ज़ोए अंसारी | राही ख़ुद और रहबर भी

  • 1:42 pm
  • 6 February 2021

सहाफ़ी के तौर पर ज़िल्ले हस्नैन नकवी का नाम शायद कम लोगों की स्मृति में हों, मगर रूसी साहित्य के अनुवाद, ग़ालिब, इक़बाल और अमीर ख़ुसरो पर ज़ोए अंसारी की किताबें पढ़ने-पढ़ानों वालों की दुनिया में ख़ूब अहमियत रखती हैं.

ज़ोए अंसारी न सिर्फ़ एक अदीब, आला तर्जुमा निगार थे बल्कि बहुत अच्छे सहाफ़ी भी. कई रिसालों और अख़बारों को उन्होंने नया अंदाज़, नया तेवर दिया. बांकी नस्र लिखने में उनका कोई मुक़ाबला नहीं था. वे तर्जे तहरीर, तर्जे तकरीर और तर्जे तख़्लीककार औरों से मुख़्तलिफ़ थे.

मेरठ में जन्म ज़ोए अंसारी का पूरा नाम ज़िल्ले हस्नैन नक़वी था. वालिदैन उन्हें मजहबी तालीम दिलाकर आलिम बनाना चाहते थे. शुरूआती तालीम सहारनपुर और मेरठ में हुई. उर्दू और फ़ारसी में माहिर शुरू से थे, बड़े हुए तो अरबी ज़बान पर भी दस्तरस हासिल कर ली. घर वालों मर्ज़ी के ख़िलाफ़ वे सहाफ़त की दुनिया में आए. ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफीन’ से शुरूआत से ही उनका वास्ता हो गया था. दिल्ली में छोटे-मोटे अख़बारों में काम किया. बाद में सज्जाद जहीर के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बारों ‘नया ज़माना’ और ‘क़ौमी जंग’ से जुड़ गए. उर्दू के एक और मकबूल अख़बार ‘इंकलाब’ के भी एडिटर रहे.

‘रौशनाई : तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’ में सज्जाद जहीर उनके मुतआल्लिक लिखते हैं, ‘‘हमारे इन जलसों में ज़ोए अंसारी आलोचना और नुक्ताचीनी के मैदान के सबसे बड़े शहसवार थे.’’ लिखते हैं, ‘‘ज़ोए अंसारी की ख़ूबी यह थी कि वह अपने दुबले बदन, बातचीत के शालीन अंदाज और धीमी आवाज़ के कारण नैतिकता का साक्षात रूप मालूम होते थे. वह हमारे गिने-चुने ‘मौलवी’ लोगों में से थे, जिन्होंने अरबी-फ़ारसी की तालीम पुराने क़िस्म के मदरसों में हासिल करके, फिर अंग्रेज़ी पढ़ी थी और धीरे-धीरे तरक़्क़ीपसंद नज़रिये और आंदोलनों से प्रभावित होकर आधुनिक क़िस्म के लेखक और पत्रकार बने थे. उनकी आदतें कभी-कभी विरुद्धों का समूह मालूम होती थीं और उनके विचारों में (उस ज़माने में) आधुनिक रुझानों का मेल ऐसा लगता था, जैसे लखनऊ की फूलदार छपी हुई ओढ़नी पर फ्रांसीसी साटन का पैबंद लगा दिया जाए. इन कारणों से उनकी ज़ात और बात दोनों में एक अजूबापन, एक क़िस्म की दिलचस्पी होती थी. ज़बान में किसी क़िस्म की ख़ामी या झोल और अर्थ में अस्पष्टता या ज़रूरत से ज्यादा बारीक़ी उनके लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त थीं. उनकी मौलवियाना शिक्षा-दीक्षा ने एक हद तक खुश्क क़िस्म की बेलोच सोच से उनके मस्तिक को बोझल कर दिया था. बहस और संवाद की शुरूआत करने के लिए वह मौजूं मालूम होते थे. चुनांचे वह जोश मलीहाबादी हों या कृश्न चंदर, सरदार ज़ाफरी या कैफ़ी आज़मी, मजाज या मजरूह या कोई और, ज़ोए अंसारी कोई न कोई एतराज उन पर आहिस्ता से कर देते थे.’’ अंदाज़ लगाया जा सकता है कि जो शख़्स जोश, जाफ़री, कैफ़ी जैसे आला शायरों के क़लाम में भी कोई न कोई नुक्स या कमी निकाल ले, उसका अदब और ज़बानों का किस कदर मुताला होगा.

कम्युनिस्ट और सहाफ़ी मुहम्मद असदुल्लाह ज़ोए अंसारी के गहरे दोस्त और राजदां थे. उन्होंने ज़ोए अंसारी पर एक बहुत अच्छा यादनामा ‘यादें-यार मेहरबान-ज़ोए अंसारी’ लिखा है. इस यादनामे में उन्होंने भी ज़ोए अंसारी की शख़्सियत की इन्हीं ख़ूबियों को याद करते हुए लिखा है,‘‘ज़ोए अंसारी गुफ़्तगू ही के गाज़ी नहीं थे, जुअर्तमंदी की भी मिसाल थे. मैंने हज़ारहा शामें फ़ैज़ के साथ मास्को, बर्लिन, बेरूत, लंदन, प्राग और वारसा में गुज़ारी है. हर जगह फ़ैज़ शम्अ बन जाते थे और परवानों की कमी नहीं रहती थी. हां, ज़ोए की शख़्सियत मुख़्तलिफ थी. वो फ़ैज़ के क़द्रदान थे, लेकिन ऐसे क़द्रदान जो फ़ैज़ के मुंह पर उनकी ग़लतियों की निशानदेही भी करते थे. अदब के साथ भी और कभी-कभी शोखी के साथ भी.’’

