नीरज | हाथ मिले और दिल न मिले हों, ऐसे में नुकसान रहेगा

  • 2:01 pm
  • 19 July 2020

देहरादून के एक मुशायरे की सदारत शहंशाहे-तरन्नुम शायर जिगर मुरादाबादी सदारत कर रहे थे. उन्होंने जब नीरज को सुना तो एक के बाद एक उनसे तीन कविताएं पढ़वाईं और हर कविता के बाद नीरज की पीठ ठोककर कहा था, “उम्रदराज़ हो इस लड़के की. क्या पढ़ता है, जैसे नग़मा गूंजता है.” जिगर साहब की दुआओं का असर कि नीरज ने लम्बी उम्र पाई और अपने नग़मों से लोगों का मनोरंजन करते हुए उन्हें ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और नई सीख देते रहे.

बक़ौल नीरज, ‘‘कहानी बन कर जिए हैं इस ज़माने में/ सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में/ आज भी होती है दुनिया पागल/ जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में.’’ कवि गोपाल दास ‘नीरज‘ उस कवि सम्मेलन परम्परा के आख़िरी वारिस थे, जिन्हें सुनने और पढ़ते हुए देखने के लिए हज़ारों श्रोता रात-रात भर बैठे रहते थे. उनकी रचनाओं में गीतों का माधुर्य और जीवन का संदेश एक साथ होता था. नीरज का नाम हिन्दी के उन कवियों में शुमार होता है, जिन्होंने मंच पर कविता और गीतों को नई बुलंदियों तक पहुंचाया. उनकी आवाज़ और गीतों का जादू सुनने वालों के सिर चढ़कर बोलता. जब वे अपनी विरल स्वर लहरी में गीत पढ़ते, तो सुनने वालों के ज़ेहन पर नशा-सा तारी हो जाता. श्रोता भाव अतिरेक में झूमने लगते.

एक दौर ऐसा भी रहा, जब नीरज का नाम कवि सम्मेलन के सौ फ़ीसदी कामयाब होने की गारंटी माना जाता था. सात दशकों तक वे लगातार कवि सम्मेलन के मंचों पर छाये रहे. उनको सुनकर देश की चार पीढ़ियां जवान हुईं. नीरज जब नवीं कक्षा के छात्र थे, तब उन्होंने अपनी पहली कविता कवि सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में एटा के कवि सम्मेलन मंच पर पढ़ी और यह सिलसिला ज़िंदगी के आख़िर तक जारी रहा.

इटावा के पुरवाली गांव में 4 जनवरी, 1925 को जन्मे नीरज की शुरूआती ज़िंदगी काफी संघर्षपूर्ण रही. बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया. पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं. मेरठ और अलीगढ़ के कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक भी रहे. लेकिन उनका जी गीतों में ही बसता था. बाद में सब कुछ छोड़-छाड़ के वे गीत के ही हो लिए. गीत उनकी ज़िंदगी थे. दीगर कवि, गीतकारों की तरह कवि सम्मेलनों के सर्वोच्च मुक़ाम तक पहुंचने में उन्हें हालांकि ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. 1942 में दिल्ली में एक कवि सम्मेलन था, नीरज की जब बारी आई, तो उनके गीत और आवाज़ का जादू कुछ ऐसा छाया कि श्रोता वंस मोर-वंस मोर चिल्लाने लगे. उसके बाद उन्होंने और भी कई कविताएं और गीत सुनाये.

इस कवि सम्मेलन के बाद उनकी मक़बूलियत पूरे मुल्क में फैल गई. वह कवि सम्मेलनों में बुलाये जाने लगे और इस तरह से उनकी एक नई यात्रा शुरू हुई. थोड़े से अरसे में वे हरिवंश राय बच्चन, गोपाल सिंह ‘नेपाली‘, बलबीर सिंह ‘रंग’, देवराज दिनेश, रामअवतार त्यागी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन‘, वीरेन्द्र मिश्र, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जैसे अग्रिम पंक्ति के गीतकारों में शामिल हो गए. शुरूआत में वह ‘भावुक इटावी’ के नाम से कविताएं पढ़ते थे. बाद में उन्होंने ‘नीरज’ उपनाम रखा, जिसने उनके असल नाम गोपालदास सक्सेना को पीछे छोड़ दिया.

1944 में शिमला में गांधी-जिन्ना सम्मेलन के बाद नीरज ने एक गीत लिखा, ‘‘आज मिला है गंगा जल, जल दमदम का.’’ अलग तरह के भाव और विचार के चलते यह गीत काफी मशहूर हुआ. यही गीत जब वे दिल्ली के एक कवि सम्मेलन में पढ़ रहे थे, तो उन दिनों ‘साइंस पब्लिसिटी ऑर्गेनाइजेशन’ में डायरेक्टर और मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी बहुत मुतास्सिर हुए. उन्होंने नीरज को अपने महकमे में नौकरी की पेशकश की, जिसे नीरज ने मंजूर कर लिया. इस नौकरी में नीरज की जिम्मेदारी थी कि वे गीतों के माध्यम से सरकारी योजनाओं का प्रचार करें. इस काम के तहत देश में जगह-जगह सम्मेलन हुए. जिसमें उन्होंने अपने गीतों के ज़रिए जनता के बीच जागरूकता फैलाई.

