सांस्कृतिक राजधानी लाहौर और पाकिस्तान में बसन्त विद्रोह

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  • 6 January 2021

लाहौर की उम्र का हर पन्‍ना इतिहास ने लिखा है. एक तरह से कहें तो इतिहास का दूसरा नाम लाहौर है. इसकी उम्र करीब 1500 साल है. यों पौराणिक कहानियों के हिसाब से यह हजारों साल पुराना है. कहा जाता है कि अयोध्या के राजा राम के पुत्र लव ने इसे बसाया था और दूसरे पुत्र कुश ने आज की भारत-पाक सरहद के पास बसा कसूर नगर बसाया था, मगर यह सब किंवदंतियाँ हैं.
कुछ भी हो, लाहौर को लेकर एक बहुत मशहूर कहावत है कि ‘जिसने लाहौर नहीं देखा वह पैदा नहीं हुआ!’ यह मंजूर करना ही पड़ेगा कि दुनिया के किसी भी, बड़े से बड़े शहर को भी ऐसी सिरमौर कहावत से नवाजा नहीं गया! अपने असगर वजाहत का इसी नाम का बहुत मशहूर नाटक भी है. जिसे हबीब तनवीर ने निर्देशित किया है. जब मैं लाहौर गया, उस समय असगर वजाहत का यह नाटक लाहौर में प्रतिबन्धित था!

सन्‌ 630 में चीनी यात्री ह्वेन साँग ने लाहौर का जिक्र अपने यात्रा-विवरण में किया है. यह पहला लिखित प्रमाण है जो हमें मिलता है. एकाध अरबी ग्रन्थों में भी लाहौर का जिक्र दसवीं सदी में मिलता है, पर लाहौर का महत्व मुगलों के भारत में आने के बाद ही स्थापित होता है. वैसे सन्‌ 1524 में बाबर ने इस पर कब्जा कर लिया था, उससे पहले भी यह शहर बहुत बड़ा व्यापारिक केन्द्र था और उत्तर पश्छिम के सीमांत से भारत के अन्दर आने वाले मार्ग का सबसे बड़ा नगर था. इसके सांस्कृतिक व्यक्तित्व का निर्माण अकबर के जमाने में हुआ. अकबर ने 1585 में अपने साम्राज्य की राजधानी को आगरा से लाहौर स्थानांतरित किया था. अकबर अगले तेरह वर्षों तक लाहौर में रहा. उस समय लाहौर सांस्कृतिक समन्वय का महत्त्वपूर्ण क्षेत्र भी था और यही वह समय भी था जब लाहौर का एक समग्र सांस्कृतिक व्यक्तित्व विकसित हुआ. अकबर के जमाने में ही लाहौर में ‘महाभारत’ और कश्मीर के कवि-इतिहासकार कल्हण के ऐतिहासिक कथा ग्रन्थ ‘राजतंरगिणी’ का अनुवाद फ़ारसी में किया गया!

यह भारतीय संस्कृति की निरन्तर एकसार-हमवार होते रहने वाली वह धारा थी जो धर्मों को लांघ कर लगातार अपने आन्तरिक स्वरूप को मजबूत करती रही. अकबर के बाद भी जहांगीर और शाहजहाँ का बहुत गहरा सम्बन्ध लाहौर से रहा. शाहजहाँ तो लाहौर में पैदा ही हुआ था. हालाँकि औरंगजेब से ज्यादा दारा शिकोह का सम्बन्ध लाहौर से रहा, पर लाहौर की ऐतिहासिक बादशाही मस्जिद का निर्माण औरंगजेब ने करवाया, जिसका जिक्र मैंने हीरामण्डी और ‘कुक्कूज़ नेस्ट’ वाले प्रकरण में किया है. औरंगजेब के बाद लाहौर मुगल सल्तनत का मुख्य शहर नहीं रह गया क्योंकि औरंगजेब दक्षिण विजय और दिल्‍ली की गद्दी पर कब्जा करने और अपने सगे भाइयों को खत्म करने में व्यस्त रहा.