ज़ोए अंसारी ज़हीनतरीन इंसान थे. ज़िंदगी में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे. ग़म और तकलीफें उठाईं थीं. सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने का माद्दा उनमें औरों से कहीं ज्यादा था. उन्होंने हमेशा अपने ज़मीर की सुनी. एक बार जो ठान लेते थे, तो फिर उसे पूरा कर के ही दम लेते थे. एक मर्तबा अली सरदार ज़ाफरी ने ज़ोए अंसारी से कह दिया, ‘‘आप कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार में काम कर रहे हैं. अंग्रेज़ी ज़बान इल्म का दरवाज़ा खोलती है और आप को अंग्रेज़ी की शुदबुद भी नहीं.’’ ज़ोए अंसारी को यह बात ऐसी चुभी कि दो-तीन साल में उन्होंने अंग्रेज़ी ज़बान में ऐसी महारत हासिल की कि न सिर्फ़ अंग्रेज़ी में जार्ज बर्नार्ड शॉ पर एक मुकम्मल किताब लिख डाली, बल्कि अंग्रेज़ी ज़बान से उर्दू में कई किताबों के अनुवाद भी किए.

एक लंबा अरसा उन्होंने मास्को में बिताया. वहां वह अनुवादक की हैसियत से गए थे. कुछ अरसा में ही वह रूसी ज़बान में भी पारंगत हो गए. वह भी इस हद तक कि सीधे रूसी से उर्दू में तर्जुमा करने लगे. रूसी ज़बान में उन्होंने डॉक्ट्रेट भी मुकम्मल कर ली. उर्दू-रूसी और रूसी-उर्दू डिक्शनरी तैयार कर डाली. ज़बानें सीखने का उनमें ग़ज़ब का जुनून था. और सिर्फ़ सीखते नहीं थे, बल्कि उसकी रूह तक पहुंचते थे. उन्होंने पुश्किन, चेख़व, तुर्गनेव, दोस्तोयवस्की, मायकोवस्की, मार्क्स, एंगल्स और लेनिन की ढेर सारी किताबों के तर्जुमें किए हैं. रवां-दवां, बामुहावरा और सब से अव्वलतरीन बात यह है कि तजुर्में ऐन टेक्स्ट के मुताबिक जान पड़ते हैं. बाबाजान गफूरोफ भी, जो सोवियत यूनियन की क़ाबिले एहतिराम हस्ती थे, ज़ोए अंसारी की क़ाबिलियत के मद्दाह थे.

जोए असांरी ने ग़ालिब, अमीर ख़ुसरो और दूसरे अदबी, समाजी, सियासी मसलों और अदबी शख़्सियतों पर भी मजामीन, ख़ाके, निबंध और शोध-पत्र लिखे हैं. ‘ख़ुसरो का ज़ेहनी सफ़र’ और ‘लाइफ़, टाइम्स एण्ड वर्क्स ऑफ़ अमीर ख़ुसरो देहलवी’ ख़ुसरो पर उनकी किताबें हैं. ‘वरक़-वरक़’, ‘अबुल कलाम आज़ाद का ज़ेहनी सफ़र’, ‘चीन की बेहतरीन कहानियां’, ‘चेख़व’, ‘कम्युनिस्ट और मजहब’, ‘ग़ालिब शनासी’, ‘इक़बाल की तलाश’, ‘किताब शनासी’, ‘पुश्किन’, ‘लेनिन घर वालों की नजर में’ और ‘ज़बान-ओ-बयान’ उनकी दीगर अहम् किताबें हैं.

तहरीर के साथ ही उनकी तकरीर का भी कोई जवाब नहीं था. जिस किस्म का मजमा होता, उसी के मुताबिक तकरीर करते. वे अपनी तहरीर और तकरीर दोनों में तर्जे अदा के क़ायल थे. मुज्तबा हुसैन ने अपने एक मजमून में लिखा है,‘‘ज़ोए अंसारी को किसी रहबर की ज़रूरत ही नहीं रही, वो ख़ुद राही भी थे और अपने ख़ुद के रहबर भी.’’ ज़ोए अंसारी का जिस तरह का मिजाज और उसूल थे, उस लिहाज से जब सोवियत यूनियन में सत्ता की गड़बड़ियां पेश आईं, तो वे उसकी सख़्त आलोचना करने से बाज नहीं आए. उनकी आलोचनाएं भी इंतिहाई सख़्त हुआ करती थीं.

सोवियत संघ ने जब अफ़गानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजीं, तो उन्होंने उसके ख़िलाफ़ मजामीन लिखे. आख़िरी वक्त में वे कम्युनिज़्म से इतने मायूस हो गए कि उन्होंने ऐलान कर दिया कि वो अपनी तहरीरों से किनारा (डिस्ऑन) करते हैं. गो इस एक वजह से उनकी अहमियत कम नहीं होती. मार्क्सवादी फ़लसफ़े की तमाम किताबों और रूसी अदब की किताबों का जैसा तर्जुमा उन्होंने किया है, उसी की बिना पर वह हमेशा याद किए जाएंगे.

जन्म | 6 फरवरी, 1925 | मेरठ
निधन | 21 फरवरी, 1990 | मुंबई


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