ए.के.हंगल | असल ज़िंदगी में नाइंसाफ़ी से मुक़ाबिल भला आदमी

  • 10:48 am
  • 26 August 2020

अवतार किशन हंगल कहने पर आप शायद ठिठक कर सोचने लगें मगर ए.के. हंगल का तसव्वुर करते ही आंखों के सामने सौम्य, शिष्ट, सहृदय, सभ्य, गरिमामय, हंसमुख चेहरा आ जाता है – बेहतरीन शख़्सियत और अच्छे इंसान. भला आदमी! हिन्दी सिनेमा का भला आदमी.

आधी सदी तक हिन्दी फ़िल्मों में भले मानुष का किरदार निभाने वाले हंगल की दो सौ से ज्यादा फ़िल्में, इप्टा और आज़ादी आंदोलन में उनके भागीदारी हमेशा उनकी याद दिलाती रहेगी. फ़िल्मी दुनिया में ए. के. हंगल की अलग पहचान अभिनय के उनके अलग अंदाज़ का नतीजा है. उनकी कोशिश अभिनय को ज्यादा से ज्यादा यथार्थ के क़रीब लाने की होती. और इसके लिए उन्होंने अनवीक्षा तथा विभ्रम पद्धति का सहारा लिया. उनका कहना था, ‘‘एक अच्छे कलाकार को अभिनय में अपने दिमाग़ का इस्तेमाल करना आना चाहिए. अंधे व्यक्ति के किरदार में अगर हम आंखों की महत्ता नहीं समझेंगे, तब तक अंधे की साइकोलॉजी को भी नहीं समझ पाएंगे. फिर एक बार यदि किसी किरदार की साइकोलॉजी समझ ली, तो समझो कलाकार के अभिनय में स्वाभाविकता अपने आप आ जाएगी.’’

‘शोले’ देखकर उनकी यह बात आसानी से समझी जा सकती है. इस फ़िल्म में उनका किरदार न सिर्फ़ अपनी आंखें ढ़ूंढ़ता है, बल्कि डायलॉग भी ढ़ूंढ़ता है. अभिनय में डबल एक्शन क्या होता है, अपनी अदाकारी से उन्होंने हमें यह बताया. अपनी अभिनय के बारे में ख़ुद हंगल का कहना था, ‘‘मैं एक्टिंग के अंदर डायलॉग याद नहीं करता, बल्कि डायलॉग के बीच में जो ख़ाली गैप होता है, उसे महसूस करता हूं. लेखक के मन में डायलॉग लिखते समय क्या बात है और वह अपने किरदार से क्या करवाना चाहता है ? यह बात नोट करता हूं. मैं लेखक की सोच को अभिव्यक्त करने की कोशिश करता हूं. यही मेरी एक्टिंग का स्टाईल है.’’

सियालकोट में जन्मे अवतार किशन की संगीत और नाटक में दिलचस्पी शुरू से ही थी, तभी तो उस्ताद खुदाबख्श से संगीत और महाराज बिशिनदास से तबला बजाने का हुनर उन्होंने सीखा. उनके घर के पास ही ‘श्री संगीत मंडल’ था – संगीत और नाटक का क्लब तो वह इसके मेंबर बन गए. 1938 या 1939 में उन्होंने अपना पहला नाटक ‘जुल्म-ए-कंस’ खेला, जो उर्दू में था. इसमें उन्होंने ‘नारद’ की भूमिका की और कुछ गाने भी गाए.

बाद में ‘हार्मोनिका’ नाम से उन्होंने अपना क्लब बनाया. बुधवार की संगीत सभाओं की वजह से यह क्लब जल्दी ही कराची में मशहूर हो गया. इन सभाओं में बड़े गुलाम अली, छोटे गुलाम अली जैसे बड़े कलाकार भी शामिल होते. इसी दौरान उन्होंने अपना पहला नाटक ‘प्रायश्चित’ लिखा, जो महात्मा गांधी की छुआछूत के ख़िलाफ़ चलाई गई मुहिम से प्रेरित था. इस नाटक में उन्होंने अभिनय भी किया और यहीं से अभिनय को लेकर उनका लगाव गहराता गया.

