भला हो चाक़ू छीनने वाले का, अदब को कृश्न चंदर मिले

  • 5:05 pm
  • 8 March 2021

कृश्न चंदर की कहानियों के बारे में उर्दू के आलोचक सैयद एहतिशाम हुसैन ने लिखा है,‘‘कभी-कभी उनका मकसद, उनकी कला पर छा जाता है.’’ लेकिन अपनी कहानियों के बारे में कृश्न चंदर ख़ुद क्या सोचते हैं, इसका पता उनके आत्मकथ्य में मिलता है. वह लिखते हैं,‘‘मेरी हर कहानी उस सफ़ेद हत्थेवाले चाक़ू को हासिल करने की कोशिश है, जो कि बचपन में एक जागीरदार के बेटे ने मुझसे छीना था.’’

भला हो सफ़ेद हत्थे वाला चाक़ू छीनने वाले शख़्स का, जिसने कृश्न चंदर को अदब की दुनिया की इतनी ख़िदमत करने के मौक़े फ़राहम किए!उर्दू अदब, ख़ास तौर से उर्दू अफ़साने को जितना कृश्न चंदर ने दिया, उतना शायद ही किसी दूसरे अदीब ने दिया हो. इस लिहाज से मंटो ही उनसे अव्वल बैठते हैं. उन्होंने बेशुमार लिखा – हिंदी और उर्दू दोनों ही ज़बानों में पूरे अधिकार के साथ लिखा. गूजरांवाला में जन्मे मगर बचपन और जवानी का शुरूआती दौर कश्मीर में बीता. सो उनकी भाषा पर डोगरी और पहाड़ी का असर भी साफ़ दिखाई देता है.

उनके लिखने की शुरुआत 1936 में हुई जब उनकी लघु कथा एक पत्रिका में छपी और उसकी तारीफ़ भी हुई. शुरूआती कहानियां ‘हुमायूं’, ‘अदबी दुनिया’, ‘अदब-ए-लतीफ़’ और ‘नया अदब’ वगैरह पत्रिकाओं में छपती रही. लिखते रहे और सियासत में शिरकत भी करने लगे. सोशलिस्ट पार्टी के बाक़ायदा सदस्य हुए. कम लोगों को इल्म होगा कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक़ में एक दफ़ा भगत सिंह के साथ वह भी जेल गए थे.

बंटवारे के बाद हालांकि वह लाहौर छोड़ आए मगर तक़्सीम से इतने आहत थे कि मुल्क की आज़ादी को हमेशा त्रासद आज़ादी मानते रहे और उसी की नुक्ता-ए-नज़र उन्होंने कई कहानियां लिखीं. उनकी कहानी ‘पेशावर एक्सप्रेस’ बंटवारे की दर्दनाक दास्तान है. इस कहानी में उन्होंने बड़ी ख़ामोशी से यह ख़्याल पिरोया है,‘‘कब आदमी के भीतर का शैतान जाग उठता है और इंसान मर जाता है.’’

पढ़ाई पूरी करने के बाद कृश्न चंदर ने पहली नौकरी ऑल इंडिया रेडियो में की. पहली पोस्टिंग लाहौर में और उसके बाद दिल्ली में हुई. कुछ दिन वह लखनऊ रेडियो में भी रहे. रेडियो की नौकरी के दौरान वह अपने दौर के कई मशहूर लेखकों से मिले, उनकी सोहबत में सीखा भी.

लखनऊ में नौकरी के दौरान उनकी कहानी ‘सफ़ेद ख़ून’ एक पत्रिका में छपी. फ़िल्म निर्माता डब्ल्यू. ज़ेड. अहमद ने वह कहानी पढ़ी, तो कृश्न चंदर से फ़िल्म के लिए लिखने की पेशकश की. उन्होंने भी नौकरी से इस्तीफ़ा दिया और पूनाजाकर ‘शालीमार पिक्चर्स’ में काम करने लगे. अपनी इसी कहानी ‘सफ़ेद ख़ून’ पर उन्होंने फ़िल्म ‘मन का मीत’ की कहानी लिखी. फ़िल्म बेहद कामयाब रही. एक बार पूना गए, तो फिर वह फ़िल्मी दुनिया के होकर रह गए.

फ़िल्मों के लिए उन्होंने कहानियां, पटकथा, संवाद लिखे मगर अदब से नाता बनाए रखा.उन्होंने तकरीबन दो दर्ज़न फ़िल्मों की पटकथा और संवाद लिखे. इनमें से ‘धरती के लाल’, ‘आंदोलन’, ‘एक दो तीन’, ‘ममता’, ‘मनचली’, ‘शराफ़त’, ‘दो चोर’ और ‘हमराही’ जैसी फ़िल्मेंबॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबरहीं. ‘धरती के लाल’ और ‘शराफ़त’ उनकी कहानी पर ही बनी हैं.

कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, नाटक सभी विधाओं में उन्होंने खूब काम किया मगर उनकी पहचान कहानीकार के तौर पर ही बनी. दूसरेविश्व युद्ध के दौरान बंगाल में पड़े भीषण अकाल पर लिखी गई ‘अन्नदाता’ उनकी कालजयी कहानी है. अंग्रेज़ी में इस कहानी का तर्जुमा और ज्यादा मक़बूल हुआ. ‘गड्डा’, ‘दानी’, ‘पूरे चांद की रात’, ‘आधे घंटे का ख़ुदा’ जैसी उनकी कई दूसरी कहानियां भी उर्दू अदब में क्लासिक मानी जाती हैं.

कृश्न चंदर की ज्यादातर कहानियों के किरदार ऐसे तबके से आते हैं, और लोग जिन परअक्सरग़ौर भी नहीं करते. मसलन ‘कालू भंगी’ में वे समाज में सबसे ज्यादा हाशिए पर रहने वाले दलित समुदाय के एक शख़्स की ज़िंदगी की दर्दनाक दास्तां बयान करते हैं. हर इंसान को बराबरी और सम्मान देने का एक अद्भुत गुण था. ‘जामुन का पेड़’ लालफीताशाही के चलते अच्छे-भले तंत्र को सत्यानाश करने की दिलचस्प मंज़रकशी करती है .

उर्दू कहानी को उन्होंने किसान-मजदूर आंदोलन से बाबस्ता किया और उसमें जन संघर्षों को अभिव्यक्ति देने की ताकत पैदा की. उर्दू कहानी को कृश्न चंदर की सबसे बड़ी देन टेक्नीक है. उनकी कहानियों की टेक्नीक रिपोर्ताज की टेक्नीक है. वे शब्द चित्रों के माध्यम से अपनी कहानियों में शानदार माहौल बना दिया करते थे. यह माहौल पाठकों पर जादू-सा असर करता था. फिर भी उनकी कहानी में उद्देश्य ओझल नहीं होता था. उनकी कोई भी कहानी उठाकर देख लीजिए, उनमें बुद्धि और भावना का लाजवाब तालमेल मिलेगा.

फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में कृश्न चंदर की कहानी कला का विश्लेषण करते हुए लिखा है,‘‘कृश्न चंदर की कला की दो विशेषताएं हैं – एक तो उनकी सार्वभौमिक दृष्टि और जागरूक बौद्धिकता. दूसरी उनकी विशिष्ट टेक्नीक. जहां तक जागरूक बौद्धिकता का प्रश्न है, कृश्न चंदर को कथा क्षेत्र में वही स्थान प्राप्त है, जो अली सरदार जाफ़री को काव्य क्षेत्र में. उनकी कहानियों की सर्जनात्मक दृष्टि विशाल भी है और स्पष्ट भी. वे जागरूक समाजवादी हैं. साथ ही उनका परिप्रेक्ष्य भी इतना विस्तृत है, जितना और किसी कथाकार का नहीं हुआ. वे कश्मीर के खच्चरवालों का भी उतना ही सजीव वर्णन करते हैं, जितना बंगाल के अकाल पीड़ितों और तेलंगाना के विद्रोही किसानों का. बंबई के फ़िल्म आर्केस्ट्राओं के दयनीय जीवन का भी विस्तृत चित्रण उन्होंने किया है. और बर्मा के मोर्चे पर लड़ते हुए अमेरिकी सैनिकों तथा कोरियाई युद्ध में आहुति देती हुई वीरांगनाओं का भी. किन्तु उनकी लगभग हर कहानी में सामाजिक क्रांति की आवश्यकता, बल्कि समाजवादी क्रांति की आवश्यकता चिल्ला-चिल्ला कर बोलती दिखाई देती है.’’

बंगाल के अकाल पर उन्होंने ‘अन्नदाता’ कहानी के अलावा दिल को छू लेने वाला एक नाटक, ‘भूका बंगाल’ भी लिखा, इप्टा ने जिसे देश भर में खेला. ‘जामुन का पेड़’ का नाट्य रूपान्तरण ‘बड़ी देर की मेहरबान आते-आते’ के रूप में हुआ. कृश्न चंदर का लिखा रिपोर्ताज ‘पौदे’ उर्दू अदब में एक ख़ास मुकाम रखता है. कहानियों की तरह कृश्न चंदर के उपन्यास भी ख़ासे चर्चित रहे. ख़ास तौर पर ‘एक गधे की आत्मकथा’. इस उपन्यास में उन्होंने देश के तत्कालीन सियासी और समाजी सिस्टम को तंज़िया ढंग से चित्रित किया है. वहीं उनका छोटा सा उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ 1962 में भारत-चीन के बीच हुई जंग के पसमंज़र में लिखा गया है.

कृश्न चंदर ने आख़िरी दम तक क़लम नहीं छोड़ी. 8 मार्च, 1977 को बंबई में जब कृश्न चंदर का निधन हुआ, तो उस वक्त भी क़लम उनके हाथ में मौजूद थी.

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पुनर्पाठ | एक गधा नेफा में


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