मख़दूम | मेहनतकशों का चहेता शायर

  • 8:05 pm
  • 25 August 2020

मेहनतकशों के चहेते, इंकलाबी शायर मख़दूम मुहिउद्दीन का शुमार उन शख़्सियत में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अवाम की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. सुर्ख़ परचम के तले उन्होंने आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की और आज़ादी के बाद भी उनका संघर्ष असेंबली और उसके बाहर लोकतांत्रिक लड़ाइयों से लगातार जुड़ा रहा. आज़ादी की तहरीक के दौरान उन्होंने न सिर्फ़ साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत से टक्कर ली, बल्कि अवाम को सामंतशाही के ख़िलाफ़ भी बेदार किया.

मख़दूम एक साथ कई मोर्चों पर काम कर सकते थे. किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन, पार्टी और लेखक संगठन के संगठनात्मक कार्य सभी में वे बराबर शिरकत करते. इन्हीं सब मसरूफियात के दौरान उनकी शायरी परवाज़ चढ़ी. अदब और समाजी बदलाव के लिए संघर्षरत नौजवानों में मख़दूम की शायरी, ”हयात ले के चलो, क़ायनात ले के चलो/ चलो तो ज़माने को अपने साथ ले के चलो,” अब भी रोमांच पैदा करती है. अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे जन संघर्षों से जुड़े रहे. उनकी ज्यादातर शायरी इन्हीं जन संघर्षों के बीच पैदा हुई. मख़दूम ने जागीरदार और किसान, सरमायेदार-मजदूर, आक़ा-ग़ुलाम और शोषक—शोषित की कशमकश और संघर्ष को अपनी नज़्मों में ढाला. उन्हें अपनी आवाज़ दी.

मुल्क में यह वह दौर था, जब किसान और मजदूर इकट्ठे होकर अपने हुक़ूक के लिए एक साथ खड़े हुए थे. मख़दूम की क़ौमी नज़्में जलसों में कोरस की शक्ल में गाई जातीं, तो समां बंध जाता. एक नहीं, उनकी कई नज़्में ऐसी हैं, जो अवाम में बराबर मकबूल हैं. ‘‘वो हिन्दी नौजवां यानी अलम्बरदार-ए-आज़ादी/ वतन का पासबां वो तेग-ए-जौहर दार-ए-आज़ादी.’’ (‘आज़ादी-ए-वतन’) और ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ इन नज़्मों ने तो उन्हें हिन्दुस्तानी अवाम का महबूब और मकबूल शायर बना दिया. आज भी कहीं मजदूरों का कोई जलसा हो और उसमें ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ नज़्म को गाया न जाए, ऐसा शायद ही होता है.

इस इंकलाबी नज़्म की ज़रा सी बानगी, ‘‘लो सुर्ख़ सबेरा आता है आज़ादी का, आज़ादी का/ गुलनार तराना गाता है आज़ादी का, आज़ादी का/ देखो परचम लहराता है आज़ादी का, आज़ादी का.’’ एक साथ हज़ारों आवाज़ों में यह नज़्म सभा में गूंज उठती है. प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक और लेखक सज्जाद जहीर तो मख़दूम की नज़्मों और दिलकश आवाज़ पर जैसे फिदा ही थे. ‘रौशनाई’ में इस नज़्म की तारीफ़ में वे लिखते हैं,‘‘यह तराना, हर उस गिरोह और मजमें में आज़ादी चाहने वाले संगठित अवाम के बढ़ते हुए कदमों की आहट, उनके दिलों की पुरजोश धड़कन और उनके गुलनार भविष्य की रंगीनी पैदा करता था, जहां ये तराना उस ज़माने में गाया जाता था.’’

अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मुहिउद्दीन कुद्री उर्फ मख़दूम को उनके चाचा ने उनको पाला-पोसा. वालिद तभी गुज़र गए थे, जब वह चार साल के थे. बचपन से ही संघर्ष का जो पाठ उन्होंने पढ़ा, वह ज़िंदगी भर उनके काम आया. पढ़ाई पूरी करने के बाद मख़दूम नौकरी की खातिर काफी परेशान हुए. बड़ी मुश्किलों के बाद, हैदराबाद के सिटी कॉलेज में उर्दू पढ़ाने की नौकरी मिली. नौकरी ज़िंदगी की जरूरत थी, लेकिन उनका दिल आंदोलन और शायरी में ही ज्यादा लगता था. गुलाम वतन में उनका दिल आज़ादी के लिए तड़पता. किसानों और मजदूरों के दुःख-दर्द उनसे देखे नहीं जाते थे. गुलाम हिन्दुस्तान में सामंती निजाम के बदतरीन हालात हैदराबाद रियासत में भी मौजूद थे. मख़दूम के हालात बड़े दुश्वार थे और इन्हीं के बीच से उन्हें अपना रास्ता बनाना था.