लाहौर का ऐतिहासिक महत्त्व महाराजा रंजीत सिंह के सिख साम्राज्य के उदय के साथ फिर स्थापित हुआ. इससे पहले अट्ठारहवीं सदी में पठान लुटेरे नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली लाहौर की सारी सम्पदा लूट चुके थे. महाराजा रंजीत सिंह का समय लाहौर के लिए सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है. इस दौर में इस्लाम की सूफ़ी परम्परा और शेष उत्तर भारत की भक्ति परम्परा का गहरा मानसिक और धार्मिक प्रभाव जन मानस पर पड़ा. सूफ़ी सन्तों- दरवेशों का केन्द्र मुलतान था ही, भक्ति परम्परा का सबसे ज्वलंत संदेश गुरु नानक की वाणी में सामने आया, यह आध्यात्मिक और इंसानी सम्मिलन महाराजा रंजीत सिंह के दौर में और प्रगाढ़ हुआ. बीच के समय में जो लाहौर आक्रमणकारियों के लश्करों की सराय हुआ करता था, वह अब भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं के समन्वय-केन्द्र के रूप में विकसित होने लगा. महाराजा रंजीत सिंह का सिख साम्राज्य पेशावर से कश्मीर तक फैला हुआ था, परन्तु, महाराजा रंजीत सिंह के निधन के सात साल बाद अंग्रेजों ने उनके साम्राज्य पर कब्जा करके सन्‌ 1846 में लाहौर पर अपना झण्डा फहरा दिया.

इसके बाद लम्बा समय है, जिसके अन्तराल में पंजाब आजादी की लड़ाई का रणस्थल बना, जिसका केन्द्र लाहौर ही था. क्रान्तिकारी आन्दोलन और कांग्रेस पार्टी की जबरदस्त गतिविधियाँ यहाँ शुरू हुईं, जिनके शीर्षस्थ नेता भगतसिंह और लाला लाजपत राय थे. गदर पार्टी का आतिशी आन्दोलन भी यहीं के सिख किसानों द्वारा शुरू किया गया था. वैसे भी स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए तो लाहौर प्रसिद्ध है ही, क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू द्वारा लाहौर में रावी के तट पर ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव सन्‌ 1929 में पारित किया गया था! और इसे भी नहीं भुलाया जा सकता कि मुस्लिम लीग द्वारा भारत विभाजन का प्रस्ताव भी इसी लाहौर में सन्‌ 1940 में पारित किया गया था! मुस्लिम लीग का यह अधिवेशन लाहौर के तत्कालीन मिण्टो पार्क में हुआ था जिसे आज ‘गुलशने इकबाल’ के नाम से जाना जाता है. और उसी प्रस्ताव की स्मृति में ‘मीनारे पाकिस्तान’ यहीं स्थापित की गई है, जिस पर फूल चढ़ाकर पाकिस्तान के निर्माण को भारत के तत्कालीन हिन्दुत्ववादी प्रधान मन्त्री अटलबिहारी बाजपेयी ने लाहौर यात्रा के दौरान अपनी अकीदत प्रदर्शित की थी.

विभाजन की अमानवीय त्रासदी का सबसे बड़ा गवाह यह लाहौर शहर ही है. विभाजन के बाद जो मुसलमान पाकिस्तान गए थे, वे पहले लाहौर ही पहुँचे थे और जो हिन्दू-सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए थे, वे भी लाहौर के रास्ते ही आए थे!

इसीलिए कहना पड़ता है कि लाहौर की उम्र का प्रत्येक पृष्ठ इतिहास ने लिखा है. आजादी और विभाजन के बाद भी भारतीयों की स्मृति में जितना लाहौर रहा है, उतना कोई अन्य शहर नहीं. और किसी को भी यह कहने और मानने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि दक्षिण एशिया का सबसे महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक नगर लाहौर ही है. वैसे तो भारत में लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, आगरा और हैदराबाद आदि सांस्कृतिक रूप से महत्त्वपूर्ण शहर हैं पर इनमें कोई भी लाहौर की बराबरी नहीं कर सकता! यह शहर व्यापारी रास्ते पर भी है और भारत में घुसने के लिए आक्रमणकारियों के लिए आवश्यक रास्ता भी रहा है, क्‍योंकि लाहौर मैदानी क्षेत्र में है और इसकी सामरिक सुरक्षा सम्भव नहीं है.

