पुनर्पाठ : लंदन की एक रात

  • 10:56 pm
  • 13 September 2020

‘‘इंसानी ज़िन्दगी का दायरा सिर्फ़ इश्क़ और मुहब्बत तक महदूद नहीं. क्या इसके अलावा और बहुत से मसाइल और बहुत सी दिलचस्प और ग़ैर दिलचस्प चीज़ें नहीं हैं, जिनसे हम बावस्ता हैं? इन चीज़ों को छोड़कर हम खला-ए-महज में रहकर इश्क़ नहीं कर सकते.’’ ‘लंदन की एक रात’ उपन्यास के आख़िर में नायक हीरेन की तरफ़ से अपनी महबूबा शीला ग्रीन पर ज़ाहिर ये जज़्बात केवल हीरेन के ही नहीं, बल्कि ख़ुद सज्जाद ज़हीर के हैं, जिसकी बिना पर वह ताज़िंदगी चले. जब ज़िन्दगी की यह समझ बनी, तो एक बड़े मक़सद के लिए वह हिन्दुस्तान लौट आए.

‘न्यू कॉलेज ऑक्सफोर्ड’ में अपनी पढ़ाई के दौरान अंग्रेज़ों की हिकारत के शिकार रहे, सज्जाद ज़हीर ने एक मज़बूत इरादे के साथ लंदन छोड़ा था, जिसका जिक़्र ‘लंदन की एक रात’ के क्लाईमेक्स में भी मिलता है. उपन्यास के हीरो हीरेन का किरदार यदि देखा जाए, तो यह उनकी ज़ाती ज़िन्दगी से बहुत हद तक मेल खाता है. दरअसल ‘लंदन की एक रात’ के कई किरदार हक़ीकतनिगारी के चलते सच्चाई के बेहद क़रीब लगते हैं. यथार्थ की बेबाक अक्कासी से उपन्यास की जो ज़मीन तैयार हुई है, वह बेहद पुरअसर है. और यह सज्जाद ज़हीर का पहला और आख़िरी उपन्यास था हालांकि इसकी समग्र प्रभावशीलता इसे हर दौर में नए मायने देगी. और यही प्रासंगिकता इसे क्लासिक के दर्ज़ा देती है.

उपन्यास लिखने के पसमंज़र को देखा जाए, तो सज्जाद ज़हीर ने जब यह उपन्यास लिखा तो लेखन के तजुर्बे के नाम पर उनके पास 1932 में छपे कहानी संग्रह ‘अंगारे’ में शाया हुए कुल जमा तीन अफ़साने और एकांकी ‘बीमार’ था. ‘लंदन की एक रात’ लिखने के बारे में सज्जाद ज़हीर ‘रोशनाई’ में लिखते हैं, ‘‘भला चंद कहानियां और एक नाटक लिखना एक बात और लेखक बनना दूसरी बात थी. ‘अंगारे’ की मकबूलियत लंदन के हिन्दुस्तानियों तक पहुंच चुकी थी. मुझे इसकी तो ख़ुशी थी कि साहित्य क्षेत्र में मेरे प्रारम्भिक प्रयत्नों ने पूर्ववर्तियों की दाढ़ियां झुलसा दी थीं. इससे भी बड़ा इत्मिनान था कि अब्दुल हक़ ने उर्दू में इन अफ़सानों को अच्छा कहा था. लेकिन अपनी साहित्यिक योग्यता के बारे में मुझे किसी प्रकार का भ्रम नहीं था. इस साहित्यिक हलचल में अपनी आत्मा की निष्ठा को बचाने के लिए मैंने ‘लंदन की एक रात’ शुरू किया.’’ बहरहाल अपने दिल की आवाज़ और मुआशरे के प्रति उनकी बेलाग निष्ठा ने ‘लंदन की एक रात’ को जन्म दिया. एक लिहाज़ से देखें, तो ‘लंदन की एक रात’ में सज्जाद ज़हीर ने अपनी आने वाली जिन्दगी का एक ऐसा ब्लू प्रिन्ट तैयार किया था, जिसे उन्होंने बाद में सरअंजाम दिया.

