पुण्यतिथि | आधुनिक हिन्दुस्तानी थिएटर के प्रणेता आग़ा हश्र कश्मीरी

  • 1:42 pm
  • 28 April 2020

पारसी रंगमंच के बड़े नाटककारों में शुमार किए जाने वाले आग़ा हश्र का असली नाम तो आग़ा मुहम्मद शाह था. उनके वालिद ग़नी शाह तिजारत के सिलसिले में कश्मीर से कभी बनारस आए तो वहीं आबाद हो गए. उनकी पैदाइश बनारस ही के मुहल्ला गोविंद कलां में हुई और जब लिखने लगे तो अपने नाम के साथ पुरखों के वतन का जोड़ लिया था. भारतीय रंगमंच में नाटककारों को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है.कई भाषाओं के जानकार आगा हश्र थिएटर से रूमानियत और उसके जानिब हद दर्जे की दीवानगी के चलते हालांकि आला तालीम से महरूम रहे, लेकिन अपने शौक और स्वाध्याय से उन्होंने देश और दुनिया के नाटकों का गहन अध्ययन किया. उनके नाट्य लेखन पर शेक्सपीयर के असर, भारतीय रंगमंच में महत्वपूर्ण योगदान और अवाम में उनकी मकबूलियत ने आगा हश्र कश्मीरी को हिन्दुस्तानी शेक्सपीयर बना दिया. वह दौर था, जब आज की तरह के ऑडिटोरियम नहीं हुआ करते थे और पारसी थिएटर कम्पनियां शहर-दर-शहर खुले मैदान और मेलों के तम्बू में मंच पर सेट बनाकर नाटक किया करती थीं. आगा हश्र कश्मीरी का नाम किसी भी नाटक की कामयाबी की जमानत होता था. लोग उनके नाटकों का लुत्फ लेने के लिए दूर-दूर से पहुंचते थे. लाइन लगाकर टिकट खरीदते और शो के पहले ही सारे टिकट बिक जाया करते. उनके नाटकों के लिए ऐसी गजब की दीवानगी थी, लोगों की.

पारसी रंगमंच में कैसे हुआ आगाज

आगा हश्र कश्मीरी को किशोरपन से ही शेरो-शायरी से लगाव था. उन दिनों बनारस में जब भी पारसी थिएटर कंपनी आती, वे नाटक देखने ज़रूर जाते. मुंशी मेंहदी हसन ‘अहसन लखनवी‘ के ‘चन्द्रावली’ नाटक से प्रभावित होकर उन्होंने अपना पहला नाटक ‘आफताब-ए-मुहब्बत’ लिखा. यह नाटक लेकर वे ‘अल्फ्रेड थिएट्रीकल कंपनी’ गए और उन्हें अपना नाटक दिखाया. लेकिन कंपनी के मालिक को यह नाटक पसंद नहीं आया. इस वाकये से नौजवान आग़ा हश्र को गहरा धक्का लगा, लेकिन उन्होंने हिम्मत न हारते हुए, दिल ही दिल में नाटककार बनने का पक्का इरादा कर लिया. बनारस से वे जब बम्बई गए, तब उनकी उम्र सिर्फ़ 19 साल थी. बम्बई पहुंचकर उन्होंने एक बार फिर अल्फ्रेड कंपनी के मालिक कावसजी पालनजी खटाऊ से मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात का क़िस्सा भी बड़ा दिलचस्प है. कावसजी अपने घर में अमृत राय के संग चाय पी रहे थे. थोड़ी देर की औपचारिक बातचीत के बाद, कावसजी ने आग़ा हश्र की प्रतिभा को पहचानने के लिए, उनसे ‘चाय’ पर कोई कविता सुनाने को कहा. आग़ा बनारस में आशु कवि के तौर पर काफी मक़बूल हो चुके थे और सामयिक विषयों पर कवितायें लिखने में उन्हें महारत हासिल थी. कावसजी के इम्तहान के तरीके से उन्हें तो मनचाही मुराद मिल गई. उन्होंने तुरंत ही ‘चाय’ मौजू पर अभिनय के साथ निराले अन्दाज में कविता सुनाई. कावसजी उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए और अपनी कंपनी में पन्द्रह रूपए महीने पर नौकर रख लिया.