दो भारत-पाक युद्धों के दौरान भारतीय फौजें लाहौर की बाहरी सरहद तक पहुँच कर खड़ी रही हैं, क्योंकि वे लाहौर पर कब्जा करके नागरिक प्रशासन आदि की जिम्मेदारी नहीं संभालना चाहती थीं. उन्हें मालूम था कि युद्ध विराम होते ही इन्हें सबसे पहले लाहौर छोड़ना पड़ेगा. हमें यह मान लेना चाहिए कि सामरिक शक्ति में भारत और पाकिस्तान की कोई बराबरी नहीं है, अतः युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान हमेशा नुकसान में रहेगा. इस तथ्य को हिन्दू-मुस्लिम जय-पराजय के रूप में नहीं लेना चाहिए जैसा कि आम तौर पर होता है. भारत की साम्प्रदायिक हिन्दू शक्तियाँ पाकिस्तान के आंशिक रूप से पराजित होने पर भारत के मुसलमानों को अपमानित करने लगती हैं. यह तब, जब कि भारत-पाक के बीच हुए अब तक के तीन युद्धों में भारतीय मुसलमान सैनिक शहीदों की कमी नहीं है!

पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर फैली हुई गलतफहमियों को भारतीय सिनेमा और टी.वी. चैनलों ने दूर किया है. हालाँकि वहाँ दोनों ही माध्यम प्रतिबन्धित हैं पर भारतीय सिनेमा और टी.वी. को लेकर वहाँ के लोगों का लगाव जुनून जैसा लगता है. पाकिस्तान के प्रत्येक छोटे, बड़े, मँझोले शहर, कस्बे और गाँव के बाजार हिन्दुस्तानी सिनेमा और म्यूजिक के कैसेटों से पटे पड़े हैं. पाकिस्तान के पाँच प्रदेशों के लोक संगीत के अतिरिक्त वहाँ केवल भारतीय सिनेमा संगीत ही मौजूद है जो हर मौके पर सुनाई पड़ता है. भारतीय फिल्मों और टी.वी. प्रोग्रामों ने उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक जानकारियों में बेहद इज़ाफा किया है. उन्हें अब मालूम पड़ा है कि भारत में मुसलमानों की आबादी उनकी अपनी कुल आबादी से कहीं ज्यादा है और भारत में मजहब के नाम पर हिन्दू मुसलमानों के बीच कोई बड़ा भेदभाव नहीं है. हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम दंगे होते हैं, यह भी उन्हेँ पता है पर उन्हें अब यह भी मालूम है कि भारतीय मुसलमान और सेकुलर हिन्दू मिलकर एक बहुत बड़ी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ताकत हैं!

पाकिस्तान का मजहबी अवाम और जमाते-इस्लामी जैसी राजनीतिक जमातें हिन्दुस्तानी फिल्मों और भारत की टी.वी. कल्चर से बहुत परेशान और नाराज़ हैं. वे मानते हैं कि इनकी वजह से पाकिस्तान के नौजवान गुमराह हो रहे हैं. वे पाकिस्तान को ही नहीं, हिन्दुस्तान को भी इस बुरे असर से बचाना चाहते हैं! वे बहुत खुश हैं कि एबट रोड एरिया से लाहौर फिल्म इण्डस्ट्री बम्बई चली गयी. वैसे पाकिस्तानी फिल्म इण्डस्ट्री का दबदबा अभी भी है पर वह बहुत पिछड़ गई है. वैसे लक्ष्मी चौक अभी है और इसका नाम भी नहीं बदला है. लक्ष्मी बिल्डिंग भी पुरानी यादें समेटे अब भी खड़ी है. जैसे चाँदनी चौक में फिल्म कम्पनियों का केन्द्र भगीरथ पैलेस है, वैसे ही पाकिस्तानी फिल्‍मी कम्पनियों का केन्द्र लाहौर के लक्ष्मी चौक की लक्ष्मी बिल्डिंग है, पर अब वहाँ फिल्म पोस्टरों के अलावा फिल्‍मी रौनक बिल्कुल नहीं है.