नाटक के अलावा वह क्रांतिकारी गतिवधियों में भी शरीक होने लगे. पेशावर में क़िस्साख़्वानी बाज़ार में अंग्रेजों ने जो नरसंहार किया, वह उसके चश्मदीद गवाह थे. उन्होंने भी इसके प्रतिरोध में अंग्रेज़ों पर भीड़ से पत्थर बरसाए थे. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत का भी उनके किशोर मन पर गहरा असर पड़ा. इन क्रांतिकारियों को बचाने के लिए वायसराय को भेजी गई ‘दया की अपील’ पर दस्तख़त करने वालों में वह भी थे. उस दौर की ऐसी घटनाओं ने उनके जीवन को इस क़दर प्रभावित किया कि शोषण, अत्याचार और असमानता के ख़िलाफ़ वह ताउम्र लड़ते रहे.

उन्हें अभिनेता के तौर पर पहचानने वाले ज्यादातर लोगों को शायद ही मालूम हो कि वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता भी थे. आज़ादी के पहले से ही उन्होंने पार्टी और यूनियनों की गतिविधियों में भागीदारी शुरू कर दी थी. इसी का नतीजा था कि आज़ादी के बाद उन्हें पाकिस्तान की जेलों में रहना पड़ा. पाकिस्तानी जेलों में दो साल काटने के बाद 1949 में वह भारत आ गए. बंबई को उन्होंने अपनी कर्मस्थली चुना और आजीविका के लिए दर्जी की दुकान शुरू कर दी.

हालांकि यूनियनों की राजनीति से उनका लगाव नहीं छूटा. बंबई की चालों में वह कई साल तक रहे. चाल में रहने वाले किरायेदारों की समस्याओं से साबका पड़ा, तो इनसे निपटने के लिए उन्होंने किरायेदारों का एक संघ बनाया. बाद में दर्जियों के अधिकारों की लड़ाई में कूद गए. बंबई में ‘टेलरिंग वर्कर्स यूनियन’ का गठन किया और उनकी लड़ाई लड़ी. जब संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की शुरूआत हुई, तो उन्होंने आचार्य अत्रे, कॉमरेड एसएम जोशी, कॉमरेड एसए डांगे, एनजी गोरे जैसे नेताओं के साथ इस आंदोलन में हिस्सेदारी की. वह गोवा मुक्ति आंदोलनकारियों में भी शामिल रहे. बाहर से हमेशा शांत और सहज दिखलाई देने वाले हंगल दरअसल दिल से आंदोलनकारी थे. जहां भी कहीं कुछ गलत होता, उसके ख़िलाफ़ आवाज़ ज़रूर उठाते.

उनका आत्मबल कितना मजबूत था, उसे सिर्फ़ एक उदाहरण से समझा जा सकता है. दिलीप कुमार को पाकिस्तान की सरकार ने जब अपना सर्वोच्च सम्मान ‘निशान—ए—इम्तियाज’ देने का एलान किया, तो शिवसेना ने इसका पुरजोर विरोध किया. बाल ठाकरे ने दिलीप कुमार से कहा कि वह सम्मान लेने पाकिस्तान नहीं जाएं. बाल ठाकरे के इस फ़रमान से पूरी फ़िल्मी दुनिया को सांप सूंघ गया. ऐसे में अकेले ए.के. हंगल ही थे, जो दिलीप कुमार की हिमायत में खुलकर सामने आए. उन्होंने साफ़ कहा, ‘‘दिलीप कुमार को यह सम्मान लेने पाकिस्तान ज़रूर जाना चाहिए. इससे भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में मधुरता आएगी.’’ इस बयान के बाद दिलीप कुमार के साथ हंगल भी शिवसेना के निशाने पर आ गए. बाल ठाकरे ने फ़तवा जारी कर दिया कि ए. के. हंगल को फ़िल्मों में कोई काम न दे. इस फ़तवे का असर यह हुआ कि हंगल को काम मिलना बंद हो गया. फ़िल्मों में अघोषित पाबंदी का यह सिलसिला कोई दो साल तक चला. फ़िल्मों में काम मिलना बंद हुआ, तो वह फिर टेलरिंग करने लगे, पर नाइंसाफ़ी के आगे झुके नहीं.

