पढ़ते हुए | बेगम समरू का सच

  • 9:10 pm
  • 22 June 2020

ज़्यादातर लोगों के लिए इतिहास उबाऊ होता है, लेकिन यह भी सही है कि जो उसमें डूबता है, यह उसे उतना ही रुचिकर भी लगता है. एक के बाद एक जिज्ञासा से नए-नए सूत्र मिलते हैं और उन सूत्रों से कहानी की ऐसी शक्ल बनती है, जिसका अंदाज़ पहले से नहीं लगाया जा सकता. कितनी ही गवाहियां मिलती हैं कि इतिहास में ही वर्तमान, और कई बार भविष्य की भी समस्याओं के समाधान छिपे होते हैं. बेगम समरू के जीवन और उनके इतिहास से मैं अभी तलक अन्जान था, हाल ही में उसे जानने-समझने का मौक़ा मिला. हालांकि इतिहास की किताब से नहीं, मैंने उन्हें फ़िक्शन के ज़रिए जाना है. बल्कि यूं कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा कि इतिहास और फ़िक्शन की मिली-जुली किताब की मार्फ़त.

‘संवाद प्रकाशन’ से हाल ही में आई, ‘बेगम समरू का सच’ भारतीय इतिहास के गंभीर अध्येता राजगोपाल सिंह वर्मा की पहली किताब है. यह ‘बेगम समरू’ जैसे ऐतिहासिक क़िरदार के इर्द-गिर्द बुनी कहानी है. कहानी जो दरअसल सरधना की मशहूर बेगम की जीवनगाथा है, जिसने आधी सदी से ज़्यादा वक़्त यानी 58 साल तक सरधना की जागीर पर अपनी शर्तों, सम्मान और स्वाभिमान के साथ राज किया. एक ऐसे दौर में जब सत्ता का संघर्ष चरम पर था –  मुगल, रोहिले, जाट, मराठा, सिख, राजपूत, फ्रेंच शासक-सेनापति अपनी-अपनी सत्ता बचाने-बढ़ाने के लिए एक-दूसरे से संघर्ष में मुब्तला थे, साम्राज्यवादी ईस्ट इंडिया कंपनी सियासत की अपनी नई-नई चालों, कूटनीति और षडयंत्रों से आहिस्ता-आहिस्ता भारत के विशाल भू-भाग पर कब्जा करने में लगी हुई थी, ऐसे हंगामाख़ेज़ माहौल में बेगम समरू ने अपनी सूझबूझ और कुशल नेतृत्व क्षमता से न सिर्फ अपनी रियासत को बचाए रखा, बल्कि उस रियासत में रहने वाली अवाम को भी ख़ुशहाल बनाए रखा. फ़रज़ाना यानी बेगम समरू की शख़्सियत के प्रति आदर इसलिए और भी बढ़ जाता है कि उनकी न तो कोई सम्मानजनक पृष्ठभूमि थी और न ही वह किसी शाही घराने से वास्ता रखती थीं. वह तो एक साधारण तवायफ थीं, जिसे क़िस्मत ने सरधना की बेगम बना दिया था.