अपने उपन्यास में लंदन में रह रहे हिन्दुस्तानी तालिबे-इल्म के मार्फ़त सज्जाद ज़हीर ने जज़्बात का जो इज़हार किया है, वह उनकी सोच का पता देता है. उपन्यास में ‘राव’, ‘एहसान’, ‘हीरेन’ की शक्ल में वह बार-बार पाठकों से मुख़ातिब होते हैं. किरदारों के तर्क हमें सोचने को मजबूर करते हैं. राव और आजम के बीच बातचीत के दौरान राव जिस तरह से हिन्दुस्तान की लीडरशिप पर तंज़ करता है, वह काबिले-ग़ौर है और मआनीख़ेज़ भी. ‘‘वतन की भलाई के लिए कोशां हैं! जरा मुझे बताइये तो सही, कौन? किसी को यह तक तो मालूम नहीं कि वतन की भलाई है किस चिड़िया का नाम. उसके लिए कोशां होना, तो दरकिनार. जनाना बनकर चर्खा कातने में वतन की भलाई है या महात्मा गांधी की तरह सच की खोज करने में वतन की भलाई है? या सोशल रिफ़ॉर्म और अछूत कॉफ्रेंस में हिस्सा लेने में वतन की भलाई है? सरकारी मुलाजमत में वतन की भलाई है? या हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग में काम करने में वतन की भलाई है? हर शख़्स के पास वतन की भलाई का एक नुस्ख़ा है. हर शख़्स मालूम होता है, वतन की भलाई के लिए कोशां है! हर शख़्स पुकार-पुकार कर कहता है कि वतन की भलाई के लिए काम कर रहा है. हद हो गई इनकी देखा-देखी अंग्रेज़ी गवर्मेन्ट तक कहने लगी कि वह भी हिन्दुस्तान की भलाई चाहती है! और मुल्क की हालत क्या है? एक तरफ़ तो ग़ुरबत और भूख का साया मुल्क पर फैलता जा रहा है, दूसरी तरह ज़ुल्मों जब्र का जाल चारो तरफ़ से हमको जकड़ता जा रहा है. क्या अच्छे हमारे भलाई करने वाले हैं.’’ यह संवाद गवाह है कि सज्जाद ज़हीर हिन्दुस्तान में चल रही उस समय की सियासी हलचल से पूरी तरह वाकिफ़ भी थे और वाबस्ता भी. मुल्क की बेहतरी के लिए मुख़्तलिफ़ विचारधारा वाले सियासतदानों ने जो रास्ते अख़्तियार किए थे, वे किसी से भी पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे. वहीं हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए अपनाए जा रहे तौर-तरीक़ों से भी वे नाख़ुश थे.

