कितनी भी बड़ी हो तोप एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !

  • 11:39 am
  • 5 August 2020

कवि, शिक्षक और पत्रकार वीरेन डंगवाल का आज जन्मदिन है. उनका रचना संसार उनकी शख़्सियत का आईना है – बेलौस, फक्कड़, बेचैन मगर चिंतनशील शख़्सियत की परछाइयां. वह जीवन और उल्लास के कवि हैं. आम आदमी, आसपास की दुनिया और इसी दुनिया में ख़ुश करने के सामान और उदास होने की वजहें दोनों ही जिस तरह मौजूद हैं, उनकी कविताओं में भी मिलती हैं. और फ़ितरतन खिलंदड़पन के साथ ही गंभीर चिंतन का पता देती हैं.

बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं. उन्होंने पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हिकमत, बर्तोल्त ब्रेख़्त, मीरोस्लाव होलुब और तदेऊश रोजेविच की कविताओं के अनुवाद भी किए हैं.

उनका पहला कविता संग्रह ‘इसी दुनिया में’ 43 साल की उम्र में आया. इस संकलन को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) मिले. सन् 2002 में छपे संग्रह ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ पर उन्हें ‘शमशेर सम्मान’ दिया गया और 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार. ‘स्याही ताल’ उनका तीसरा संग्रह है.

यहां उनकी चुनींदा कविताएं,

तोप

कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप

इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार

सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में

अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !

पन्द्रह अगस्त

सुबह नींद खुलती
तो कलेजा मुंह के भीतर फड़क रहा होता
ख़ुशी के मारे
स्कूल भागता
झंडा खुलता ठीक ७:४५ पर, फूल झड़ते
जन-गण-मन भर सीना तना रहता कबूतर की मानिन्द
बड़े लड़के परेड करते वर्दी पहने शर्माते हुए
मिठाई मिलती

एक बार झंझोड़ने पर भी सही वक़्त पर
खुल न पाया झण्डा, गांठ फंस गई कहीं
हेडमास्टर जी घबरा गए, गाली देने लगे माली को
लड़कों ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी
देश की बेइज़्ज़ती हुई है

स्वतंत्रता दिवस की परेड देखने जाते सभी
पिताजी चिपके रहते नए रेडियो से
दिल्ली का आंखों-देखा हाल सुनने

इस बीच हम दिन भर
काग़ज़ के झण्डे बनाकर घूमते
बीच का गोला बना देता भाई परकार से
चौदह अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती
सोलह अगस्त भर भी

यार, काग़ज़ से बनाए जाने कितने झण्डे
खिंचते भी देखे सिनेमा में
इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी असल झण्डा
कपड़े का बना, हवा में फड़फड़ करने वाला
असल झण्डा
छूने तक को न मिला!

फ़ैजाबाद-अयोध्या

1.

स्टेशन छोटा था, और अलमस्त
आवाजाही से अविचलित एक बूढा बन्दर धूप तापता था
अकेला
प्लेटफार्म नंबर दो पर।
चिलम पी रहा एक रिक्शावाला, एक बाबा के साथ.
बाबा संत न था
ज्ञानी था और ग़रीब.
रिक्शेवाले की तरह.

दोपहर की अजान उठी।
लाउडस्पीकर पर एक करुण प्रार्थना
किसी को भी ऐतराज़ न हुआ.
सरयू दूर थी यहाँ से अभी,
दूर थी उनकी अयोध्या.

2.

टेम्पो
खच्च भीड़
संकरी गलियाँ
घाटों पर तख्त ही तख्त
कंघी, जूते और झंडे
सरयू का पानी
देह को दबाता
हलकी रजाई का सुखद बोझ,
चारों और स्नानार्थी
मंगते और पण्डे.
सब कुछ था पूर्ववत अयोध्या में
बस उत्सव थोडा कम
थोडा ज्यादा वीतराग,
मुंडे शीश तीर्थंकर सेकते बाटी अपनी
तीन ईंटों का चूल्हा कर
जैसे तैसे धौंक आग.
फिर भी क्यों लगता था बार बार
आता हो जैसे, आता हो जैसे
किसी घायल हत्-कार्य धनुर्धारी का
भिंचा-भिंचा विकल रुदन.

3.

लेकिन
वह एक और मन रहा राम का
जो
न थका।
जो दैन्यहीन, जो विनयहीन,
संशय-विरहित, करुणा-पूरित, उर्वर धरा सा
सृजनशील, संकल्पवान
जानकी प्रिय का प्रेम भरे जिसमें उजास
अन्यायक्षुब्ध कोटिशः जनों का एक भाव
जनपीड़ा-जनित प्रचंड क्रोध
भर देता जिस में शक्ति एक
जागरित सतत ज्योतिर्विवेक.
वह एक और मन रहा राम का
जो न थका.

इसीलिए रौंदी जा कर भी
मरी नहीं हमारी अयोध्या.
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं इस
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न.

कोठी-बियाबानी

निद्रालस भरा-भरा
बियाबान अब न रहा.
रास्ता आम है अब
और काफ़ी मशगूल.
डैनों के बल फाटक के खम्भों पर लटकीं
काई पुती सीमेंट की फ़रिश्तिनें
ताकती हैं ट्राफ़िक को.
इतने जाते हैं, इतने आते
मगर कोई आता नहीं.

समोसे

हलवाई की दुकान में घुसते ही दीखे
कड़ाही में सननानाते समोसे

बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच
मेज पर मक्खियाँ
चाय के जूठे गिलास

बड़े झन्ने से लचक के साथ
समोसे समेटता कारीगर था
दो बार निथारे उसने झन्न -फन्न
यह दरअसल उसकी कलाकार इतराहट थी
तमतमाये समोसों के सौन्दर्य पर
दाद पाने की इच्छा से पैदा
मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ़ में होंठ
कानों तलक
कौन होगा अभागा इस क्षण
जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी
समोसा खाने की इच्छा.


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