आगरे की रामबरात | इस बार बहुत याद आएंगे बराती होने के संस्कार

  • 8:39 pm
  • 19 September 2020

मार्च 2020 के बाद आगरा और पड़ोसी ज़िलों के साथ होने वाले हादसों में एक हादसा और जुड़ गया है – हर वर्ष होने वाली आगरा की विराट ‘रामबरात’ का रद्द किया जाना. इस विराट महोत्सव में शामिल होने वाले लाखों-लाख लोगों में हम (मैं और मेरी पत्नी) भी शामिल हैं. 15 साल पहले, जब से अपने शहर में वापस लौटा हूँ, शहर की इस सबसे बड़ी वार्षिक सांस्कृतिक परिघटना को देखने का मोह संवरण नहीं कर पाया हूं.

इन अर्थों में सौभाग्यशाली भी हूं कि इसका यात्रा रुट मेरे घर वाली सड़क (छिली ईंट रोड) पर है और इस शानदार ‘बरात’ का बाराती बनने के लिए मुझे और मनीषा को कोई विशेष जतन नहीं करना पड़ता है. इस बरात में शामिल होने के लिए हमारी सांस्कृतिक टोली के ढेर से बच्चे भी हमारे यहाँ सरे शाम आ धमकते हैं और पूरी रात चलने वाले वाले हो-हल्ले में उनके साथ हम भी शामिल हो जाते हैं. कचौड़ी, मठरी, चाट, सकलपारे और न जाने क्या-क्या, हम दोनों पति-पत्नी अपने हाथों से इन बच्चों का सत्कार करते हैं.

‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ वाली कहावत ‘रामलीला’ के जन्मोदय पर भी लागू होती है. किंवदंती तो यह प्रचलित है कि सबसे पहली ‘रामलीला’ 16 वीं सदी में तुलसीदास के शिष्य मेधा भगत ने खेली, जो काशी के रहने वाले थे. इसका हालाँकि कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं मिलता. ‘रामलीला’ की उत्पत्ति के समय-काल को लेकर भले ही कितना विवाद हो, यह एक निर्विवाद सत्य है कि ‘रामलीलाएं’ मध्यकाल का सबसे प्राथमिक लोक नाट्य थीं. दरअसल बाद में इसी से स्वांग, नौटंकी, भगत, पांडवी, बिदेसिया, लौंडा नाच और आगे चलकर पारसी रंगमंच जैसी उत्तर भारत की प्रमुख लोक नाट्य विधाओं का जन्म हुआ.

सचाई तो यह है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी के आधुनिक रंगमंच को जन्म देने में जितनी भूमिका यूरोप के ‘विक्टोरियन थिएटर’ की थी, कोख में पालने-पोसने में उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण भूमिका ‘रामलीला’ और उससे जन्मे इन्हीं लोक नाट्यों की थी.

‘रामबरात’ दरअसल रामायण के श्रीराम विवाह से जुड़ी है. श्रीराम आदि की कथा पर आधारित ‘रामलीला’ यूं तो पूरे उत्तर भारत और मैसूर सहित दक्षिण भारत के कुछेक स्थानों पर खेली जाती है लेकिन ‘रामबरात’ का चलन सिर्फ आगरा में है. हाल के कुछ दशकों से, यहाँ की देखा-देखी फ़िरोज़ाबाद, मथुरा और पश्चिमी यूपी के कुछेक दूसरे शहरों में भी इसका चलन शुरू हो गया है लेकिन आगरा की ‘बरात’ अप्रतिम है.

यूं क़िस्सागोइयों और दंतकथाओं में आगरा की ‘रामबरात’ का विवरण मुग़ल काल से दिया जाता है लेकिन जहाँ तक दस्तावेज़ीकरण का सवाल है, इसकी शुरुआत उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से होती है. अंग्रेज़ अधिकारी भी सपरिवार इस बरात में बड़ी रुचिपूर्ण तरीके से बाराती बनकर शामिल होते थे यद्यपि एक-दो बार वे राष्ट्रीय नेताओं और क्रांतिकारियों के हमलों का शिकार भी हुए. सन् 1940 में जब ‘बरात’ बेलनगंज क्षेत्र से गुज़र रही थी तब रोशनलाल गुप्त और वासुदेव गुप्त आदि कई देशभक्त क्रांतिकारियों ने तत्कालीन कलेक्टर हार्डी पर बम से हमला किया था. बम का निशान चूक गया और कलेक्टर बाल-बाल बच गए थे.