मख़दूम की नौजवानी के दिनों में मुल्क में ही नहीं दुनिय भर में उथल-पुथल मची हुई थी. हिन्दुस्तान के पढ़े-लिखे नौजवान आज़ादी के साथ-साथ ऐसे रास्ते की तलाश में थे, जो मुल्क को समाजवाद की ओर ले जाए. उस वक्त दुनिया भर में साम्राज्यवाद और फासिज़्म के गठजोड़ के ख़िलाफ़ तरक्कीपसंद हलकों में बहुत चर्चा थी. नौजवान मख़दूम का इस मोर्चे के जानिब खिंचना लाजिमी था. वह प्रगतिशील लेखक संघ के मेंबर बन गए. और इसके बाद उनकी सोच में और निखार आया. उनकी क़लम से ‘आज़ादी-ए-वतन’ व सामंतवाद विरोधी ‘हवेली’, ‘मौत के गीत’ जैसी कई क्रांतिकारी रचनायें निकलीं. उनके बग़ावती ज़ेहन ने आगे चलकर, उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी और आंदोलनों की राह में ला खड़ा किया.

1930 के दशक में हैदराबाद में कॉमरेड एसोसिएशन का गठन हुआ और वह शुरू से ही इससे जुड़ गए. कॉमरेड एसोसिएशन के ज़रिए मख़दूम कम्युनिस्टों के संपर्क में आए. साल 1936 में वे बाक़ायदा पार्टी के मेम्बर बन गए. हामिद अली खादरी, इब्राहीम जलीस, नियाज हैदर, शाहिद सिद्दीकी, श्रीनिवास लाहौरी, कॉमरेड राजेश्वर राव, सैय्यद आजम कुंदमीरी, ग़ुलाम हैदर मिर्जा और डॉ.राजबहादुर गौर आदि के साथ आगे चलकर उन्होंने काम किया. साल 1939 में दूसरी आलमी जंग छिड़ने के बाद मुल्क में मजदूर वर्ग के आंदोलनों में काफी तेज़ी आई. मख़दूम भी ट्रेड यूनियन आंदोलन में शामिल हो गए. मजदूरों के बीच काम करने के लिए उन्होंने सिटी कॉलेज की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और पूरी तरह से ट्रेड यूनियन की तहरीक से जुड़ गए. हैदराबाद की दर्जनों मजदूर यूनियन की रहनुमाई मख़दूम एक साथ किया करते थे. आगे चलकर वह सौ से ज्यादा यूनियनों के संस्थापक अध्यक्ष बने.

आलमी जंग की जब शुरूआत हुई, तो मुल्क की अवामी तहरीकों पर भी हमला हुआ. इन हमलों से तहरीक कमजोर होने की बजाए और भी ज्यादा मजबूत होकर उभरी. तबाही और हिंसा के माहौल की अक़्क़ासी फैज़ और मख़दूम ने अपनी नज़्मों में बड़े पुरअसर अंदाज में की. मसलन ‘जुल्फ-ए-चलीपा’, ‘सिपाही’, ‘जंग’, ‘मशरिक’ और ‘अंधेरा’. ‘सिपाही’ नज़्म में वे जंग पर तंकीद करते हुए लिखते हैं, ‘‘कितने सहमे हुए हैं नज़ारे/ कैसे डर-डर के चलते हैं तारे/ क्या जवानी का खूं हो रहा है/ सूखे हैं आंचलों के किनारे/ जाने वाले सिपाही से पूछो/ वो कहां जा रहा है?’’ वहीं नज़्म ‘जंग’ में कहा, ‘‘निकले दहान—ए तोप से बरबादियों के राग/ बाग—ए जहां में फैल गई दोजखों की आग.’’ ‘जंग’ हालांकि उनकी पहली सियासी नज़्म थी, फिर भी यह फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ उर्दू शायरी की पहली सदा-ए-एहतेजाज बनी. इसके बाद उर्दू अदब में और भी ऐसी कई नज्में लिखीं गईं.

मुल्क की आज़ादी की तहरीक के दौरान अंगेजी हुकूमत का विरोध करने के जुर्म में मख़दूम कई मर्तबा जेल भी गए. अंग्रेज़ी सरकार का जब ज्यादा दबाव बना, तो उन्होंने अंडरग्राउंड रहकर पार्टी और यूनियनों के लिए काम किया. आज़ादी के बाद भी उनका संघर्ष खत्म नहीं हुआ. आंध्र प्रदेश में जब तेलंगाना के लिए किसान आंदोलन शुरू हुआ, तो मख़दूम फिर केन्द्रीय भूमिका में आ गए. तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष में उन्होंने प्रत्यक्ष भागीदारी की. आंध्र और तेलंगाना में किसानों की बेदारी के लिए जमकर काम किया. ‘तेलंगन’, ‘बागी’, ‘जां बाजान—ए कययूर’ और ‘तेलंगाना’ जैसी नज़्मों में उन्होंने तेलंगाना की खुलकर तरफ़दारी की.

