुंचे, जहां उनके भाई रहते थे और चायबाग़ान में नौकरी करते थे. वह ख़ुद भी नौकरी के ही इरादे से गए थे मगर बात नहीं बनी. स्कूल के दिनों में उनके भाई प्रताप ने उन्हें तोहफ़े में एक कैमरा दिया था. कलकत्ता में यह कैमरा ही उन्हें व्यस्त रखता. कभी अपने घर में मिली कार्तिए ब्रेसां की एक किताब ने उन्हें ख़ासा प्रभावित किया था और उन्हें कार्तिए ब्रेसां से मुलाक़ात का मौक़ा भी मिला, 1966 में जब वह जयपुर आए थे. रघुबीर ने उनके काम करने के तरीक़े को क़रीब से देखा-समझा. तो फ़ुर्सत में तस्वीरें खींचते हुए उन्होंने फ़ोटोजर्नलिस्ट बनने का फ़ैसला किया, नेशनल जिओग्राफ़िक, न्यूयार्क टाइम्स, टाइम, लाइफ़ समेत कुछ और पत्रिकाओं के लिए उन्होंने काम किया.

सत्तर के दशक में जब कॉफ़ी टेबिल बुक की ख़ासी धाक हुआ करती थी, रघुबीर सिंह ने अपनी तस्वीरों की दो किताबें भी बनाईं. पेरिस में जब वह कार्तिए ब्रेसां से मिले तो अपनी दोनों किताबें ‘गंगा’ और ‘कलकत्ता’ उन्हें भेंट कीं. कार्तिए ब्रेसां ने किताबों के कुछ पन्ने पलटकर देखे और फिर एक किनारे सरका दिया. अपनी इस मुलाक़ात के बारे में रघुबीर ने लिखा है, ‘मुझे पता था कि रंगीन तस्वीरें उन्हें नापसंद हैं. मगर उनकी इस बेरुख़ी और नाकामयाबी के मेरे अपने डर की वजह से मैंने ये दोनों किताबें फिर से बनाईं.’ उनकी चौदह किताबों की सूची में ‘गंगाः सैक्रेड रिवर ऑफ इंडिया’ (1974) के साथ ही ‘द गैंजेज़’ (1992) और ‘कलकत्ता’ (1975) के साथ ही ‘कलकत्ताः द होम एण्ड द स्ट्रीट’ (1988) के ज़रिये यह बात बख़ूबी समझी जा सकती है.

अपने कलकत्ता के दिनों में वह प्रो. आर.पी. गुप्ता और सत्यजीत राय से मिले. इन लोगों की सोहबत में उन्होंने न सिर्फ़ कला में आधुनिकतावाद और यथार्थवाद को बेहतर ढंग से समझा बल्कि इतिहास और साहित्य को भी गहरी दिलचस्पी से पढ़ा. उनके दोस्त फ़ोटोग्राफ़र राम रहमान कहते हैं, ‘रघुबीर गंभीर अध्येता थे, घोर पढ़ाकू. कला, ख़ासतौर पर मुग़ल आर्ट और फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास पर उनकी गहरी पकड़ थी और इसी तरह भारतीय पौराणिक आख्यानों पर भी. कालीदास का महाकाव्य हो या ड्रामा, रघुबीर दोनों ही पूरी दिलचस्पी से पढ़ते.’ गंगा पर उनकी किताब का ज़िक्र करते हुए राम बताते हैं कि इसकी शुरुआत में ही कैलाश पर्वत की तस्वीर है. कैलाश और गंगा का सीधा कोई संबंध नहीं है मगर चूंकि पौराणिक आख्यानों में कैलाश पर शिव के वास का वर्णन है और गंगा उनकी जटाओं से निकली हैं, इसलिए रघुबीर ने इसे किताब में शामिल करना ज़रूरी समझा. बक़ौल राम, ‘उनके लिए गंगा पर किताब का अर्थ कोई भौगोलिक यात्रा नहीं, बल्कि तमाम सभ्यताओं और इतिहास से होकर गुज़रने वाली बहुस्तरीय यात्रा है.’ इस किताब के आख़िरी पन्ने पर बांग्लादेश में बनाई हुई तस्वीर है, नमाज पढ़ते एक शख्स की तस्वीर. राम कहते हैं, ‘यह फ़ोटो भर नहीं है, यह रघुबीर का स्टेटमेंट भी है.’

