सज्जाद ज़हीर : तरक़्क़ीपसंद तहरीक के रूहे रवाँ

  • 12:01 am
  • 13 September 2020

हिन्दुस्तानी अदब में सज्जाद ज़हीर की शिनाख्त तरक़्क़ीपसंद तहरीक के रूहे रवां के तौर पर है. वे राइटर, जर्नलिस्ट, एडिटर और फ़्रीडम फ़ाइटर भी रहे. 1935 में थोड़े से तरक़्क़ीपसंद दोस्तों के साथ मिलकर लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की दागबेल डालने वाले सज्जाद ज़हीर ने अपनी सारी ज़िन्दगी प्रगतिशील मूल्यों को स्थापित करने और अवाम को वाजिब हक़ दिलाने, समाजी इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. वे मुल्क के लाखों पसमांदा इंसानों में ऐसा शऊर पैदा करना चाहते थे, जो उन्हें सामाजिक, आर्थिक शोषण और सियासी ग़ुलामी से निज़ात दिलाने में मददगार हो सके. दोस्तो में बन्ने भाई के नाम से मकबूल सज्जाद ज़हीर सांस्कृतिक आंदोलन के जरिए अवाम में चेतना जगाना चाहते थे. वह मानते थे कि सांस्कृतिक सजगता के ज़रिये सियासी और समाजी चेतना पैदा करके ही अवाम अपनी आज़ादी, हक़ और हुक़ूक की ख़ातिर लड़ सकती है. यह भी कि हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में लेखक, संस्कृतिकर्मी ही अहम भूमिका निभा सकते हैं.

उनकी यह क्रांतिकारी सोच यकायक नहीं बनी बल्कि इसमें उस हंगामाख़ेज दौर का बड़ा रोल था. क़ानूनी तालीम के लिए वह 1927 से 1935 तक लंदन में रहे. 1930 से 1935 तक का दौर दुनियावी ऐतबार से बदलाव का था. पहली आलमी जंग के बाद सारी दुनिया आर्थिक मंदी झेल रही थी. जर्मनी, इटली में क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ्रांस की पूंजीपति सरकार के जनविरोधी कामों से पूरी दुनिया पर साम्राज्यवाद और फ़ासिज्म का ख़तरा मंडरा रहा था. इन सारे संकटों के बावजूद उम्मीदें ख़त्म नहीं हुई थीं. हर ढलता अंधेरा पहले से भी उजला नया सबेरा लेकर आता है. जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर जॉर्जी दिमित्रोव के मुक़दमे, फ्रांस के मजदूरों की बेदारी और ऑस्ट्रिया की नाक़ामयाब मजदूर क्रांति से सारी दुनिया में क्रांति के एक नये युग का आग़ाज हुआ. चुनांचे, 1933 में फ्रांसीसी साहित्यकार हेनरी बारबूस की कोशिशों से फ्रांस में लेखक, कलाकारों का फ़ासिज्म के ख़िलाफ़ एक संयुक्त मोर्चा ‘वर्ल्ड कान्फ्रेंस ऑफ़ राइटर्स फ़ॉर दि डिफेन्स ऑफ़ कल्चर’ बना. जो आगे चलकर पॉपुलर फ्रंट (जन मोर्चा) के तौर पर तब्दील हो गया. इस संयुक्त मोर्चे में मैक्सिम गोर्की, रोम्या रोलां, आंद्रे मालरो, टॉमस मान, वाल्डो फ्रेंक, मारसल, आंद्रे जीद, आरांगो जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार शामिल थे. लेखक, कलाकारों के इस मोर्चे को जनता के बीच बड़ी हिमायत हासिल थी.

