देशभक्ति गीत याद करें, प्रेम धवन याद आएंगे

  • 5:32 pm
  • 13 June 2020

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) और हिंदी सिनेमा दोनों में ही प्रेम धवन की पहचान एक वतनपरस्त गीतकार की रही. जिन्होंने अपने गीतों से लोगों में वतनपरस्ती का जज़्बा जगाया. एकता और भाईचारे का संदेश दिया. अंबाला में जन्मे और लाहौर की गलियों में पले-बढ़े प्रेम धवन के पिता लाहौर जेल में वार्डन थे. तबादला उनकी नौकरी का हिस्सा था, यही वजह है कि प्रेम धवन का बचपन कई शहरों में गुजरा. उनकी जवानी का दौर, मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था. जेल में सियासी कैदियों का आना-जाना लगा रहता था. प्रेम धवन ने न सिर्फ़ उन्हें क़रीब से देखा, बल्कि उनके युवा मन पर उनकी शख़्सियत और विचारों का गहरा असर पड़ा. वे जब लाहौर के एफ.सी. कॉलेज में पहुंचे, तो वहां उनकी मुलाक़ात साहिर लुधियानवी से हुई. वामपंथी रुझान की वजह से दोनों ही प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे. विचारों में साम्य के साथ ही प्रेम और साहिर को आपस में जोड़ने की एक और वजह थी – दोनों को लिखने का बड़ा शौक था. साहिर ग़ज़ल लिखते थे और प्रेम धवन को गीत रचने में महारत थी. कॉलेज की पत्रिका में दोनों ने जमकर लिखा, छात्र राजनीति की. लाहौर में ‘इप्टा’ का गठन हुआ, तो प्रेम धवन इससे भी जुड़ गए. ‘इप्टा’ की गतिविधियों और नाटकों में शरीक होते रहे. तालीम पूरी होने के बाद नौकरी के बजाय उन्होंने ‘इप्टा’ को चुना, ताकि कुछ रचनात्मक काम कर सकें. आज़ादी के आंदोलन में अपना भी कुछ योगदान कर सकें.

लाहौर के बाद उस वक्त बंबई, सांस्कृतिक गतिविधियों का बड़ा मरकज़ था. सभी बड़े कलाकार, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की आख़िरी मंज़िल बंबई होती. तो प्रेम धवन भी अपने सपनों में रंग भरने के लिए बंबई पहुंच गए. उस वक्त ‘इप्टा’ की बंबई इकाई उरूज़ पर थी, नामचीन कलाकार, गीतकार, संगीतकार, लेखक और निर्देशक इससे जुड़े थे. थोड़े से ही अरसे में वह भी इस टीम का हिस्सा हो गए. ‘इप्टा’ के नाटकों के लिए उन्होंने कई गीत लिखे. नृत्य और संगीत में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी. उन्होंने पं. रवि शंकर से संगीत और पं. उदय शंकर और शांति रॉय बर्धन से नृत्य की विधिवत शिक्षा ली. पूरे चार साल तक प्रेम संगीत और नृत्य सीखते रहे. इस तरह गीतकार के साथ-साथ वह कोरियोग्राफ़र और कम्पोज़र भी बन गए. इस दौरान उनका लिखना-पढ़ना भी जारी रहा. उन्होंने कई भाषाएं सीखीं. ‘इप्टा’ के ‘सेंट्रल स्क्वॉड’ यानी केन्द्रीय दल में उन्हें अबनी दासगुप्ता, शांति बर्धन, पंडित रविशंकर, पंडित उदय शंकर, अमर शेख़, अन्ना भाऊ साठे, ख्वाजा अहमद अब्बास की सोहबत मिली. इनके साहचर्य ने ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इमोर्टल’, ‘कश्मीर’ जैसी लाजवाब पेशकश को जन्म दिया. ‘सेंट्रल स्क्वॉड’ अपने इन कार्यक्रमों के लिए पूरे देश में घूमता था.