न सिर्फ़ आगरा की ‘रामबरात’ में बराती के रूप में हिन्दू, मुस्लमान, सिख और ईसाई पूरी श्रद्धा और तन्मयता से शामिल होते रहे हैं, लम्बे समय से इसके स्वरूपों और चरित्रों में भी शहर के विभिन्न धर्मावलम्बियों की भागीदारी होती रही है. यह परंपरा सैकड़ों सालों से चली आ रही थी. पिछले कुछ सालों से रामलीला कमेटी ने आगरा के सभी स्थानीय भागीदारों को हटा कर मथुरा-वृन्दावन से पेशेवर कलाकारों की टोलियों को बुलाना शुरू कर दिया है. तब भी बरात में शामिल झांकियों के निर्माता और संचालक बड़ी संख्या में ग़ैर-हिन्दू भी होते हैं. राम बरात के लिए जनकपुरी के रूप में आगरा शहर के किसी मोहल्ले या बस्ती (अब नयी कॉलोनियां भी) का चयन किया जाता है.

जनक के पद के चयन के लिए बाक़ायदा नीलामी होती है, बोली लगती है. यह बोली अब बढ़ते-बढ़ते पचासों लाख तक पहुँच चुकी है. सबसे ज़्यादा बोली लगाने वाले जनकपुरी क्षेत्र के स्थानीय सेठ या रईस को ही इस पद के लिए ‘सुशोभित’ किया जाता रहा है. तीन दिन की इस जनकपुरी को अत्यंत भव्य तरीके से सजाया जाता है. इसके ‘आर्किटेक्चर’ के के लिए बंगाल, ओडिशा या दक्षिण अंचलों से देश के नामचीन वास्तुविद् और कलाकार बुलाए जाते हैं. जनकपुरी में तीनों दिन पूरी-पूरी रात चलने वाले भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देखने के लिए रघुकुल के साथ पूरा शहर उमड़ पड़ता है. एक तरह से इन तीन दिनों के लिए नगर की बाक़ी प्रमुख गतिविधिया ठप पड़ी रहती हैं.

इस पर्व की तैयारियां महीनों पहले शुरू हो ही जाती हैं. रामबरात के दिन समूचा शहर, आसपास के ग्रामीण अंचल और दूसरे ज़िलों और पड़ोसी राज्यों-राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा आदि से आए लोग सरे शाम आगरा शहर में दाख़िल हो जाते हैं और देखते ही देखते आश्विन माह की एकादशी की समूची रात सात-आठ किलोमीटर लंबे बरात मार्ग पर 30-35 लाख लोगों का हुजूम बराती बन के भोर हो जाने तक उमड़ता-घुमड़ता रहता है. 12 वर्षीय कुम्भ के प्रमुख नहान की रात्रि के अलावा एक रात में इतने छोटे से क्षेत्र में जन सैलाब के इस रूप में उमड़ पड़ने का ऐसा परिदृश्य देश में अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता.

इनमें घुमंतू शौक़ीन दर्शक तो होते ही हैं, झांकियां सजाने वाले कलाकार, झांकियों में सजे-धजे स्वरुप बनकर चल रहे लोग, बैंड-बाजे वाले, खोमचे वाले, फेरियां लगाकर बिक्री करने वाले भांति-भांति के लोग, हज़ारों की तादाद में ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी, सरकारी अधिकारी और कर्मचारी सभी बरात के ‘बराती’ पहले होते हैं, बाक़ी कुछ बाद में. दरअसल धर्म या संप्रदाय की सीमाओं से बाहर निकल कर ये सभी धर्मों-सम्प्रदायों का एक ऐसा विराट सांस्कृतिक महासमुद्र बन जाती है जिसमें निजता और तुच्छता के चिंतन के सभी छोटे-बड़े नदी नाले समाहित हो जाते हैं.

