अल्बर्ट आइंस्टाइन और उनकी हाज़िरजवाबी
अल्बर्ट आइंस्टाइन | 14 मार्च 1879 – 18 अप्रैल 1955
जर्मनी में एक यहूदी परिवार में जन्मे आइंस्टाइन का बचपन उनकी मेधा की तरह ही असामान्य लगने वाले क़िस्सों में कहा-सुना जाता है. फिर दुनिया ने जब उन्हें वैज्ञानिक के तौर पर पहचाना तो भी उनकी विलक्षण प्रतिभा के साथ ही भुलक्कड़ी और हाज़िरजवाबी के तमाम क़िस्से मशहूर हुए. इन क़िस्सों में सच्चाई के साथ कल्पना का भी थोड़ा घालमेल ज़रूर होगा मगर ये आइंस्टाइन की शख़्सियत से इतना मेल खाते हैं कि इन पर यक़ीन करना भला लगता है.
आइंस्टाइन की पुण्यतिथि पर आज ऐसे ही कुछ क़िस्से पढ़िए,
नाज़ी गतिविधियों की वजह से आइंस्टाइन को जर्मनी छोड़कर अमेरिका जाना पड़ा. वहां उन्हें कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का न्योता मिला मगर शांत और बौद्धिक वातावरण का हवाला देते हुए उन्होंने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी चुनी.
पहली बार यूनिवर्सिटी पहुंचने पर वहां के प्रशासनिक अधिकारी ने आइंस्टाइन से कहा, “अपने प्रयोगों के लिए आपको जिन चीज़ों की ज़रूरत होगी, उसकी एक लिस्ट मुझे दे दें ताकि वह सब जल्दी से मंगाकर आपको दिया जा सके.” आइंस्टाइन ने बड़ी सहजता से कहा, “आप मुझे सिर्फ़ एक ब्लैकबोर्ड, चॉक, काग़ज़ और पेन्सिल दे दीजिए.” अफ़सर यह सुनकर हैरान हो गया. इससे पहले कि वह कुछ और कहता, आइंस्टाइन ने लिस्ट में एक और सामान जोड़ते हुए कहा, “और एक बड़ी टोकरी भी मंगा लीजिए क्योंकि अपना काम करते समय मैं बहुत सारी ग़लतियां भी करता हूं और टोकरी छोटी हो तो रद्दी से बहुत जल्दी भर जाती है.”
उनकी भुलक्कड़ी के क़िस्से ख़ासे दिलचस्प हैं. कई बार अपना ही फ़ोन नम्बर बताने के लिए उन्हें डायरी देखनी पड़ती थी. एक बार प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से कहीं जाने के लिए आइंस्टाइन ट्रेन में सवार हुए. कुछ देर बाद टिकट चेकर आया. उसने टिकट मांगा तो वे अपनी जेब में टिकट ढूंढने लगे. जेब में टिकट न मिला तो उन्होंने अपना सूटकेस टटोला हालांकि टिकट उन्हें वहां भी नहीं मिला. उनको लगा कि टिकट शायद उनकी सीट के नीचे गिर गया होगा तो उन्होंने सीट के नीचे भी टिकट ढूंढा मगर वहां भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली. टिकट के लिए उन्हें इस क़दर परेशान देखकर टिकट चेकर ने कहा कि अगर टिकट खो गया है तो कोई बात नहीं. वह उन्हें अच्छी तरह पहचानता है और उसे भरोसा है कि उन्होंने टिकट ज़रूर ख़रीदा होगा. उन्हें आश्वस्त करके टिकट चेकर आगे बढ़ गया. थोड़ी देर बाद जब वह उधर से गुज़रा तो देखा कि आइंस्टाइन अब भी टिकट खोजने में हलकान थे. टिकट चेकर ने उनसे फिर से कहा कि आप परेशान न बिल्कुल हों. अब आपसे कोई टिकट नहीं मांगेगा. अब आइंस्टाइन ने कहा सिर उठाकर उसकी तरफ़ देखा और बोले, ”बहुत मेहरबानी. मगर टिकट के बग़ैर मुझे यह कैसे मालूम होगा कि मैं जा कहां रहा हूं?”
यूनिवर्सिटी के किसी स्टुडेंट ने एक बार अपने प्रोफ़ेसर आइंस्टाइन के आकर पूछा,” इस साल भी इम्तहान में वही सवाल आएंगे, जो पिछली बार आए थे? आइस्टीन ने उसे जवाब दिया, ”हां पर इस साल सवालों के जवाब बदल गए हैं.”