‘इप्टा’ के चर्चित कार्यक्रम ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’ में कथा जैसी जो टीका होती थी, उसकी रचना प्रेम धवन ने ही की थी, जिसे बिनय रॉय गाते थे. “ ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’ सिर्फ नृत्य नाटक नहीं, बल्कि देशभक्ति पूर्ण शानदार प्रदर्शन था. इसमें साम्राज्यवाद, सामंतवाद और नवसाम्राज्यवादी पूंजीवाद के अभिशाप के अधीन लोगों की दुर्दशा को दर्शाया गया था और उसका समापन लोगों की एकता से उत्पन्न आशा की भावना से हुआ था.’’ (‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन आंदोलन और संगठन का प्रारंभिक रेखाचित्र 1942-47’, लेखक-मालिनी भट्टाचार्य, पत्रिका-इप्टा की यादें सहमत प्रकाशन) प्रेम धवन की देशभक्ति भरे लेखन और गीतों का देशवासियों पर गहरा असर होता था. उनमें वतनपरस्ती का सोया हुआ जज़्बा जाग उठता था. देश को आज़ादी मिलने तक ‘इप्टा’ और उससे जुड़े कलाकारों एवं संस्कृतिकर्मियों का संघर्ष जारी रहा. आख़िर वह दिन भी आया, जब मुल्क आज़ाद हुआ. आज़ादी की पूर्व संध्या से लेकर पूरी रात भर देशवासियों ने जश्न मनाया. बंबई की सड़कों पर भी हज़ारों लोग आजादी का स्वागत करने निकल आए. इप्टा के सेंट्रल स्क्वॉड ने इस ख़ास मौके के लिए एक गीत रचा, जिसे प्रेम धवन ने लिखा, पंडित रविशंकर ने इसकी धुन बनाई और मराठी के मशहूर गायक अमर शेख़ ने इस गीत को अपनी आवाज़ दी. इस गीत के बोलों ने उस वक्त जैसे हर हिंदुस्तानी के मन में एक नए आत्मविश्वास, स्वाभिमान और ख़ुशी का जज़्बा जगा दिया, ‘‘झूम-झूम के नाचो आज/ गाओ ख़ुशी के गीत/ झूठ की आख़िर हार हुई/ सच की आखिर जीत/ फिर आज़ाद पवन में अपना झंडा है लहराया/ आज हिमाला फिर सर को ऊँचा कर के मुस्कराया/ गंगा-जमुना के होंठों पे फिर हैं गीत ख़ुशी के/ इस धरती की दौलत अपनी इस अम्बर की छाया/ झूम-झूम के नाचो आज.’’

फ़िल्मों में उनके काम की शुरुआत आज़ादी से पहले ही हो गई थी. 1946 में उन्होंने फ़िल्म ‘पगडंडी’ में संगीतकार खुर्शीद अनवर के सहायक के तौर पर काम किया. देश की आज़ादी के बाद, जब ‘इप्टा’ में बिखराव आया, तो प्रेम धवन भी कुछ समय के लिए इससे अलग हो गए. इस्मत चुगताई की कोशिशों से उन्हें 1948 में ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ में एक गाना लिखने का मौक़ा मिला. इस गीत को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ दी. उनका पहला ही गीत ‘चंदा जा रे जा रे…’ (संगीतः खेमचंद प्रकाश) हिट रहा. फ़िल्म की कामयाबी के बाद ‘बॉम्बे टॉकीज़’ ने उन्हें गीत लेखन और नृत्य निर्देशन के लिए अनुबंधित कर लिया. संगीतकार अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, मदनमोहन और चित्रगुप्त के साथ उन्होंने काम किया. लेकिन इतनी अच्छी शुरूआत के बाद भी उन्हें अपनी पहचान बनाने में दिक्कत पेश आ रही थी. साहिर लुधियानवी, जिन्हें प्रेम धवन ने निर्देशकों और संगीतकारों से मिलवाया. उनके गीत तो अपनी दूसरी फ़िल्म के साथ ही लोगों की ज़बान पर चढ़ गए. लेकिन प्रेम धवन का संघर्ष जारी रहा.

उस दौर में फ़िल्मी दुनिया में कई प्रतिभाशाली गीतकार एक साथ काम कर रहे थे. मसलन राजेंद्र कृष्ण, हसरत जयपुरी, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, कैफ़ी आज़मी और साहिर लुधियानवी. गीत-संगीत का यह सुनहरा दौर था. अपने गीत-संगीत की वजह से ही कई फिल्में सुपर हिट हुईं, जिसका फ़ायदा फ़िल्म से जुडे़ हर शख़्स को हुआ. प्रेम धवन को भी हालांकि फ़िल्में मिल रही थीं. इस दौरान उन्होंने ‘डाक बाबू’, ‘ठोकर’, ‘आसमान’ और ‘मोती महल’ जैसी फिल्में कीं, लेकिन यह फिल्में बॉक्स ऑफ़िस पर कोई कमाल नहीं दिखा सकीं. न ही इनका गीत-संगीत कामयाब हुआ. जिसका असर, उनके फिल्मी करिअर पर भी पड़ा.

सात साल के बाद, 1955 में आई फिल्म ‘वचन’ के गीतों ने प्रेम धवन को वह पहचान दी, जिसका उन्हें इंतज़ार था. कमोबेश फ़िल्म के सारे गाने ही हिट हुए, जिसमें ‘‘चंदा मामा दूर के..’’ गीत तो आज भी उतना ही लोकप्रिय है. फिल्म ‘वचन’ के बाद 1956 में आई, राज कपूर की फ़िल्म ‘जागते रहो’ का गीत ‘‘ ते कि मैं झूठ बोलियाँ…’’ भी प्रेम धवन ने ही लिखा, जो सुपर हिट हुआ. 1957 में बी.आर. चोपड़ा की फिल्म ‘नया दौर’ में गीत तो उनके दोस्त साहिर लुधियानवी ने लिखे, लेकिन कुछ गीतों का नृत्य-निर्देशन उन्होंने किया. ख़ास तौर से दिलीप कुमार और वैजयंती माला पर फ़िल्माया गया गीत ‘‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी..’’ ख़ूब लोकप्रिय हुआ. 1961 में प्रेम धवन की दो फ़िल्में ‘काबुली वाला’ और ‘हम हिंदुस्तानी’ आईं और दोनों के गीत सुपर हिट हुए. ख़ास तौर से ‘काबुलीवाला’ का ‘‘ए मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन..’’ और ‘हम हिंदुस्तानी’ के ‘‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’’ गीत ने देश भर में धूम मचा दी. इन गीतों की कामयाबी ने प्रेम धवन को भी फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया.