लाहौर का संगेमील प्रकाशन सचमुच मील के पत्थर की तरह आकर्षित करता है. यों तो संगेमील पब्लिशिंग हाउस में हमारा लंच था, मगर वहाँ किताबों से मिलने और उन्हें देखने की भूख इतनी ज्यादा थी कि वक्‍त बहुत कम पड़ गया. संगेमील के अधिकांश प्रकाशन इतिहास और संस्कृति पर हैं. पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्‍ना पर भी कई और कई तरह की किताबें वहाँ मौजूद हैं. लगभग सभी प्रकाशन उर्दू में हैं, कुछ अंग्रेज़ी में भी हैं. और जो पंजाबी में हैं, उनकी लिपि उर्दू ही है. विदेशी आक्रमणकारियों, लुटेरों और व्यापारियों के घुसने का मुख्य द्वार चूँकि लाहौर रहा है, इसलिए संगेमील प्रकाशन की पुस्तकों की प्रकृति अलग है. प्राचीन सभ्यताओं के इतिहास के अलावा वैदिक, बौद्ध और ग्रीक कालीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व पर जितनी पुस्तकें मैंने संगेमील प्रकाशन में देखीं, वे अलग तरह की जानकारियों की दुनिया में ले जाती हैं, यहाँ तक कि सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण के लिए कौन-सा रास्ता अपनाया और सिन्धु सभ्यता के अलावा चाणक्य-चन्द्रगुप्त आदि के दौर में वहाँ की जिन्दगी और शासकों का हाल-हवाल कैसा और क्या रहा है, उसकी जानकारी देनेवाली समाजशास्त्रीय श्रेष्ठ पुस्तकें भी यहाँ हैं. संगेमील प्रकाशन मात्र प्रकाशन नहीं, जरूरी पुस्तकों का ग्रन्थागार है! मन तो चाहता था कि वह पूरा प्रकाशन ही उठा लाया जाए, पर यह सम्भव नहीं था!

पाकिस्तान की यह छवि कि वहाँ इतना अधिक इस्लामीकरण हो गया कि उसे पहचानना और वहाँ के वातावरण में साँस लेना मुश्किल होगा, बहुत सही छवि नहीं है. यद्यपि यह कहना भी गलत होगा कि वहाँ इस्लामीकरण नहीं हुआ है पर वह ज्यादातर राजनीति और मजहबी इदारों के क्षेत्र में हुआ है. वहाँ के मजहबी कट्टरपंथियों ने प्रत्येक गैर-इस्लामी प्रतीकों-संकेतों-नामों-निशानों और उनकी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान को नष्ट किया है, पर यह तथ्य भी उतना ही बड़ा और अहम है कि आखिर इस्लाम के गलत ज़ोम में कोई कितना कुछ नष्ट करेगा! सिन्धु सभ्यता कालीन, मोहन जोदड़ो-हड़प्पा कालीन, वैदिक, बौद्ध यूनानी और गैर इस्लामी दौर का ईरानी प्रभाव और उसके पुरातन अवशेष यहाँ सदियों से मौजूद हैं, आखिर पाकिस्तान का यह नया तास्सुबी इस्लामी तबका कितने गैर इस्लामी सरमाये को मटियामेट करेगा! यह करने में उसे सदियाँ लगेंगी! शुरू-शुरू के इस्लामी अंधड़ में लाहौर को भी ‘मुसलमान’ बनाया गया, पर उसे ‘पंजाबी’ होने से रोका नहीं जा सका!

यहाँ तक कि लाहौर की पहली पहचान पंजाबी होने की है, दूसरी पहचान इस्लामी या मुसलमान होने की है! यहाँ हिन्दू-सिखों का असर तलाशना बेवकूफी होगी, क्योंकि यह लाहौर शहर मूलतः पंजाबियों का है. वैसे दिल को सतही राहत देने के लिए यह बताया जा सकता है कि लाहौर के लक्ष्मी चौक जैसे मशहूर इलाके के अलावा सर गंगाराम हास्पिटल, जानकी देवी हास्पिटल और गुलाव देवी हास्पिटल अभी भी इसी नाम से यहाँ मौजूद हैं. सर गंगाराम ने ही आधुनिक लाहौर शहर की टाउन प्लानिंग की थी. नेशनल कालिज ऑफ आर्ट्स, जिसका जिक्र मैंने हीरामण्डी वाले अध्याय में किया है, उसकी स्थापना भी सर गंगाराम ने ही की थी! वे इंजीनियर थे. इसके अलावा सुन्दरदास रोड, मोहिनी रोड, दयाल सिंह कालिज, दयाल सिंह लायब्रेरी, राजा राममोहन राय होस्टल, किशन नगर, मेलाराम रोड इत्यादि अपने पुराने नामों के साथ यहाँ अब भी मौजूद हैं.
जब मैं पुरानी अनारकली से गुजर रहा था तो एक लाहौरी दोस्त ने ही वह मकान दिखाया था, जिसमें अमृता प्रीतम रहती थीं. और एक कथा गोष्ठी में आमन्त्रित किया गया तो वहाँ मात्र तीन उर्दू कहानीकारों की तस्वीरें लगी हुई थीं. वे तीन थे – कृशनचन्दर, राजेन्द्र सिंह बेदी और मंटो !