ये ‘बराती’ दरअसल एक रात के लिए अपना धर्म, अपनी जाति – सब कुछ भूल जाते हैं. उनके भीतर एक ही संस्कार घुमड़ता रहता है, वह है बराती होने का संस्कार. पूरी रात वे इसी संस्कार से जनित प्रेम में आकंठ डूबे रहते हैं. इसके अलावा उन्हें न कुछ सूझता है, न याद रहता है. हाल के दशकों में देश में सामाजिक और सांप्रदायिक घृणा और वैमनस्य की जैसी आंधी बही है, उसके विपरीत यह ‘बरात’ और उसके ‘बराती’ सारी-सारी प्रेम और सौहार्द की गंगा में डूबते-उतराते रहते हैं, जिसे देख कर लगता है कि अगर यही हमारी मूल संस्कृति और उसका आधार है तो वे अगले दिन इसे भूल क्यों जाते हैं? हर बार जब-जब इस ‘बरात’ से रूबरू होता हूँ और इसकी व्यापकता और विराट स्वरुप से दो-चार होता हूँ, तब-तब संस्कृतिकर्मी और लेखक होने के नाते मन में सवाल उठता है कि क्या आगरा की इस महान सांस्कृतिक विरासत का उपयोग समकालीन समाज के विकास में हो सकता है?

इतिहास को खंगाले तो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के बंगाल में दुर्गा पूजा को लेकर और बीसवीं सदी के दशकों में महाराष्ट्र में गणेश उत्सव का चिन्हांकन जिस तरह से तत्कालीन समाज को साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय भावनाओं से लैस करने में किया गया था, क्या रामबरात का वैसा ही उपयोग समकालीन समाज को संचेतन बनाने में नहीं किया जा सकता? श्रीराम और उनकी कथा देश के एक बहुत बड़े अंचल में न सिर्फ़ जातीय प्रेम के प्रतीक के रूप में उभरती है बल्कि वह नस्लीय प्रेम के दर्शनों से भी सराबोर रहती है. मनुष्यों से लेकर वानरों, रीछ और भालू तक, सब का सामूहिक संयोजन थी श्रीराम की सेना में मौजूद था.

श्रीराम के नाम पर संस्कृति की दुकान चलाने वाले अपने राजनीतिक एजेंडों में या संस्कृति, मनोरंजन और समाचार के नाम पर टीवी चैनलों के संचालक अपने ‘प्राइम टाइमों’’ में सैन्य या प्रशासनिक सेवाओं में धर्म या जाति का बेहूदा सवाल खड़ा करने वाले फूहड़ कार्यक्रमों को पेश करते समय यह कैसे भूल जाते हैं कि दुनिया में बहुजातीय और बहुनस्लीय प्रेम की एक बड़ी मिसाल है श्रीराम की सेना.

दूसरी तरफ देखें तो सूरदास का समूचा साहित्य इस बात की गवाही देता है कि 16 वीं सदी का गोप समाज जिस तरह से नारी स्वातंत्र्य का अलम्बरदार था जिसका वर्णन उन्होंने गोपिकाओं के रूप में किया है. वही ‘काउ बेल्ट’ आज ‘ऑनर किलिंग’ की सबसे बड़ी क़त्लगाह बन चुका है. इतना ही नहीं, भ्रूण हत्या के मामले में भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा कलंक बन चुका है. क्या ‘रामबरात’ जैसे महामंचों का उपयोग नारी हत्या के विरोध में नहीं किया जा सकता? क्या रामबरात का दीर्घ आंगन इन बड़े-बड़े सवालों की चर्चा का गवाह नहीं बन सकता? क्या संस्कृति की इस विराट चादर से रोते हुए समकालीन समाज के आंसू नहीं पोंछे जा सकते हैं?

बहरहाल इस बार तो ‘बराती’ और आयोजक इस विराट पर्व से अछूते रह जाएंगे लेकिन आगे के सालों में क्या इस पर अमल हो सकेगा?

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