विश्व परिदृश्य में तेजी से घट रही इन सब घटनाओं ने सज्जाद ज़हीर को काफ़ी मुतास्सिर किया. जिसका सबब, लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना थी. आगे चलकर उन्होंने तरक़्क़ीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया. स्पेन के फ़ासिस्ट विरोधी संघर्ष में सहभागिता के साथ-साथ सज्जाद ज़हीर ने 1935 में आंद्रे गीडे व मेलरौक्स द्वारा आयोजित विश्व बुद्धिजीवी सम्मेलन में भी हिस्सा लिया. इस सम्मेलन के अध्यक्ष मैक्सिम गोर्की थे. अपनी ज़िंदगी को एक नयी राह देने और एक ख़ास मक़सद और इरादे के साथ सज्जाद ज़हीर ने 1936 में लंदन छोड़ा. भारत वापस लौटते ही उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की तैयारियां शुरू कर दीं. ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर उन्होंने भारतीय भाषाओं के तमाम बड़े लेखकों से विमर्श किया. इस दौरान वे कन्हैयालाल मुंशी, फिराक़ गोरखपुरी, डॉ. सैयद ऐजाज हुसैन, शिवदान सिंह चौहान, अमरनाथ झा, डॉ. ताराचंद, अहमद अली, मुंशी दयानरायन निगम, महमूदुज्जफर, सिब्ते हसन आदि से भी मिले. वह दिन भी आया, जब प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस लखनऊ में हुई. कॉफ्रेंस की सदारत मुंशी प्रेमचंद ने की. कॉन्फ़्रेंस बेहद कामयाब रही. उर्दू और हिन्दी के नामचीन साहित्यकारों ने शिरकत की, पर्चे पढ़े और आगे की राह तय करने पर अपना नज़रिया साझा किया. लेखकों के अलावा समाजवादी लीडर जयप्रकाश नारायण, युसूफ मेहर अली, इंदुलाल याज्ञनिक और कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी काँफ़्रेंस में हिस्सा लिया.

सज्जाद ज़हीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गए और 1949 तक उन्होंने यह दायित्व संभाला. बन्ने भाई के व्यक्तित्व और दृष्टिसम्पन्न परिकल्पना की ही वजह से तरक़्क़ीपसंद तहरीक आगे चलकर हिन्दुस्तान की आज़ादी की तहरीक बन गई. मुल्क के तमाम अदीब, कलाकार और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन के साथ आ गए. सन् 1942 से 1947 तक का दौर प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन का सुनहरा दौर था. यह आंदोलन आहिस्ता-आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैला. इन सांस्कृतिक आंदोलनों का आख़िरी मक़सद मुल्क की आज़ादी था.

शुरूआती दिनों में सज्जाद ज़हीर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य भी रहे. इलाहाबाद शहर कांग्रेस कमेटी के महासचिव होकर उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया. आगे चलकर अखिल भारतीय कांग्रेस के मेम्बर चुने गए. कांग्रेस के मुख़्तलिफ़ महकमों ख़ास तौर पर विदेशी मामलों और मुस्लिम जनसंपर्क से भी वे जुड़े रहे. रचनात्मक और संगठनात्मक गुणों का उनमें अद्भुत मेल था. अपने संगठनात्मक कौशल से ही उन्होंने ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ और ‘ऑल इंडिया किसान सभा’ जैसी किसानों और मजदूरों की संस्थाएं बनाईं, उनकी बेहतरी के लिए काम किया. कांग्रेस में काम करने के दौरान उनका वास्ता उस वक्त अंडरग्राउण्ड चल रहे कम्युनिस्ट लीडर पीसी जोशी से हुआ. जोशी के साम्यवादी विचारों से वह बेहद प्रभावित हुए. बाद में कांग्रेस छोड़कर वह कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हो गए. उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव भी रहे. उस वक्त कम्युनिस्ट पार्टी अंग्रेज़ सरकार के कोप से बचने की ख़ातिर अंडरग्राउण्ड रहकर काम करती थी. 1942 में अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी हटा ली तो सज्जाद ज़हीर अपने काम में पहले से भी ज्यादा जी-जान और जोश के साथ जुट गए.

अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लिखने और तक़रीर करने के जुर्म में उन्हें तीन मर्तबा जेल हुई. इसके बावजूद वह अलग-अलग नामों से अख़बारों के लिए लगातार लिखते रहे. कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘क़ौमी जंग’ और ‘नया ज़माना’ अख़बार में उन्होंने प्रधान सम्पादक की हैसियत से काम किया. लंदन में जर्नलिज्म की पढ़ाई, उनकी संपादकीय सूझबूझ और अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि की वजह से इन पत्रों ने लोगों के बीच अपनी पहचान बना ली. ये पत्र हिन्दुस्तान के प्रगतिशील लेखकों की आवाज़ बन गए. इस आंदोलन में लेखकों का शामिल होना प्रगतिशीलता की पहचान हो गई. प्रगतिशील आन्दोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद और हर तरह की धर्मांधता की मुख़ालफ़त की, वहीं साम्राज्यवादी, सामंतशाही व आंतरिक सामाजिक रूढ़ियों रूपी दुश्मनों से भी टक्कर ली.

एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर आ गए थे. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार ज़ाफ़री, मजाज़, कृश्न चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुगताई, महेन्द्रनाथ, साहिर लुधियानवी, हसरत मोहानी, उपेन्द्रनाथ अश्क, सिब्ते हसन, रशीद जहां, जोश मलीहाबादी, फिराक़ गोरखपुरी, राजिंदर सिंह बेदी, सागर निजामी जैसे आला नाम तरक्कीपसंद तहरीक के हमनवां, हमसफ़र थे. इनकी क़लम ने मुल्क मे आज़ादी के हक़ में समां बना दिया. यह वह दौर था, जब तरक़्क़ीपसंद लेखकों को नये दौर का रहनुमा समझा जाता था. तरक्कीपसंद तहरीक को जवाहरलाल नेहरू, सरोजनी नायडू, रविन्द्रनाथ टैगोर, अल्लामा इक़बाल, ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान, प्रेमचंद, वल्लथोल जैसी हस्तियों की सरपरस्ती हासिल थी. वे भी इन लेखकों के लेखन एवं काम से बेहद मुतास्सिर और मुतमईन थे.

आज़ादी मिलने और तक्सीम के बाद सज्जाद ज़हीर को कम्युनिस्ट पार्टी के फैसले की वजह से कुछ समय के लिए कम्युनिस्ट पार्टी को संगठित करने के लिहाज़ से पाकिस्तान जाना पड़ा. पाकिस्तान में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ पाकिस्तान का महासचिव चुन लिया गया. वहां उन्होंने विद्यार्थियों, मजदूरों और ट्रेड यूनियन के संगठन का ज़िम्मा संभाला. मगर पाकिस्तान में भी हालात उनके मनमाफ़िक़ नहीं थे. उस दौर की कट्टरपंथी सरकार के चलते उन्होंने वहां भी अंडरग्राउण्ड रहकर काम किया. कुछ अर्से बाद ही हुक़ूमत-ए-पाकिस्तान ने ‘रावलपिंडी साजिश’ केस में उन्हें फैज़ अहमद फैज़ के साथ गिरफ़्तार कर लिया. मुकदमे और सज़ा के दरमियान उन्होंने हैदराबाद, सिंध, लाहौर, मच्छ और कोयटा की जेलों में जुल्मो-सितम सहते हुए पांच साल गुज़ारे. अदालत में सरकारी वकील ने उन्हें सज़ा-ए-मौत देने की मांग की. भारत सरकार के अभियान और सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों के दबाव में पाकिस्तान सरकार को आख़िरकार उन्हें रिहा करना पड़ा.