उनकी भुलक्कड़ी का एक और क़िस्सा मशहूर है कि एक बार जब यूनिवर्सिटी से घर जाने के लिए वह टैक्सी में सवार हुए तो अपने घर का पता भूल गए. याददाश्त पर काफी ज़ोर डालने के बाद भी उन्हें याद नहीं आया तो उन्होंने टैक्सी ड्राइवर से पूछा कि तुम जानते हो कि आइंस्टीन का घर कहां है? प्रिंसटन में वह इतने मशहूर तो थे ही कि उनके घर का पता सारे शहर को मालूम था. उस टैक्सी वाले को भी मालूम था मगर उसने आइंस्टीन को कभी देखा नहीं था, इसलिए पहचानता न था. उसने तुरंत हामी भरी. कहा कि शहर में आइंस्टीन का घर कौन नहीं जानता है? आइंस्टाइन ने राहत की सांस लेते हुए कहा तो ठीक है. मुझे उन्हीं के घर जाना है. मुझको वहीं पहुंचा दो.
एक बार घर आए मेहमान को आइंस्टाइन अपनी स्टडी में ले गए. मेहमान ने हैरानी से देखा कि उनकी स्टडी के दरवाज़े में छोटे-बड़े दो गोले कटे हुए थे. अंदर बैठते हुए उसने पूछा कि दरवाज़े में एक गोलाकार छेद क्यों बनाए गए हैं? आइंस्टाइन ने बताया कि उनकी बिल्ली कई अंदर आ जाती हैं और थोड़ी देर बाद ऊबकर बाहर निकलने दरवाज़ा पंजे से खुचरने लगती हैं. उन्हें उठकर दरवाज़ा खोलना पड़ता है. तो उन्होंने बिल्ली को बाहर निकलने के लिए ये गोले बना दिए हैं. मेहमान की जिज्ञासा का समाधान अब भी नहीं हुआ. पूछा – “दो गोले क्यों? आइंस्टाइन ने दो गोलों का रहस्य उजागर करते हुए बताया, “दो बिल्लियां हैं न! बड़ा वाला छेद बड़ी बिल्ली के लिए और छोटा वाला छोटी बिल्ली के लिए,”
एक रोज़ आइंस्टाइन को भाषण देने के लिए कहीं बाहर जाना था. रास्ते में उनके ड्राइवर ने कहा कि आपका भाषण मैं इतनी बार सुन चुका हूं कि ज़रूरत पड़ने पर लोगो के सामने मैं ही आपका भाषण दे सकता हूं. आइंस्टाइन को जाने क्या सूझा, उन्होंने कहा कि ठीक है आज मेरी जगह तुम्हीं भाषण देना. ठिकाने पर पहुंचने से पहले उन्होंने ड्राइवर से अपने कपड़े और सीट बदल ली.
भाषण हॉल में ड्राइवर ने अपनी स्मृति के भरोसे सचमुच आइंस्टाइन की तरह ही धुआंधार भाषण दिया. भाषण के बाद जब लोगों ने सवाल पूछने शुरू किए ओंर ड्राइवर का आत्मविश्वास हिल गया मगर बिना झिझके उसने कहा – अरे यह तो बहुत मामूली सवाल है. इसका जवाब तो मेरा ड्राइवर भी दे सकता है. और इसके बाद उसने ड्राइवर के कपड़ों में खड़े आइंस्टाइन को जवाब देने के लिए आगे कर दिया.
केलटेक (केलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) ने अलबर्ट आइंस्टाइन को किसी समारोह में बुलाया. अपनी पत्नी के साथ आइंस्टाइन कार्यकम में शरीक होने गए. वहां उन्होंने माउन्ट विल्सन पर बनी अन्तरिक्ष वेधशाला भी देखी. उस वेधशाला में तब तक बनी दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन थी. इतनी बड़ी दूरबीन देखने के बाद श्रीमती आइंस्टाइन ने वेधशाला के इंचार्ज से पूछा, “इतनी बड़ी दूरबीन से आप क्या देखते है?” इंचार्ज को लगा कि श्रीमती आइंस्टाइन का खगोलशास्त्रीय ज्ञान कुछ कम है. तो उसने बड़े रोब से जवाब दिया, “इससे हम ब्रह्माण्ड के रहस्यों का पता लगाते हैं.” “बड़ी अजीब बात है. मेरे पति तो यह सब उनको मिली चिट्ठियों के लिफाफों पर ही कर लेते हैं, ” श्रीमती आइंस्टाइन ने कहा.
दूसरे विश्व युद्ध से पूहले, एक अख़बार ने अपने एक कॉलम में एक संक्षिप्त टिप्पणी छापी कि आइंस्टाइन को अमेरिका में लोग इतनी अच्छी तरह से जानते थे कि उन्हें सड़क पर रोक कर उनके दिए सिद्धांत की व्याख्या पूछने लगते. आख़िरकार उन्होंने इस तरह की पूछताछ से बचने की एक युक्ति निकाल ली. वे उनसे कहते कि “माफ कीजिए! मुझे लोग अक्सर प्रोफेसर आइंस्टीन समझते हैं पर वो मैं नहीं हूं.”
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