सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति ही मां थी

  • 9:18 am
  • 20 May 2020

बक़ौल नामवर सिंह, “छायावाद का अर्थ चाहे जो हो, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो 1918 से 36 ईस्वी के बीच लिखी गईं. छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है, जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से.” और ख़ुद सुमित्रानंदन पंत छायावाद पर पश्चिमी साहित्य के रोमांटिसिज़्म का असर मानते थे.

सुमित्रानंदन पंत, सौंदर्य के अप्रतिम कवि और प्रकृति उनके शब्द-संसार की आत्मा. बागेश्वर के कौसानी गांव में 20 मई, 1900 को जन्मे बालक को नाम मिला गुसाईं दत्त. उनके जन्म के थोड़ी देर बाद ही उनकी मां चल बसीं. ममत्व से वंचित उस बालक ने सात बरस की उम्र में जो पहली कविता लिखी, उसमें बिछोह की प्रतिध्वनि है. शब्द-साधना का सफ़र बचपन से शुरू हुआ और संगीत साधना का भी. जिस उम्र में बचपन का एक नाम ‘शरारत’ भी होता है, उस बालक के जीवन में कुदरत थी, कविता थी और संगीत था.

गांव में रहते हुए प्रकृति ने उन्हें इतना मोहा कि उम्र भर मां सरीखी लगती रही. इसी तरह दूसरों से बहुत जल्दी प्रभावित होने की उनकी वृति उम्र भर बनी रही और उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर इसकी अलग छवियां देखी जा सकती हैं. बचपन में नेपोलियन की तस्वीर देखकर इतने प्रभावित हुए कि उसकी तरह बाल रखने का फ़ैसला किया और रखे भी. कौसानी से लेकर कालाकांकर और पांडिचेरी की उनकी यात्राएं, मार्क्स, महात्मा गांधी और अरबिंदो का प्रभाव उनकी इस वृति का विस्तार ही लगते हैं. बड़े होने पर अल्मोड़ा लौटकर उन्होंने उदय शंकर के साथ रहकर बाक़ायदा संगीत भी सीखा. पिता ने नाम रखा था गुसाईं दत्त. यह नाम उन्हें पसंद नहीं आया तो खुद को सुमित्रानंदन पंत बना लिया.

अल्मोड़ा में स्कूली शिक्षा के बाद वह बड़े भाई देवी दत्त के साथ बनारस के क्वींस कॉलेज में दाखिल हुए. तब तक उनका कवि अक्स निखरकर सार्वजनिक हो चुका था. कविता छायावादी थी लेकिन विचार मार्क्सवादी और प्रगतिशील. मां की ममता से वंचित और प्रकृति को अपनी मां मानने वाले पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्रीलिंग पर कविता लिखते रहे. उनके दौर में हिंदुस्तान में ‘नारीवाद’ तो नहीं था लेकिन नारी स्वतंत्रता के पक्ष में आवाजें उठती थीं और इनमें एक हस्तक्षेपकारी आवाज़ सुमित्रानंदन पंत की भी थी. उन्होंने कहा था, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण उदय तभी संभव है, जब नारी स्वतंत्र वातावरण में जी रही हो.’ एक कविता में उन्होंने लिखा, ‘मुक्त करो नारी को मानव, चिर वंन्दिनी नारी को… युग-युग की निर्मम कारा से, जननी सखी प्यारी को….’

महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर वह पूरी तरह गांधीवादी हो गए थे. गांधी की अगुवाई में चले असहयोग आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया और इसका ख़ामियाजा भी भुगता. उन्हें अल्मोड़ा की अपनी जायदाद बेचनी पड़ी. आर्थिक बदहाली के चलते उनकी शादी नहीं हुई. ताउम्र अविवाहित ही रहे. नारी उनके समूचे काव्य में विविध रूपों–मां, पत्नी, प्रेमिका और सखी–मैं मौजूद है.

उनकी कविता ने नारी चेतना और उसके सामाजिक पक्ष के साथ-साथ ग्रामीण जीवन के कष्टों और विसंगतियों को भी बख़ूबी जाहिर किया है. पल्लव, ग्रंथि, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, कला और बूढ़ा चांद, सत्यकाम, गुंजन, चिदंबरा, उच्छ्वास, लोकायतन, वीणा आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं. पंत-काव्य का फलक बेहद विस्तृत है. वह कालिदास, रविंद्र नाथ टैगोर और ब्रजभाषा के कतिपय रीतिवादी कवियों के असर में थे. वह निराला से दो वर्ष छोटे थे लेकिन निराला उनकी प्रतिभा के कायल थे. हालांकि दोनों के बीच पंत के कविता संग्रह ‘पल्लव’ को लेकर हुआ अप्रिय विवाद आज भी लोगों की स्मृति में है. डॉ. रामविलास शर्मा ने भी उस पर विस्तार से लिखा है. निराला ने पंत पर आरोप लगाया था कि ‘पल्लव’ की कविताएं गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं की नकल हैं. इस पर पंत ने लगातार अपना एतराज दर्ज कराया. वह विवाद बहुत लंबा चला था.

कम लोग जानते होंगे कि टेलीविज़न का भारतीय नामकरण दूरदर्शन उन्होंने ही किया था. हरिवंश राय बच्चन से गहरी दोस्ती रही तो उनके घर पैदा हुए बेटे को अमिताभ नाम भी उन्हीं ने दिया. पंत 1955 से 1962 तक इलाहाबाद आकाशवाणी के मुख्य कार्यक्रम निर्माता तथा परामर्शदाता भी रहे.

कविता| रेखा चित्र

चाँदी की चौड़ी रेती,
फिर स्वर्णिम गंगा धारा,
जिसके निश्चल उर पर विजड़ित
रत्न छाय नभ सारा!

फिर बालू का नासा
लंबा ग्राह तुंड सा फैला,
छितरी जल रेखा–
कछार फिर गया दूर तक मैला!

जिस पर मछुओं की मँड़ई,
औ’ तरबूज़ों के ऊपर,
बीच बीच में, सरपत के मूँठे
खग-से खोले पर!

पीछे, चित्रित विटप पाँति
लहराई सांध्य क्षितिज पर,
जिससे सट कर
नील धूम्र रेखा ज्यों खिंची समांतर.

बर्ह पुच्छ-से जलद पंख
अंबर में बिखरे सुंदर
रंग रंग की हलकी गहरी
छायाएँ छिटका कर.

सब से ऊपर निर्जन नभ में
अपलक संध्या तारा,
नीरव औ’ निःसंग,
खोजता सा कुछ, चिर पथहारा!

साँझ,– नदी का सूना तट,
मिलता है नहीं किनारा,
खोज रहा एकाकी जीवन
साथी, स्नेह सहारा!


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