1965 में निर्देशक मनोज कुमार ने भगत सिंह और उनके साथियों के जीवन पर आधारित, अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘शहीद’ के लिए तीन ज़िम्मेदारियां उन्हें सौंपी. प्रेम धवन को इस फ़िल्म में न सिर्फ गीत लिखने थे, बल्कि संगीत और नृत्य निर्देशन की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की थी. फ़िल्म जब रिलीज़ हुई, तो इसका गीत-संगीत बच्चे-बच्चे की ज़बान पर था. ‘जट्टा पगड़ी संभल’, ‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’ और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’ ग़जब के लोकप्रिय हुए. उनके ये गीत आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के मौक़े पर सुने जाते हैं. इसी फ़िल्म का पंजाबी लोक संगीत में रंगा एक और गीत ‘जोगी, हम तो लुट गए तेरे प्यार में..’ बरबस लोगों को थिरकने पर मजबूर कर देता. प्रेम धवन ने आगे भी अपनी कई फ़िल्मों में पंजाबी लोक संगीत का इस्तेमाल कर बेमिसाल गीत रचे. ‘रात के अंधेरे में’ (1969) के लता मंगेशकर द्वारा गाये गीत ‘‘न जाने पीर दिल की बेपीर बालमा..’’ और ‘‘लागे जिसको वही ये दुख जाने’’ दोनों ही खूब पसंद किए गए.

प्रेम धवन ने अपने फ़िल्मी गीतों में भी अपना सियासी नज़रिया नहीं छोड़ा था. जहां उन्हें मौक़ा मिलता, वे अपने गीतों के जरिए लोगों को जागरूक करते. देशभक्ति गीत तो जैसे उनकी पहचान ही बन गए थे. फ़िल्मों में लिखे उनके ज्यादातर गीत अर्थपूर्ण हैं. उनके इन गीतों पर ग़ौर कीजिए, ‘‘तुझे सूरज कहूँ या चंदा…मेरा नाम करेगा रोशन’’ (एक फूल दो माली), ‘‘सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया’’ (एक साल), ‘‘सीने में सुलगते हैं अरमाँ..’’ (तराना), ‘‘तेरी दुनिया से दूर चले, हो के मजबूर’’ (जबक), ‘‘महलों ने छीन लिया बचपन का’’ (जबक) और ‘‘तेरी दुनिया से हो के मजबूर चला..’’ (पवित्र पापी). ‘अंदाज’, ‘आरज़ू, ‘परदेशी’, ‘तराना’, ‘हम हिंदुस्तानी’, ‘शायर-ए-कश्मीर महजूर’ आदि फ़िल्मों में लिखे प्रेम धवन के गीत भी बहुत लोकप्रिय हुए. संगीतकार चित्रगुप्त के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी. उन्होंने तकरीबन तीन सौ फ़िल्मों के लिए गीत लिखे और पचास से ज्यादा फ़िल्मों में संगीत दिया.

फ़िल्मों में अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल उन्होंने सिर्फ़ गीत-संगीत में ही नहीं किया, बल्कि नृत्य निर्देशन भी दिया. ‘आरज़ू’ (1950), ‘दो बीघा जमीन’ (1953), ‘नया दौर’ (1957), ‘सहारा’ (1958), ‘वक़्त’ (1965) ‘धूल का फूल’ में वह कोरियोग्राफ़र रहे. ‘नया दौर’ के गीत ‘‘उड़े जब जब जुल्फे तेरी..’’ और ‘दो बीघा जमीन’ के गीत ‘‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया..’’ में तो प्रेम धवन हीरो के साथ पर्दे पर थिरके भी हैं. ‘त्रिवेणी पिक्चर्स’ के बैनर पर उन्होंने कुछ फिल्में बनाईं और निर्देशन भी किया. हालांकि ये फ़िल्में कोई कमाल नहीं दिखा पाईं तो उन्होंने फ़िल्म बनाने से तौबा कर ली. आख़िरी दिनों में वे फ़िल्मों से दूर हो गए और अपना ज्यादातर वक्त उन्होंने पढ़ने-लिखने और ‘इप्टा’ की गतिविधियों में लगाया. देश की नई पीढ़ी को ‘इप्टा’ के गौरवशाली इतिहास से जोड़ा.

13 जून, 1923 को जन्मे प्रेम धवन 7 मई, 2001 को इस दुनिया से विदा हुए.


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