हफ़ीज़ जालंधरी की संगत में आकर नीरज का झुकाव ग़ज़ल के जानिब हुआ. उर्दू के कई नामचीन शायरों से वे मिले. इसका असर यह हुआ कि वे ग़ज़ल भी लिखने लगे. गीत की तरह उनकी ग़ज़लों ने भी कमाल किया. सीधी-साधी ज़बान में कही गई इन ग़ज़लों में ज़िंदगी का फ़लसफ़ा भी मिलता. बानगी देखिए, ‘‘हम तेरी चाह में ऐ यार वहां तक पहुंचे/ होश ये भी न जहां है कि कहां तक पहुंचे/ एक सदी तक न वहां पहुंचेगी दुनिया सारी/ एक ही घूंट में मस्ताने जहां तक पहुंचे.’’, ‘‘तमाम उम्र मैं एक अजनबी के घर में रहा/ सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा.’’, या कि ‘‘अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाए जाए/ जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए.’’

साल 1955 में नीरज ने अपना कालजयी गीत ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे……’’ लिखा, यह गीत उन्होंने पहली बार लखनऊ रेडियो स्टेशन से पढ़ा. गीत रातों-रात पूरे देश में लोकप्रिय हो गया. इस गीत की लोकप्रियता का आलम यह था कि हर कवि सम्मेलन या मुशायरे में श्रोता इसी गीत की बार-बार फ़रमाइश करते थे. उन्होंने कविता की एक अलग मंचीय भाषा का आविष्कार किया, जो कि न तो पूरी तरह से हिन्दी है और न ही उर्दू. नीरज ने शुरूआत कविता और गीत से की. इसके बाद उन्होंने ग़ज़लें भी लिखीं. अंत में उनका रुझान दोहों और सधुक्कड़ी कविताओं की ओर हो गया था. ‘‘तन से भारी श्वास है, इसे समझ लो ख़ूब/ मुर्दा जल में तैरता जाता, ज़िंदा जाता डूब.’’ और ‘‘हम तो मस्त फ़कीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे/ जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे.’’ जैसे उनके दोहे उन्हें आला दर्जे के हिन्दी कवियों की क़तार में रखते हैं.

अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में दोहे की तरफ़ मुड़ने के पीछे भी एक वजह थी. उन्हीं के मुताबिक,‘‘ग़ज़ल की टक्कर में सिर्फ़ दोहा ही खड़ा हो सकता है. जिस तरह से उर्दू ग़ज़ल का हर एक शे’र मुकम्मल होता है, उसी तरह कवि एक दोहे में भी पूरी बात कह देता है. दोहा हमारी प्राचीन परम्परा है. कविता की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा दोहा ही है. दोहे में गंभीर से गंभीर बात की जा सकती है, जो लोगों को आसानी से समझाई जा सकती है. नानक, रहीम, तुलसी, कबीर व रसखान के दोहे आज भी लोगों को याद रहते हैं. लंबी कविता और ग़ज़ल किसी को याद नहीं रहती, लेकिन दोहा और शेर आम आदमी को याद हो जाता है, उसके ज़ेहन में पहुंच जाता है.’’

नीरज ने फ़िल्मों के लिए गीत भी लिखे. निर्देशक आर.के.चंद्रा ने साल 1960 में अपनी फ़िल्म ‘नई उमर की नई फसल’ में उन्हें गीत लिखने का पहला मौक़ा दिया. नीरज का पहला ही गीत ‘‘कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे….‘‘ सुपर हिट रहा. उसके बाद यह सिलसिला आगे भी जारी रहा. लेकिन फ़िल्मी दुनिया उन्हें बहुत रास नहीं आई. सन् 1972 में वे फ़िल्म नगरी को अलविदा कहकर वापस अलीगढ़ लौट आए. तब तक उनके खाते में कई कामयाबियां जुड़ गई थीं. नीरज ने कम समय में ही रोशन, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, इकबाल कुरैशी, जयदेव, हेमंत कुमार जैसे संगीतकारों और देव आनंद, राजकपूर, मनोज कुमार जैसे अभिनेता-निर्देशकों के साथ काम किया. उनकी चर्चित फ़िल्मों में ‘नई उमर की नयी फसल’, ‘कन्यादान’, ‘तेरे मेरे सपने’, ‘प्रेम प्रतिज्ञा’, ‘प्रेम पुजारी’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘चंदा और बिजली’, ‘चा चा चा’, ‘छुपा रूस्तम’, ‘शर्मीली’, ‘पहचान’ आदि हैं. नीरज का फ़िल्मी सफ़र भले ही छोटा रहा, पर इस सफ़र में उन्होंने ऐसे कई गीत दिए, जो कभी भुलाए नहीं जा सकते.