और क्‍यों न विभाजन के दिनों की सच्चाइयों को मंटो के ‘स्याह हाशिए’ की एक लघुकथा के साथ यहाँ याद कर लिया जाए! याद है न वह –

दंगाइयों की भीड़ बाईं ओर मुड़ी. दंगाइयों का गुस्सा सर गंगाराम के संगमरमरी बुत पर नाजिल हुआ. एक ने उनका चेहरा कोलतार से पोत दिया. दूसरे ने सर गंगाराम के बुत को जूतों की माला पहनानी चाही थी कि तभी पुलिस ने गोली चलाई और जूतों की माला पहनानेवाला बुरी तरह घायल हो गया. उसे फौरन ही सर गंगाराम अस्पताल पहुँचाया गया!

तो ‘स्याह हाशिए’ तो दर्ज हो चुके हैं जो उस गैर इंसानी जुनूनी दौर की असलियत बयान करते हैं पर यह भी उतनी ही अहम असलियत है कि कोई मजहबी मुल्क या समाज गलत इंसानी रुझानों को लेकर बहुत देर तक जुनून या पागलपन की हालत में नहीं रह सकता.

और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है पाकिस्तान के इसी लाहौर शहर में चलने वाले उस सांस्कृतिक विद्रोह का प्रसंग जो अब कराची के अलावा अन्य शहरों में भी फैल चुका है! यह एक सांस्कृतिक विद्रोह है जो एक सेकुलर त्यौहार को लेकर शुरू हुआ है. इसे सहज ही “बसंत विद्रोह” का नाम दिया जा सकता है.

मैं मार्च में लाहौर पहुँचा था, उससे पहले फरवरी में यह बसन्त का त्यौहार मनाया जा चुका था. यह बसन्‍त के आगमन का त्यौहार है जो किसानों से जुड़ा है. इस त्यौहार की मस्ती ही अलग है. सरसों के फूलने के अलावा यह ऋतुओं के बदलने का त्योहार है, जब कड़कड़ाती सर्दी से किसान को खुशनुमा निजात मिलती है. बसन्त पर पतंगें उड़ाने का विशेष महत्व है. लाहौर के हमारे एक नये दोस्त ने ही बताया कि यह पतंगें उड़ाने और पेंच लड़ाने का खास दिन है. इसका हिन्दू या इस्लाम जैसे मजहब से कोई लेना देना नहीं है. यह तो पाकिस्तान के पंजाबी किसान की खुशियों और मौज मस्ती का दिन है! हालाँकि कट्टरपन्थी इस्लामी जमातें और दकियानूसी लोग बसन्‍त के त्यौहार का बड़ा विरोध कर रहे हैं, पर यह त्यौहार लगातार बेहद लोकप्रिय होता जा रहा है. मात्र लाहौर तक ही यह सीमित नहीं है बल्कि सिन्ध कराची के अलावा अन्य प्रान्तों में भी अब बसन्‍त मनाया जाने लगा है!

एक तरह से यह त्यौहार हर तरह की प्रगतिवादी सोच का पर्याय ही नहीं बन गया है, बल्कि आम जनता के विद्रोह और प्रतिवाद का प्रतीक भी बन गया है! और भारतीय पाठकों को यह जान कर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पंजाब का किसान इस्लामी तिथियों और तारीखों के कलैण्डर के हिसाब से नहीं चलता, वह आज भी भारतीय मौसमों के आधार पर चलता है. पाकिस्तानी किसान आज भी मौसमों को चैत, बैसाख, जेठ, अषाढ़ आदि नामों से जानता और याद करता है!

और इस भरपूर सासंकृतिक अनुभव के साथ यह सोचना कितना अच्छा लगता है कि लाहौर का दिल्ली दरवाजा आज भी दिल्ली को देख रहा है और दिल्ली का लाहौरी दरवाजा लाहौर की तरफ अभी भी मुखातिब है!

(राजपाल एण्ड सन्ज़ से 2015 में छपी किताब ‘आंखों देखा पाकिस्तानः एक छोटा-सा सफ़रनामा‘ से साभार)

कवर | लाहौर फ़ोर्ट

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