अल्फ्रेड कंपनी के लिये आगा हश्र कश्मीरी ने पहला नाटक ‘मुरीद-ए-शक‘ लिखा, जो शेक्सपीयर के नाटक ‘अ विन्टर्स टेल’ पर आधारित था. उनका पहला ही नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ और नौ महीने में इस नाटक के साठ मंचन हुये. दूसरी नाटक कम्पनियों ने भी उनके हुनर का लोहा माना. थोड़े से ही अरसे में वे नाटकों की दुनिया में छा गए. उस दौर में आगा हश्र कश्मीरी की लोकप्रियता का बयान करते हुए लेखक-समीक्षक वक़ार अज़ीम अपनी किताब ‘आग़ा हश्र और उनके ड्रामे’ में लिखते हैं, ’’हमारे ड्रामे की तक़रीबन सौ बरस की तारीख़ में आम-ओ-ख़ास दोनों में जो मक़बूलियत आग़ा हश्र के हिस्से में आई,  उससे दूसरे लिखने वाले महरूम रहे. जिस ज़माने में उन्होंने ड्रामे की दुनिया में क़दम रखा अहसन लखनवी और नारायण प्रसाद बेताब का बड़ा शुहरा था. नाटक कम्पनियों में उनके ड्रामें मुंह मांगे दामों में बिकते थे. लेकिन जब आग़ा हश्र के ड्रामे स्टेज पर आए, तो कंपनी के मालिकों ने महसूस किया कि इस नौजवान ड्रामाटिस्ट के ड्रामों में कोई न कोई ऐसी बात है, जो देखने वालों को अपनी तरफ़ खींचती है. चुनांचे हर अच्छी कंपनी की कोशिश होती थी कि आग़ा हश्र उनके लिए ड्रामे लिखें. और हुआ भी यूं कि उनका ताल्लुक़ जिस कंपनी के साथ हुआ उसके दिन फिर गए.’’

गंगा-जमनी तहज़ीब का थिएटर

साल 1910 से 1932 तक का दौर, आग़ा हश्र कश्मीरी का सुनहरा दौर था. इस दौर में उन्होंने हिन्दी, उर्दू दोनों ही ज़बानों में कई महत्वपूर्ण नाटक लिखे. पारसी रंगमंच के लिए उन्होंने जो नाटक लिखे, उनमें शास्त्रीय, लोक, यथार्थवादी, धार्मिक-पौराणिक ग्रन्थों, ऐतिहासिक कथानकों और अंग्रेजी रंगमंच के तत्वों का अद्भुत मेल दिखाई देता है. भारतीय जीवन दर्शन, इतिहास, हिन्दुस्तानी रीति-रिवाज, सभ्यता और संस्कृति उनके नाटकों में साफ परिलक्षित होते हैं. सदियों से भारतीय जनमानस के चेतन और अवचेतन में अन्तर्निहित धार्मिक, पौराणिक ग्रन्थों के कथानकों को उन्होंने खास तौर से अपने नाटकों का विषय बनाया. उनका नाटक ‘सीता वनवास’ रामायण और ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ महाभारत पर आधारित रहे. वहीं नाटक ‘भगीरथ गंगा’ उनके संस्कृत ज्ञान का अनुपम उदाहरण है. उनकी लोकप्रियता ने उनके कई आलोचक भी पैदा किए. आलोचकों ने प्रचारित किया कि हिन्दी के ड्रामे उनके लिखे नहीं है. वे हिन्दी ज़बान से नावाक़िफ़ है, लिहाज़ा वे इतने अच्छे हिन्दी नाटक लिख ही नहीं सकते. जब आग़ा हश्र कश्मीरी तक यह बात पहुंची, तो इस बात का जवाब उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज में दिया. नाटक प्रदर्शन के पहले आग़ा हश्र कश्मीरी ने तकरीबन दो घन्टे तक लगातार हिन्दी में तकरीर की, जिसमें एक भी शब्द उर्दू या फ़ारसी का नहीं था. अपने अंदाज़ में आलोचकों को यह उनका कड़ा जवाब था. ‘बिल्वमंगल’, ‘मधुर मुरली’, ‘भारत रमणी’, ‘भीष्म’, ‘प्राचीन और नवीन भारत’, ‘सूरदास’, ‘लवकुश’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘औरत का प्यार’, ‘आंख का नशा’, ‘भारतीय बालक’, ‘धर्मी बालक’, ‘दिल की प्यास’, ‘पाक दामन’, ‘दोरंगी दुनिया उर्फ मीठी छुरी’, ‘वन देवी’ आगा हश्र कश्मीरी के ऐसे हिन्दी नाटक हैं, जो ख़ूब प्रसिद्ध हुए. उर्दू नाटक को भी उन्होंने फ़ार्म, तकनीक, भाषा, विषयवस्तु के लिहाज़ से नई ऊंचाइयां दीं. आग़ा हश्र कश्मीरी का थिएटर, सही मायने में गंगा-जमुनी साझा तहज़ीब का प्रतीक था. जहां तक इन नाटकों की भाषा का सवाल है, तो हिन्दी, उर्दू ज़बान से इतर हिन्दुस्तानी भाषा को उन्होंने अपने नाटकों के ज़रिये पूरे देश में लोकप्रिय बना दिया.