बाद में मख़दूम चुनाव भी लड़े और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट से असेम्बली भी पहुंचे. अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे पार्टी की नेतृत्वकारी इकाइयों में बने रहे. मेहनतकशों के लिए उनका दिल धड़कता था. मजदूर यूनियन ‘ऐटक’ के ज़रिए मजदूरों के अधिकारों के लिए हमेशा संघर्षरत रहे. कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व अध्यक्ष कामरेड डांगे ने मख़दूम की शायरी के बारे में कहा था,‘‘मख़दूम शायरे इंकलाब हैं, मगर वह रूमानी शायरी से भी दामन नहीं बचाता, बल्कि उसने ज़िंदगी की इन दोनों हकीकतों को इस तरह जमा कर दिया है कि इंसानियत के लिए मोहब्बत को इंकलाब के मोर्चों पर डट जाने का हौसला मिलता है.’’ कॉमरेड डांगे की यह बात सही भी है.

मख़दूम ने अकेले इंकलाब की ही नज़्में नहीं लिखीं, मोहब्बत में डूबी हुई उनकी नज़्मों का भी सानी नहीं – ”ज़िंदगी लुत्फ़ भी है ज़िंदगी आज़ार भी है/ साज़-ओ-आहंग भी ज़ंजीर की झंकार भी है /ज़िंदगी दीद भी है हसरत-ए-दीदार भी है/ ज़हर भी आब-ए-हयात-ए-लब-ओ-रुख़्सार भी है/ ज़िंदगी ख़ार भी है ज़िंदगी दार भी है/ आज की रात न जा.”(आज की रात न जा), ”रात भर दीदा-ए-नमनाक में लहराते रहे/ साँस की तरह से आप आते रहे जाते रहे/ मेरे महबूब मिरी नींद उड़ाने वाले/ मेरे मस्जूद मिरी रूह पे छाने वाले/ आ भी जा, ताकि मिरे सज्दों का अरमाँ निकले/ आ भी जा, ताकि तिरे क़दमों पे मिरी जाँ निकले.”(इंतिजार) मोहब्बत के ऐसे नरम एहसास और गहरे जज़्बात मख़दूम की कई ग़ज़लों और नज्मों में दिखाई देते हैं.

मख़दूम मुहिउद्दीन ने न सिर्फ आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की, बल्कि अपने तंई साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया को भी आबाद किया. अवामी थियेटर में मख़दूम के गीत गाए जाते थे. किसान और मजदूरों के बीच जब इंकलाबी मुशायरे होते, तो मख़दूम उसमें पेश-पेश होते. अली सरदार जाफरी, जोश मलीहाबादी, मजाज, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आज़मी के साथ मख़दूम अपनी नज़्मों से लोगों में एक नया जोश फूंक देते थे. उनकी अवामी मसरूफियत ज्यादा थीं, लिहाजा अदबी लिखना कम हो पाता था. इसके बाद भी उन्होंने जितना भी लिखा, वह अदबी शाहकार है. अपनी किताब ‘गुल—ए तर’ की भूमिका में ख़ुद मख़दूम लिखते हैं, ”‘गुल—ए तर’ की नज़्में, ग़ज़लें इंतिहाई मसरूफियतों में लिखी गई हैं. यूं महसूस होता है कि मैं लिखने पर मजबूर किया जा रहा हूं. समाजी तकाजे पुरइसरार तरीके पर शे’र लिखवाते रहे हैं. ज़िंदगी ‘हर लम्हा नया तूर, नई बर्क—ए तज्जली’ है और मुझे यूं महसूस होता है कि मैंने कुछ लिखा ही नहीं.” उर्दू अदब को अपने क़लाम से इतना आबाद करने के बाद भी, मख़दूम जैसी सादगी और सरलता कितने शायरों में मिलती हैं?

‘सुर्ख़ सबेरा’, ‘गुल—ए तर’ और ‘बिसात—ए रक्स’ मख़दूम के काव्य संकलन हैं. ‘बिसात—ए रक्स’ के लिए उन्हें 1969 में उर्दू साहित्य एकेडमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. मख़दूम की मशहूर नज़्में फ़िल्मों में भी इस्तेमाल हुईं, जिन्हें आज भी उनके चाहने वाले गुनगुनाते हैं. याद कीजिए, ‘आपकी याद आती रही रात भर’ (गमन), ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’ (बाज़ार), ‘एक चमेली के मंडवे तले’ (चा चा चा) और ‘जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहां जा रहा है’ (उसने कहा था). ख्वाजा अहमद अब्बास ने मख़दूम की शानदार शख़्सियत बयान करते हुए कहा है, ‘‘मख़दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठण्डी बूँदें भी, वे क्रांति के आवाहक थे और पायल की झंकार भी. वे कर्म थे, वे प्रज्ञा थे, वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूक थे और संगीतकार का सितार भी, वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी.’’

(मख़दूम 4 फरवरी, 1908 को अंडोल में पैदा हुए थे. 25 अगस्त, 1969 को हैदराबाद में उनका निधन हो गया था.)

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