रिहाई के बाद हिन्दुस्तान लौटे तो एक बार फिर प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियां तेज़ कर दीं. दुनिया में जाति, रंग, नस्लवाद, साम्राज्यवाद के ख़तरे अब भी बरक़रार थे. साल भर के अंदर ही उन्होंने मुल्कराज आनंद के साथ रूस में अफ्रो-एशियाई साहित्यकारों की पहली कॉन्फ्रेंस आयोजित की, जो अफ्रो-एशियाई लेखकों का जबर्दस्त आंदोलन साबित हुआ. समाजवाद में गहरा अक़ीदा रखने वाले सज्जाद ज़हीर फ़ासिस्टों को छिपा हुआ साम्राज्यवादी मानते थे.

यूं तो उनकी जिंदगी का ज्यादातर वक़्त संगठनात्मक कार्यों में ही बीता. फिर भी साहित्यिक लेखन के साथ-साथ वह देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक और राजनैतिक मसलों पर लगातार लिखते रहे. 1935 में छपे कहानी संग्रह ‘अंगारे’ में उनकी भी कहानी शामिल थी. समाजी और सियासी ऐतबार से यह संग्रह उस समय काफ़ी मशहूर हुआ. हुक़ूमत की पाबंदी के साथ-साथ इस किताब को अपने ही मुल्क के प्रतिक्रियावादियों और संकीर्णतावादियों की तंगनज़री का सामना करना पड़ा. इस संग्रह के लेखकों को ‘अंगारे’ के लेखक के नाम से ही पुकारा जाता. 1935 में ही पेरिस में लिखा गया उनका छोटा उपन्यास ‘लंदन की एक रात’ जैसा कि नाम से ज़ाहिर है सिर्फ़ एक रात का तब्सिरा है. अनोखे शिल्प का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इसमें मुल्क की आज़ादी की चाह लिए परदेस में रह रहे नौजवानों के जज़्बात का शानदार चित्रण किया है. ‘पिघला नीलम’ उनकी ऩज्मों का संग्रह है, जो उन्होंने ज़िंदगी के आख़िरी दौर में लिखा.

उनका अहम अदबी शाहकार ‘रौशनाई’ है. यह किताब उन्होंने पाकिस्तान की जेलों में रहते लिखी थी. अदबी हल्कों में इसे प्रगतिशील लेखक संघ का प्रमाणिक इतिहास माना जाता है. यह ‘तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ अंजुमन’ का ही दस्तावेज़ नहीं है, आज़ादी की जद्दोजहद के पूरे हंगामाख़ेज़ दौर और उस वक्त के सियासी, समाजी हालातों का भी ख़ाक़ा पेश करती है. साथ ही इसमें उनकी आलोचना की प्रतिभा भी देखी जा सकती है. इसमें अदब और ललित कलाओं के नुक़तों पर तो रोशनी डाली ही गई है, प्रगतिशील साहित्य की बुनियादी समस्याओं, बहसों, संवाद, कॉन्फ्रेंस, उद्देश्यों को भी कलमबद्ध किया गया है. बकौल रौशनाई के हिन्दी अनुवादक जानकी प्रसाद शर्मा, ‘‘रौशनाई में इतिहास, संस्मरण और शेरो अदब की समीक्षा के साथ-साथ मार्क्सवादी सिद्धांत निरूपण की धाराएं एक दूसरे में पैबस्त नजर आती है.’’ सज्जाद ज़हीर ने ईरान के अज़ीम गज़लगो हाफिज़ शिराजी की शायरी पर भी एक शोध प्रबंध ‘जिक़्र-ए-हाफिज़’ लिखा है. ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक, अदब और सज्जाद ज़हीर’, ‘मजामीन-ए-सज्जाद ज़हीर’, ‘उर्दू-हिन्दी हिन्दुस्तानी’, ‘उर्दू का हाल और मुस्तक़बिल’ उनकी दीगर किताबें हैं.

सम्बंधित

आई राइट ऐज़ आई फ़ीलः अब्बास

औरतों-मजदूरों के हुक़ूक की हिमायती अंगारे वाली रशीद जहां


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.