आग़ा हश्र के ड्रामों पर शेक्सपीयर का असर

पारसी रंगमंच पर शुरू से ही शेक्सपीयर के नाटकों का असर था और आग़ा हश्र कश्मीरी भी इससे अछूते नहीं रहे. सच बात तो यह है कि उनके कई नाटक शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटकों के अनुवाद, रूपांतर, छायानुवाद, भावानुवाद थे. नाटक ‘सैद-ए-हवस’ किंग जॉन, ‘बज्म-ए-फ़ानी’ रोमियो एंड जूलियट, ‘दिल फ़रोश’ मर्चेंट ऑफ वेनिस, ‘शहीद-ए-नाज़’ मेजर फॉर मेजर,  ‘मार-ए-आसीन’ ऑथेलो, ‘सफ़ेद ख़ून’ किंग लियर, ‘ख्वाब-ए-हस्ती’ मेकबेथ पर आधारित थे. आगा हश्र कश्मीरी की निजी जिन्दगी पर शेक्सपीयर का खासा असर था. आगे चलकर साल 1912 में उन्होंने जब अपनी ड्रामा कंपनी बनाई, तो उसका नाम भी शेक्सपीयर के ही नाम पर ‘इंडियन शेक्सपीयर थिएट्रिकल कंपनी ऑफ कलकत्ता’ रखा. आग़ा हश्र कश्मीरी के नाटकों में ऐतिहासिक कथानक, राजसी दरबार और सियासती दांव-पेंच, षडयंत्र, कूटनीति जैसे तमाम तत्व शेक्सपीयर के नाटकों की ही देन हैं. बावजूद इसके अपने नाटकों को उन्होंने जिस तरह भारतीय परिवेश, वेशभूषा और हिन्दुस्तानी भाषा में ढाला, उसे लोगों की सराहना मिली. कई बार तो उन्होंने इन नाटकों का अंजाम तक बदल दिया. ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में लिखा उनका ऐतिहासिक नाटक ‘रुस्तम-सोहराब’ फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि फिरदौसी के ऐतिहासिक महाकाव्य ‘शाहनामा’ पर आधारित है. ‘रुस्तम-सोहराब’ उनके दीर्घकालीन नाटकीय अनुभव, कलात्मकता और साहित्यिक अभिरूचि का प्रमाण है. नाटक ‘यहूदी की लड़की’, ‘ख़ूबसूरत बला’, ‘सीता वनवास’, ‘मशरिकी हूर’, ‘असीरे-हिर्स’ और ‘रुस्तम-सोहराब’ अपने जीवन्त और सशक्त कथ्य, बेजोड़ संरचना से साहित्यिक कोटि में रखे जा सकते है. एक लिहाज़ से देखें, तो आधुनिक रंगमंच का परिवर्तित, परिवर्धित, परिष्कृत स्वरूप पारसी थिएटर और आग़ा हश्र कश्मीरी के लोकप्रिय नाटकों की ही देन है. उन्होंने भारतीय रंगमंच को समृद्ध करने का बेमिसाल काम किया.