हालात से मजबूर हो समझौता कर लेने की राव की खीझ और अहसान के बाग़ियाना अंदाज़ के तेवर कई जगह पर एक नई जंग के आगाज़ को आवाज़ देते हैं. अहसान और हीरेन सज्जाद ज़हीर के तसव्वुर के नायक हैं. अहसान के राव और करीमा बेगम के साथ जिरह के तर्क उस दौर के हालात पर ज़बरदस्त चोट करते हैं. अहसान के ज़ेहन में एक ऐसे निज़ाम का तसव्वुर है जिसमें मजदूरों, दलितों, औरतों, पिछड़ों को भी उनके हक़ और इंसाफ़ मिलें. ज़ाहिरा तौर पर उपन्यास में अहसान की बातें इश्तिराकियत (साम्यवाद) की ओर इशारा करती हैं. जो बिलागरज़ उस वक़्त के हालात और मौजूदा दौर में भी बेहद ज़रूरी जान पड़ती हैं. ‘‘ये तब्दीली, ये समझ यकबारगी किसी में पैदा नहीं होती, बल्कि वर्षां की दिमागी और जिस्मानी मशक्कत का नतीजा होती है. मजदूर की समझ में तो ये बात आसानी से आ जाती है कि उसकी मेहनत का फल उसको मिलना चाहिए, मगर अमीर आदमी की समझ में इस बात का आना बहुत मुश्किल है. इस वजह से नहीं कि ये कोई बड़ी पेचीदा बात है, बल्कि इस वजह से कि इसमें उसका नुकसान है. लेकिन इस गिरोह के वो इक्के-दुक्के लोग जो मेहनत और मजदूरी करने वालों के इंक़लाबी नज़रिये को क़ुबूल करके उस पर अमल करने के लिए भी आमादा होते हैं, ज्यादातर तलिबे-इल्म के ही तबके में से निकलते हैं. क्या ये बहुत बड़ी ग़लती न होगी, अगर हम इस बात की कोशिश भी न करें कि हम उन तलिबे-इल्मों को जो हमारे नए ख़्यालात को क़ुबूल करने की सलाहियत रखते हैं, वो जिनके दिल मुर्दा नहीं हो चुके हैं और जिनके दिमाग़ मुअत्तल नहीं है और जिनके जिस्म काम करने से नही भागते, हम उनको उस रास्ते की तरफ लाने में मदद दें, जिधर ज़िन्दगी की रोशनी है, जिधर तकलीफ़ और मुसीबत, मुश्किल तो ज़रूर है लेकिन मौत का घटाटोप अंधेरा नहीं, जिधर हर बेहूदा बेहिसी का नाम खुशी नहीं बल्कि जिधर मसर्रत का एक नया अहसास है, कुदरत की अंधी ताक़तों को ज़ेर करने की मसर्रत, इंसानों को बेशऊरी, बद-नज़्मी और ख़ुदगर्जी की बरबरियत से निकालकर एक मुनज्जम, मुहज्जब और मुतमद्दिन दुनिया बनाने की मसर्रत, काम की मसर्रत, मेहनत और मशक्कत की मसर्रत.’’ सज्जाद ज़हीर को मजदूरों, नौजवान तालिबे-इल्मों में ही उम्मीद की लौ दिखती है. उनका मानना था कि दुनिया का कोई भी बड़ा बदलाब नौजवानों की हिस्सेदारी के बिना मुमकिन नहीं.

‘लंदन की एक रात’ में मुख्य किरदार हीरेन का दाख़िला उपन्यास के आख़िर में होता है. आख़िरी सफ़ों पर जिस तरह उस किरदार और उसके जज़्बात, ख़्यालों की अक्कासी सज्जाद ज़हीर ने की है, वह पाठकों पर पुरज़ोर असर करती है. हीरेन की मेहबूबा शीला ग्रीन, नईम को जब अपने माज़ी और ज़ाती ज़िंदगी में दाख़िला देते हुए हीरेन और अपनी कहानी सुनाती है, तब उपन्यास की असल कहानी खुलती चली जाती है. सज्जाद ज़हीर ने इसके लिए फ्लैश बैक का सहारा लिया है. उपन्यास में यह फ्लैश बैक कहीं भी शिथिलता या बोझिलता नहीं लाता, बल्कि हीरेन के आते ही पाठकों की उपन्यास में जो बेताबी बरक़रार थी, वह अपने अंजाम को पहुंच जाती है. पाठक हीरेन पाल और शीला ग्रीन की कहानी से पूरी तरह जुड़ जाते हैं. शैली के नज़रिये से देखा जाए, तो यहां सज्जाद ज़हीर बिल्कुल वर्जीनिया वूल्फ़ की शैली का अनुसरण करते हैं. स्विटज़रलैण्ड की वादियों का कलात्मक ब्योरा, लंदन की रात की लाजवाब अक्कासी, इंसानी जज़्बात का उपन्यास में शिद्दत से इज़हार और शीला ग्रीन-हीरेन पाल की नाकाम मोहब्बत पाठकों के दिलो-दिमाग़ पर माक़ूल असर डालती है.

