प्रसंगवश | उदास चेहरों की दास्तां
मुंबई से आने वाली रेलगाड़ियों में इन दिनों फ़ैज़ाबादियों की तादाद बढ़ गई है. गर्मियों की शुरुआत के साथ पूर्वांचल लौटने वाले यों भी ज्यादा होते हैं. ब्याह-गौने के दिन जो शुरू होने वाले हैं. मगर इन चेहरों पर उत्सव का उल्लास नहीं, सफ़र की थकान भी नहीं, सब कुछ छीन लिए जाने की उदासी दिखती है. मुंबई पुलिस इन दिनों नाइट क्लबों-बीयर बार को लेकर अचानक सख़्त हो गई है. रोज़-रोज़ छापे, गिरफ्तारियां, नए-नए क़ायदे-निर्देश. इन बंधनों ने उनसे उनकी रोजी छीन ली.
तारून के बेलगरा, तकमीनगंज, मामगंज और रसूलाबाद जैसे इलाक़ों से मुंबई गए तमाम कुनबे लौट आए हैं. मुंबई की नई ‘नैतिकता’ के मारे इंसानी चेहरे, नाचने-गाने के बहाने सनातन इंसानी फ़ितरत में अपनी बेहतरी तलाशते चिचुक गए चेहरे. हाथ, गले ओर उंगलियों की सुनहरी चमक उनकी पेशानी की रेखाओं पर कोई असर नहीं डालती. कल क्या होगा, किसी को अंदाज़ नहीं. अब देखा जाएगा दो-चार महीने बाद.
बेलगरा बाज़ार से आगे जाती सड़क के किनारे खड़े सेमल के ऊंचे पेड़ों से उतरकर आंचल फैलाती शाम, साइकिल के कैरियर पर बैठी वह युवती एक झटके से उतरकर घर के सामने पड़ी चारपाई पर बैठ जाती है. सवालिया निगाहों से ताकती है और फिर दूसरी तरफ मुंह करके पान की पीक थूकती है. उस घर को देखकर एकबारगी किसी को अंदाज़ नहीं होगा कि मुंबई की चकाचौंध भरी दुनिया से भी इसका कोई नाता हो सकता है. मगर सच तो यही है.
माया मुंबई में रहती हैं, अपनी बेटी खुशबू के साथ. गहनों से लदी स्थूलकाय महिला मीना हैं, उनकी बहन. थोड़े संकोच के साथ शुरू हुई पूरी बातचीत में मुंबई के कारोबार की असलियत अप्रत्यक्ष रूप से बनी रही. शुरुआत की माया की बुआ रामवती ने, जो एक ज़माने में थिएटर कंपनी में अभिनय करती और गाती भी थीं. बनारस में बाक़ायदा उस्ताद शुकरूल्ला से तालीम और फिर थिएटर की बाइज्ज़त नौकरी. मगर तब का ज़माना और था. रियासतें थीं, जमींदार थे सो ऐसी तंगी नहीं थी. माया मुंबई में हाजी अली के पास एक बीयर बार में काम करती थीं. काम यानी डांस. पिछले महीने किसी होटल में किसी नेता को पीट दिया गया और फिर तो ख़ूब हंगामा हुआ. कार्निवल बार, जहां वह काम करती थीं, बंद हो गया.
काम के बारे में पूछने पर बनाती हैं कि नाच-गाना और क्या? कभी किसी ने पूछ लिया कि जूस पीने चलोगी तो चले जाते हैं. वहीं हजार-पांच सौ दे देता है. फिर होटल में बुलाता है. यही है कुल ज़िन्दगी. फारस रोड पर चिक्कलबाड़ा की एक चाल, जिसमें एक ही कमरे में बाथरूम और रसोई सब कुछ और बार की जगमग रातें. यहां लौट आने पर मुंबई बहुत याद आता है उन्हें. क्या मुंबई की सुबह! ‘कहां का सबेरा बाबू. रात भर तो हाड़ तोड़ते हैं-जागते हैं, कब सुबह हो जाती है पता ही नहीं चलता. फिर लौटकर दिन भर सोते हैं,’ बताती हैं माया.
उन्हें अफ़सोस है कि अपनी बेटी के लिए कुछ नहीं कर पाईं. फ़िरोजी रंग की पोशाक में घर के अंदर-बाहर घूमती वह किशोरी भी उनके साथ बार में जाने लगी थी. हाव-भाव में ग्राम्य परिवेश से अलग होने की अभिजात क़िस्म की ठसक. पुलिस ने कह दिया है कि 21 साल से कम की युवतियां अब बार में डांस नहीं करेंगी. सो उसका आसरा भी गया. यों और करे भी क्या, उसे पढ़ा-लिखा नहीं पाई. बेटा है जो यहीं रहकर पढ़ता है. बताती हैं कि एक भाई को पढ़ाया-लिखाया, दूसरे भाई-भाभी और बहन को भी देखती हैं. ये सब यहीं गांव में रहते हैं. कई बार मन करता है कि कुछ और ज़मीन खरीदकर यहीं गांव में रह जाएं मगर हो नहीं पाता. यह मुंबई की कशिश है जो बार-बार खींच ले जाती है.
माया को पछतावा है, मुंबई से लौट आने का नहीं, इस पेशे में आने का. कहती हैं कि अब न तो पैसा और न ही इज्ज़त रह गई है इस पेशे में. फिर भी यही क्यों! माया का जवाब बाक़ी सारे सवालों को ख़ामोश कर देता है. ‘इस पेशे में सबको तलाश है एक ऐसे शख़्स की जो अपना लेगा, ढेर सारा पैसा देगा और अपना नाम भी. इज्ज़त की इसी ज़िन्दगी की तलाश में जाने कितनी ज़िंदगियाँ ग़र्क हो जाती है. मगर आस है कि पीछा नहीं छोड़ती.’ यह सेल्यूलॉयड का ‘चांदनी बार’ नहीं, ज़िंदगी है, जहां विडंबनाएं हैं, विद्रूपता है और विरोधाभास ऐसे कि फ़िल्मी कहानी फिस्स हो जाए.
(अप्रैल, 2004)
कवर| एडगर डेगस की पेंटिंग डांसर्स.
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