फ़िल्मों में लिखे उनके गीतों ‘‘फूलों के रंग से दिल की क़लम से’’, ‘‘खिलते हैं गुल यहां खिलके बिछुड़ने को’’, ‘‘बस यही अपराध हर बार करता हूं’’, ‘‘शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब’’, ‘‘रंगीला रे तेरे रंग में…’’, ‘‘मेघा छाए आधी रात, बैरन बन गई निंदिया’’ आदि ने खूब धूम मचाई. फ़िल्मी दुनिया के बड़े पुरस्कार ‘फ़िल्म फेयर अवार्ड’ के लिए नीरज का नाम लगातार तीन साल 1970 से 1972 तक नामांकित किया गया और साल 1970 में उन्हें फ़िल्म ‘चंदा और बिजली’ फ़िल्म के गीत ‘काल का पहिया घूमे रे भइया’ के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला.

नीरज ने भले ही फ़िल्मों में कम गीत लिखे, लेकिन इन गीतों में भाषा के स्तर पर उन्होंने तरह-तरह के मौलिक प्रयास किए. फ़िल्मी गीतों पर जब उर्दू ज़बान पूरी तरह से छाई हुई थी, उन्होंने शुद्ध हिन्दी के गीत लिखे. जो लोगों को पसंद भी आए. यह नीरज ही थे, जिन्होंने फ़िल्मी गीतों के इतिहास में पहली बार फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में छंद मुक्त कविता ‘‘ऐ भाई जरा देख के चलो…’’ को गीत के तौर पर इस्तेमाल किया और यह गीत खूब हिट हुआ.

‘‘कारवां गुज़र गया‘‘, ‘‘ऐ भाई देख के चलो‘‘, ‘‘ये नीरज की प्रेम सभा है‘‘, ‘‘हम तेरी चाह में ए यार कहां तक पहुंचे‘‘, ‘‘चुप-चुप अश्क बहाने वालो/मोती व्यर्थ लुटाने वालो/कुछ सपनों के मर जाने से/जीवन नहीं मरा करता है.’’ जैसे कालजयी गीत लिखने वाले गीतों के जादूगर नीरज का कहना था कि ‘‘कविता अपने प्रशंसक और लोकप्रियता तभी कायम रख सकती है, जब कविता उसी भाषा में हो, जिस भाषा का श्रोता वर्ग या पाठक वर्ग हो. कविता में श्रोता के हृदय की भाषा हो. जनता की भाषा हो. आप उसी भाषा में कहें, जो उसे समझ आए. कविता जब देश के सामूहिक, देशीय संस्कार को स्पर्श करेगी, तभी हृदय में बैठेगी.’’

19 जुलाई, साल 2018 को नीरज ने इस जहान-ए-फ़ानी से रुख़सती हुए. उन्होंने 93 साल की लम्बी ज़िंदगी जी, सैकड़ों अर्थपूर्ण गीत लिखे और अपने गीतों से पाठको और श्रोताओं को नये संस्कार दिए. उनके जाने से जैसे कवि सम्मेलनों का नूर ही चला गया. वह पुरअसर आवाज़ खामोश हो गई, जो श्रोताओं के कानों में मिश्री घोलती थी. नीरज आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके एक नहीं, अनगिनत गीत ऐसे हैं जो सुनने-पढ़ने वालों के ज़ेहन में बसे रहेंगे. ‘‘हाथ मिले और दिल न मिले हों/ ऐसे में नुकसान रहेगा/ जब तक मंदिर और मस्जिद हैं/ मुश्किल में इंसान रहेगा/‘ नीरज’ तो कल यहां न होगा/ लेकिन उसका गीत-विधान रहेगा.’’

कृतियां
‘संघर्ष’, ‘बादल बरस गयो’, ‘कारवां गुजर गया’, ‘विभावरी’, ‘दर्द दिया है’, ‘लहर पुकारे’, ‘प्राण गीत’, ‘नीरज की पाती’, ‘आसावरी’, ‘गीत-अगीत’, ‘नीरज की गीतिकाएं’, ‘वंशीवट सूना है’, ‘नीरज रचनावली (3 खंडों में)’, ‘नीरज दोहावली’, ‘नीरज के प्रेमगीत’, ‘बादलों से सलाम लेता हूं’, ‘कुछ दोहे नीरज के’, ‘कारवां गुजर गया’, ‘तुम्हारे लिए’, ‘फिर दीप जलेगा’, ‘गीत जो गाए नहीं’ ‘पंत-कला, काव्य और दर्शन’ और ‘लिख-लिख भेजत पाती’.

सम्मान
साहित्य वाचस्पति (1991, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग), डीलिट् की मानद उपाधियां (1996 में डॉ. बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा व 2007 में लखनऊ विश्वविद्यालय), यश भारती (1994, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान), हिंदी गौरव सम्मान (2004, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ) आदि. सन् 1991 में ‘पद्मश्री’ और 2007 में ‘पद्मभूषण’ सम्मान. इनके अलावा उन्हें ‘गीत गंधर्व’, ‘गीत सम्राट’, ‘गीत कौस्तुभ’, ‘गीत ऋषि’, ‘धरती तिलक’ आदि उपाधियों से भी विभूषित हुए.


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