रसेल स्क्वॉयर के अन्डरग्राउण्ड स्टेशन पर आजम द्वारा अपनी प्रेमिका जे़न के इंतजार से हुई उपन्यास की इब्तिदा आहिस्ता-आहिस्ता अपनी मंज़िल पर पहुंचती जाती है. मंज़िले मकसूद है – हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तानी अवाम और उसकी आज़ादी. लंदन में ऊंची तालीम हासिल करने के बाद सिविल सर्विसेज में नौकरी के ख़्वाब बुनते हिन्दुस्तानी नौजवानों को अपने वतन से दूर रहकर इस बात का एहसास होता है कि वह हिन्दुस्तान में रहें या इंग्लिस्तान, वे जब तक ग़ुलाम रहेंगे अंग्रेज़ों की नज़र में नेटिव्ज़, काले, ब्लैकी ही रहेंगे. ग़ुलामी का यह टीका, मुल्क की आज़ादी के साथ ही उनकी पेशानी से छूटेगा. उपन्यास में लंदन की वह एक रात फ़ैसले की रात है. सज्जाद ज़हीर ने जिस अंदाज़ का शिल्प गढ़ा है, उससे कहीं लगता कि यह उनका पहला ही उपन्यास है.
हिन्दुस्तानी तहज़ीब, अदब, ललित कलाओं, रूहानियत के नुक़्तों पर और अवाम के तमाम मसलों पर वह जिस तरह से अपने ख़्यालात का इज़हार करते हैं, बहुत हद तक वही तो ख़ास हैं. इसमें उनके तरक़्क़ीपसंद नजरिये का साफ़-दीदार होता है. हीरेन की शीला ग्रीन से हिन्दुस्तानी रूहानियत के बारे में की गई बातें ख़ास तौर पर ग़ौर करने लायक़ है, ‘‘मैं तुमसे उस मुल्क के बारे में क्या कहूं! हमारे यहां दुनिया की हर अच्छाई और दुनिया की हर बुराई इंतिहा तक पहुंच गई है. नहीं, मैंने ग़लत कहा, मुझे यूं कहना चाहिए हिन्दुस्तान में दुनिया की तमाम ख़ूबियां अपनी हद तक पहुंचाई जा सकती हैं. लेकिन बुराईयां अपनी हद तक अभी से पहुंच गई हैं. तुमने बाज़ लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि हिन्दुस्तान में रूहानियत का बहुत ज़ोर है. यह बिल्कुल झूठ है. रूहानियत के दो मानी हो सकते हैं. एक तो माद्दियत के बरख़िलाफ़ यानी माद्दी चीज़ों की परवाह न करना. दीनदारी, ख़ुदापरस्ती, आख़िरत की बातों को दुनियावी चीज़ों पर तरजीह देना.’’
‘‘और दूसरे मानी रूहानियत के क्या हैं? ’’ मैंने पूछा.
‘‘दूसरे मानी रूहानियत के यह हो सकते हैं कि इसी दुनियावी ज़िन्दगी में लालच, हवस, दूसरों पर जब्रो-ज़ुल्म करने की ताक़त, ज़हालत, बदअक़्ली, बददियानती को ख़त्म करना और ज़िंदगी के सोये हुए नग़मों को जगाना, जिनके सुनने के लिए हमे एक बड़ा दिल, एक बेदार दिमाग़ और एक तंदुरूस्त जिस्म चाहिए. रूहानियत की दोनो क़िस्में हमारे यहां बिल्कुल मफ़क़ूद हैं.’’
मैंने उसे छेड़ने के लिए कहा, ‘‘आप तो बड़े माद्दियतपरस्त बनते थे. आज रूहानियत का क्यों आप पर दौरा है?’’