बात 1976 की है, जब उन्होंने हिन्दुस्तान छोड़ा. वह हांगकांग में रहे, लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क में रहे. न्यूयॉर्क के स्कूल ऑफ विजुअल आर्ट्स, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी और कूपर यूनियन में पढ़ाते रहे मगर अपनी तस्वीरों के लिए वह हमेशा हिन्दुस्तान लौटते रहे. यहां के शहर, क़स्बे, गांव-देहात का जीवन, सड़कें, नदियां, घर-दुकान, मजूर-पुजारी, मेले-ठेले, भीड़भाड़ और बियाबान सब कुछ उनके फ़्रेम में दिखाई देते हैं, ज़िंदगी की धड़कन के साथ. फ़ोटोग्राफ़ी की ईजाद के डेढ़ साल पूरे होने पर ‘लाइफ़‘ पत्रिका के विशेषांक में हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ एक तस्वीर से हुआ है – मुंगेर में मानसून की बारिश. रघुबीर सिंह इसे अपने शुरुआती दिनों का गंभीर काम मानते थे. कुछ शुद्धतावादियों ने उनके काम को दस्तावेज़ी मानने से इन्कार करते हुए इसे ‘ट्रेवल बुक’ की तरह का मोहक और रुमानी काम ठहराया मगर ऐसे आरोपों पर रघुबीर सिंह का जवाब था, ‘मैंने बहुत पहले यह जान लिया था और मैं एकदम मुतमइन हूं कि रंगों और दुख और ग़रीबी के बीच परस्पर कोई विरोध नहीं है.’ वह मानते थे कि काला रंग भारतीय मानस और भारतीय दर्शन दोनों के अनुकूल नहीं.
तकनीकी के लिए भी उनके मन वैसी ही ललक थी, जैसी कि किताबों के लिए. मगर उतना ही जितना वह अपने काम के लिए ज़रूरी मानते हों. मीडियम वाइड एंगिल लेंस उनको प्रिय था और काम करते हुए लेंस बदलना सख़्त नापसंद. तब ज़ूम लेंस चलन में नहीं आए थे, और ज़रूरत होने पर लेंस बदलना व्यवहार में था. इसी को लेकर एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘काम करते हुए लेंस बदलना मुझे वैसे ही लगता है, जैसे कि ट्रैक पर दौड़ते हुए किसी एथलीट का बार-बार जूते बदलना.’ छाया वाले हिस्से में डिटेल्स पकड़ने की कोडक्रोम की सीमित क्षमता के चलते उनके फ़्लैश के इस्तेमाल का ज़िक़्र करते हुए राम रहमान कहते हैं कि अगर वह होते तो डिज़िटल तकनीक को भी अपनी ज़रूरत के हिसाब से ज़रूर बरतते. बक़ौल राम, रघुबीर एक बार जो धारणा बना लेते थे, उससे डिगना नामुमक़िन था. सत्यजीत राय में उनकी ऐसी श्रद्धा थी कि अगर ग़लती से भी कोई राय की शान के ख़िलाफ़ कुछ कह दे, वह भड़क जाते थे.

रघुबीर की किताबों की प्रस्तावना पढ़ते हुए उनके अध्ययन के साथ ही उनकी संवेदना, हिन्दुस्तान के लिए उनके लगाव और उनके समय को हम विस्तार से समझ सकते हैं. ‘द ग्रैंड ट्रंक रोडः अ पैसेज थ्रू इंडिया’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है, ‘जिसे भारत के इतिहास में दिलचस्पी न हो, उसे ऐसी जगहों पर रुकने में भी कोई दिलचस्पी नहीं होगी, बल्कि ऐसे किसी घुमक्कड़ को तो पूरी जी.टी.रोड पर अपने काम का बहुत कुछ नहीं मिलेगा. मेरे एक अमेरिकी मित्र जी.टी.रोड के सफ़र में पांच दिनों के लिए मेरे सहयात्री थे. शेरशाह सूरी के भव्य मकबरे के सामने से गुज़रते हुए उन्होंने कनखी से उधर देखा और निगाह फेर ली. बोले कि यहां तो सब कुछ बहुत पुराना है और फिर ख़ामोश हो गए. हम वहां रुके बिना बनारस निकल गए. उन्हें दिल्ली की फ्लाइट में बैठाकर मैं वापस मकबरे पर लौटा. मैंने मन ही मन अपने उन मित्र को जवाब दिया- हिन्दुस्तान की काया में अतीत और वर्तमान साथ-साथ सांस लेते हैं, ये उसके दोनों फेफड़े हैं.’ इसी के उपसंहार में वह लिखते हैं, ‘मेरी इच्छा है कि जब मेरी जीवन यात्रा पूरी हो तो मेरी राख वहां बिखेर दी जाए जहां ग्रैंड ट्रंक रोड गंगा को लांघती करती है. सभी जातियों और सभी तरह के लोग तो वहां से गुज़रते हैं.’

18 अप्रैल 1999 को जब उनका निधन हुआ, आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में उनकी तस्वीरों की प्रदर्शनी चल रही थी. इसी मौक़े पर ‘रिवर ऑफ कलरः द इंडिया ऑफ़ रघुबीर सिंह’ भी आई थी. एम्बेसडर कार को केंद्र में रखकर बदलते हुए हिन्दुस्तान की जो तस्वीरें उन्होंने बनाईं, वे उनके निधन के बाद ‘अ वे इनटू इंडिया’ की शक़्ल में दुनिया के सामने आईं. इसके काफ़ी समय बाद आई ली फ़्रीडलेंडर की किताब ‘लुकिंग थ्रू अमेरिका फ़्राम अ कार’. राम रहमान फ़्रीडलेंडर की इस किताब को रघुबीर सिंह के एम्बेसडर वाले काम से प्रेरित बताते हैं. न्यूयॉर्क के इंटरनेशनल सेंटर ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी में रघुबीर सिंह के आख़िरी व्याख्यान के मौक़े पर उनका परिचय देते हुए थॉमस रोमा ने कहा था, ‘रघुबीर सिंह को हिन्दुस्तान का फ़ोटोग्राफ़र कहना कुछ वैसे ही है जैसे कि रॉबर्ट फ़्रॉस्ट को न्यूयार्क का कवि बताना.’

आवरण फ़ोटोः राम रहमान
(साभारः यह लेख पहले सत्याग्रह में छप चुका है.)

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