आज़ादी के बाद इप्टा जब टूट रहा था, तब उन्होंने ही इप्टा को पुनर्जीवन दिया. आर.एम. सिंह और रामाराव सरीखे लोगों को साथ लेकर उन्होंने इप्टा को फिर खड़ा किया. उन सभी कलाकारों से संपर्क किया, जो इप्टा छोड़ चुके थे. उनकी कोशिशें रंग लाईं और देखते ही देखते शैलेन्द्र, सलिल चौधरी, केन घोष, बलराज साहनी, रमेश तलवार, सागर सरहदी, एम.एस. सथ्यु, शमा जैदी, राजी सेठी, नितिन सेठी, शशि शर्मा, मोहन शर्मा जैसे प्रतिभाशाली कलाकार इप्टा से जुड़ गए. बाद में इप्टा के कई नाटक उन्होंने डायरेक्ट किए और अभिनय भी किया. ‘बाबू’, ‘इनामदार’, ‘अफ्रीका जवान परेशान’, ‘इलेक्शन का टिकिट’, ‘आजर का ख्वाब’, ‘अतीत की परछाईंया’, ‘जवाबी हमला’, ‘सूरज’, ‘मुसाफिरों के लिए’, ‘भगत सिंह’, ‘आखिरी शमां’ आदि चर्चित नाटकों में उन्होंने अभिनय किया.

रंगमंच से उनके अभिनय की लोकप्रियता धीरे-धीरे फ़िल्मी दुनिया तक पहुंची. 1962 में बासु भट्टाचार्य ने अपनी फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ में उन्हें एक छोटी सी भूमिका दी और इसके साथ ही उनका फ़िल्मी कॅरिअर शुरू हो गया. अपने फ़िल्मी कॅरिअर में उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास, एम. एस. सथ्यु, ऋषिकेश मुखर्जी, राज कपूर, देवानंद, गुलजार, रमेश सिप्पी और के.बालाचन्दर जैसे प्रयोगशील निर्देशकों के साथ काम किया और बेशुमार यादगार किरदार निभाए. ‘शोले’, ‘सुराज’, ‘शौक़ीन’, ‘नमक हराम’, ‘गुड्डी’, ‘परिचय’, ‘आंधी’, ‘गरम हवा’, ‘एक चादर मैली सी’, ‘अभिमान’, ‘कोरा कागज’, ‘सागर’, इश्क-इश्क-इश्क, ‘बावर्ची’, ‘जुर्माना’, ‘नौकरी’ और ‘माउंटबेटन-अंतिम वायसराय’ में उन्होंने यादगार अभिनय किया. स्टार अदाकारों से सजी इन फ़िल्मों में उनकी अदाकारी की एक अलग ही छाप मिलती है. फ़िल्म ‘शोले’ में निभाया नेत्रहीन ‘रहीम चाचा’ का उनका किरदार और उनके हिस्से के संवाद कालजयी बन गए.

ए. के. हंगल की पूरी अभिनय यात्रा में उनका विस्तृत अनुभव साफ दिखाई देता है. ज़िंदगी की पाठशाला से जो कुछ उन्होंने सीखा, अपने नाटकों और फिल्मों में उसका इस्तेमाल किया. फ़िल्मों में काम करते हुए भी वह रंगमंच पर बराबर सक्रिय रहे. अपने अंतिम समय में भी वह इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. उनके नेतृत्व में मुंबई इप्टा एक महत्वपूर्ण गैर-व्यावसायिक रंगमंचीय दल के रूप में उभरा.


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