‘‘मैं तो माद्दियतपरस्त हूं, लेकिन वो इसलिए कि इंसान की ज़ेहनी और रूहानी तरक़्क़ी को मुमकिन करने में मदद दूं. आज जो लोग रूहानियत का नाम लेते हैं, इनको इस चीज़ से कहीं दूर का भी तआल्लुक नहीं. रूहानियत है क्या ? मजहब में डूबा हुआ दिमाग़!’’ हीरेन कहने लगा, ‘‘तुम अख़बारों में पढ़ती होगी कि हमारे यहां हिन्दू, मुसलमान और सिक्ख एक दूसरे से लड़ते रहते हैं. मज़हबी सवालात की बिना पर. लेकिन इसके क्या ये मानी है कि उनमें रूहानियत या मजहबियत भरी हुई है? बिल्कुल नहीं! चंद महज़बी लीडर जो भूलकर भी ख़ुदा को याद नहीं करते गवर्नमेंट में रूतबे हासिल करने के लिए जिनमें सिर्फ़ उनका ज़़ाती फ़ायदा है, ज़रा-ज़रा सी बातों पर बेकुसूर ग़रीब लोगों को मज़हब का नाम लेकर आपस में लड़ा देते हैं. मज़हब और रूहानियत से उनका कोई वास्ता नहीं.”
‘‘रह गई दूसरी किस्म की रूहानियत. जो क़ौम ग़ुलाम हो, जिसमें अस्सी फ़ीसदी इंसानों को पेट भर खाना न मिलता हो, जिसमें मरज, वबा, बीमारी इस क़दर फैली हो कि सारे मुल्क में मुश्किल से तंदुरूस्त इंसान नज़र आते हों, जहां इल्म गिनती के लोगों तक महदूद हो, जहां बच्चे तक कुम्हलाए हुए फूलों की तरह हों, अक्सर लोगों के चेहरों पर भूख, फ़ाका, ग़ुरबत, मुसीबत लिखी हुई हो और बाक़ियों के चेहरों से सुस्ती, हिमाकत, ज़हालत और एक मकरूह क़स्म की खुशहाली नज़र आती हो, वहां ज़िंदगी के इन रंगीन तोहफ़ों की तलाश करना सरासर हिमाक़त है.’’
हिन्दुस्तानी रूहानियत जिसको कि पूरी दुनिया में इज़्ज़तो-ऐतबार, एहतराम के साथ देखा जाता है, उस रूहानियत को जिस तरह मज़हब, सियासत के ठेकेदारों ने अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया, सज्जाद ज़हीर इसके बरख़िलाफ थे. वे ऐसी रूहानियत पर कई सवाल उठाते हैं, जो इंसान को इंसान के हक़ छीनने पर मजबूर कर देती है. रूहानियत पर उनके पेश किए हुए नुक़्ते आज भी हमें उतने ही मौजूं लगते हैं, जितने कि उपन्यास लिखने के समय. माद्दियतपरस्त होने के बावजूद उन्हें हिन्दुस्तानी रूहानियत और फ़लसफ़े से कोई गुरेज़ नहीं था, बल्कि वो उसे अवाम तक उसके हक़ीक़ी चेहरे-मोहरे में पहुंचाए जाने के हिमायती थे. सज्जाद ज़हीर एक लेखक में आज़ादी और लोकतांत्रिक अधिकारों की चेतना को सबसे अहम मानते थे फिर वह चाहे किसी मज़हब या विचारधारा का मानने वाला हो.

‘लंदन की एक रात’ दुनिया और उसकी तमाम मख्लूक की जिस्मानी और ज़ेहनी आज़ादी, उनके हक़ और इंसाफ़ का अव्वलतरीन दस्तावेज है. अगर रूसो, वाल्तेयर, दिवेरो 1789 की फ़्रांसीसी क्रांति के अगुआ थे, इटली में अंतोनियो ग्राम्शी का जो मुकाम है और रूस मे जारशाही के ख़िलाफ़ पुश्किन, बेलिंस्की, तुर्गनेव, शेद्रिन, तॉलस्तॉय, दोस्तोयवस्की, चेख़व और गोर्की का अहम योगदान है, तो हिन्दुस्तान की आज़ादी में सज्जाद ज़हीर, तरक़्क़ीपसंद तहरीक और उनके मुसन्निफ़ीन के योगदान को नकारा नहीं जा सकता.

सम्बंधित

किताब | तरक्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र

पुनर्पाठ | एक गधा नेफा में


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.