तक़दीर ने फ़रज़ाना को जो मौक़ा दिया था, उन्होंने उसे ख़ूब ज़िम्मेदारी के साथ निभाया. ऐसे बेमिसाल क़िरदार को इतिहास ने बिल्कुल बिसरा दिया. अलबत्ता उनके बारे में तरह-तरह की किवदंतियां मशहूर हैं. ऐसे किसी क़िरदार का ज़िंदगीनामा लिखना, वाकई आसान नहीं. अठारवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर उन्नीसवीं सदी के साढ़े तीन दशकों तक बेगम समरू के लंबे जीवन और उत्तर भारत के पूरे सियासी घटनाक्रम पर तटस्थता और तथ्यों के साथ लिखी कहानी मुझे असरदार लगी. एक ऐसे दौर में जब इतिहास इरादतन बदला जा रहा हो,  या फिर तथ्यों को दरकिनार कर उससे छेड़छाड़ की जा रही हो, इतिहास और आख्यान दोनों के मेल से रची बेगम समरू की यह जीवनी सुखद अहसास है. हालांकि, इस जीवनी में आख्यान कम और इतिहास ज्यादा है. हालांकि मुझे लगता रहा कि बेगम समरू के क़िरदार में इतने रंग और शेड्स हैं कि उन्हें और भी दिलचस्प तरीके से पेश किया जा सकता था. इसी तरह  रेन्हार्ट सोंब्रे, जार्ज थॉमस, ली-वासे के क़िरदारों को कुछ और ज़्यादा जानने का आग्रह मेरा नितांत निजी है क्योंकि इन सारे क़िरदारों की भूमिका कम अहम् नहीं. ग़ुलाम क़ादिर और शहंशाह शाह आलम के क़िरदार और भी नाटकीय हो सकते थे. फिर भी किताब बांधे रखती है. अतीत के विस्तृत विवरण इसे बोझिल नहीं बनाते.

ऐसा नहीं कि बेगम समरू पर पहले नहीं लिखा गया. हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही ज़बानों में उनकी ज़िंदगी पर कई किताबें लिखी गई हैं, मसलन ‘सात घूंघट वाला मुखड़ा’ (अमृतलाल नागर), ‘दिल पर एक दाग़’ (उमाशंकर), ‘बेगम समरू ऑफ सरधना’ (माइकल नारन्युल), ‘समरू, द फीयरलेस वारियर’ (जयपाल सिंह), ‘सरधाना की बेगम’ (रंगनाथ तिवारी), ‘आल दिस इज़ एंडेड : द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ बेगम समरू ऑफ सरधना’ (वेरा चटर्जी). लेकिन इनमें से कई उनकी बेजोड़ शख़्सियत से इंसाफ नहीं करतीं. ऐसे दौर में जब भारतीय समाज में महिलाओं को आज़ादी नाममात्र की थी, यहां तक कि वे अपनी ज़िंदगी से जुड़े हुए फ़ैसले भी ख़ुद नहीं ले पाती थीं, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक तौर पर ऐसे विषमतापूर्ण माहौल में बेगम समरू का एक जांबाज योद्धा के तौर पर जीना, रियासत का नेतृत्व करते हुए एक साथ कई मोर्चों पर जूझना, सत्ता के अनेक केन्द्रों से संतुलन बनाए रखना, युद्ध की रणनीतियों को अंजाम देना, मुस्लिम से कैथोलिक ईसाई बनना, जर्मन और फिर फ्रेंच सेनापति से विवाह संबंधों में बंधना, ये सारी बातें उनको अलग मुक़ाम का हक़दार बनाती हैं.

बेगम समरू ने अपनी जान पर खेलकर दो बार मुगल सम्राट शाह आलम की जान भी बचाई थी. बेगम समरू के इस बहादुरी भरे कारनामे की ही वजह से मुगल बादशाह ने उन्हें ‘ज़ेब-उन-निसा’ की उपाधि दी थी. बेगम समरू की ज़िंदगी के बारे में ऐसे तमाम दिलचस्प तथ्य  इस किताब में मिलते हैं. किताब की संक्षिप्त प्रस्तावना में शंभूनाथ शुक्ल ने बेगम समरू की ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं पर पर्याप्त रोशनी डालने के साथ-साथ, हिन्दी में अच्छे ऐतिहासिक उपन्यास नहीं लिखे जाने के कारणों पर टिप्पणी की है. उनका कहना है कि ‘‘हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास तो मिलते हैं, लेकिन इतिहास में साहित्य नहीं मिलता.’’ उनका दावा और सोच है कि ‘बेगम समरू का सच’ इस कमी को पूरा करता है. किताब पढ़कर, शायद बाक़ी लोग भी उनकी इस बात से इत्तेफाक़ रखें. कम से कम, मैं तो इस नतीजे पर पहुंचा ही हूं.

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