बेजोड़ शख्सियत के मालिक

आग़ा हश्र कश्मीरी, बेजोड़ प्रतिभा के धनी थे. उनकी शख्सियत के कई पहलू थे. उनके बारे में कई बातें प्रचलित थीं, जो आज किंवदंती बन गई हैं. मसलन आग़ा साहब टहलते-टहलते मुंशी के मार्फत एक ही साथ कॉमेडी व ट्रेजडी लिखा सकते थे. उनके बारे में एक क़िस्सा और मशहूर था कि वे मुक्कमल नाटक नहीं लिखते थे, बल्कि सेट पर रिहर्सल के साथ ही नाटक का अगला अंक लिख दिया करते थे. फिर उसके बाद नाटक का जनता में रिस्पॉन्स देखते और सकारात्मक राय मिलती, तो उसका मंचन करते. उनकी याददाश्त भी ग़जब की थी. पूरा का पूरा नाटक पर्दे के पीछे से डिक्टेट कर सकते थे. पढ़ने-लिखने के निहायत शौक़ीन थे. एक मर्तबा दोस्तों की महफ़िल में बैठे हुए थे, नौकर ने काग़ज़ में लिपटा पान आग़ा साहब को दिया. आग़ा साहब ने पान खाकर, कागज को संभालकर जेब में रख लिया. आग़ा साहब की इस हरकत से दोस्तों की हैरानगी पर उनका जवाब था,  ‘‘छपे हुए काग़ज़ का कोई भी टुकड़ा, जो मुझे मिला है, मैने उसे ज़रूर पढ़ा है.’’ आग़ा हश्र कश्मीरी के कई नाटक उनकी ज़िंन्दगी में अप्रकाशित रहे,  जिनका प्रकाशन बाद में हुआ. अपने नाटकों के प्रकाशन से ज्यादा, उन्हें मंचन पर विश्वास था. नाटकों के प्रकाशन पर उनका कहना था,‘‘ला हौल विला… आग़ा हश्र कश्मीरी के ड्रामे, चीथड़ों पर छपें. बग़ैर इजाज़त के इधर-उधर से सुन-सुनाकर छाप देते है.’’ ऐसा अजब-गजब मिजाज और स्वाभिमान था उनका, जो ताजिन्दगी बरकरार रहा.

आग़ा हश्र ने डाली आधुनिक रंगमंच की नींव

आग़ा हश्र कश्मीरी ने अपनी जिन्दगी में सत्ताईस नाटक लिखे. रंगमंच में उन्होंने हमेशा नए प्रयोग किए. उनके नाट्य लेखन से पहले नाटक, पूरी तरह काव्यमय होते थे और उनमें कई गानों का समावेश होता था. आगा हश्र कश्मीरी ने नाटक में गद्य को महत्व दिया. रंगमंच को चुटीली, मुहावरेदार भाषा दी. यही नहीं उन्होंने पुराने नाटकों की रंग शैली तथा भाषा को बदलकर आधुनिक रंगमंच की नींव डाली. देश-काल, सामाजिक समस्याओं और जनता के मिज़ाज को देखकर अपने नाटकों की रचना की. नाटकों से मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक संदेश देने का प्रयास किया. अपने नाटकों पर उनका कहना था,‘‘मेरे नाटक देखकर लोग रोते-धोते हुए नहीं, बल्कि मुस्कराते हुये एक संदेश लेकर जाएं.’’ उनके बारे में एक बात जो बहुत कम लोगों को मालूम होगी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक पाने वाले वे अकेले मुस्लिम लेखक थे. आग़ा हश्र कश्मीरी बहुत उम्दा शायर भी थे. उनकी कई गजलें आज भी जनता में बेहद मकबूल हैं. मसलन ‘‘याद में तेरी जहां भूल जाता हूं/भूलने वाले कभी तुझे भी याद आता हूं.’’, ‘‘सब कुछ खुदा से मांग लिया, तुझे मांग कर/उठते नहीं हैं हाथ, मेरे इस दुआ के बाद.’’, ‘‘आह जाती है, फलक पर रहम लाने के लिए/बादलों हट जाओ, दे दो राह जाने के लिए.’’ आगा हश्र कश्मीरी ने कुछ मूक फिल्मों में अभिनय और निर्देशन भी किया. बी.एन. सरकार के ‘न्यू थिएटर्स’ में संवाद लेखक और गीतकार के तौर पर भी अपने आप को आजमाया. उनके नाटक ‘बिल्वमंगल’ और ‘यहूदी की लड़की’ पर इसी नाम से फ़िल्में बनी. के.एल. सहगल की सुपर हिट फिल्म ‘चंडीदास’ के सभी नौ गीत उन्होंने ही लिखे थे, जो उस वक्त काफी लोकप्रिय हुए. आग़ा हश्र कश्मीरी अपने जीते जी हिन्दुस्तानी ड्रामे का इतिहास लिखना चाहते थे, मगर उनकी यह ख़्वाहिश अधूरी ही रह गई. वे यह काम पूरा नहीं कर पाए. पारसी थिएटर को शोहरत की बुलन्दी पर पहुंचाने वाले, आगा हश्र कश्मीरी का 28 अप्रैल, 1935 को लाहौर में निधन हो गया. भारतीय रंगमंच का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, आग़ा हश्र कश्मीरी को ऐहतराम से याद किया जाएगा.

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