सरस्वती के मंदिर से बड़प्पन का बोझ हटाने वाले कथाकार

  • 9:08 am
  • 31 July 2020

हामिद को जानते हैं न आप, तब तो मुंशी वंशीधर को भी जानते होंगे. और पंडित अलोपीदीन! हल्कू, होरी, हीरा, मोती और धनिया से भी पहचान होगी. क़िरदार के नाते उनकी ज़िंदगी में ऐसा कुछ ख़ास नहीं, जिसे हम अपने आसपास देखते न हों, पहले से वाक़िफ़ न हों. अलबत्ता उनकी ज़िंदगी के अफ़साने कहने का सलीक़ा ज़रूर ऐसा है कि एक बार की मुलाक़ात में भी याद रह जाते हैं.

तभी न मुंशी प्रेमचंद को हम ऐसे कथाकार के तौर पर याद करते हैं, जिन्होंने साहित्य की धारा बदल दी, जिन्होंने हिन्दी साहित्य को रोमांस, तिलिस्म, ऐय्यारी, जासूसी कथानकों से बाहर निकालकर आम जन की ज़िंदगी से जोड़ा. उस तबक़े के लोगों के जज्बात को आवाज़ दी, जिनकी समाज और साहित्य में भी बहुत जगह न थी. साहित्य को यथार्थ से जोड़ने और समाजोन्मुखी बनाने में उनकी कहानियों की अहम् भूमिका है. उनका रचना संसार बाल्जाक या तोलस्तोय के साहित्य की तरह ही समाज के भीतर का रचना संसार है. घीसू, होरी, अमीना, जुम्मन, सूरदास, बूढ़ी काकी हमारे अपने समाज की देन और बेलाग चरित्र हैं.

प्रेमचंद के कथा संसार में गांव इतनी जीवंतता और प्रामाणिकता के साथ उभरता है कि उन्हें ग्राम्य जीवन का चितेरा भी कहा गया. हालांकि वह किसान की ही कहानी नहीं कहते हैं, बल्कि किसान की नज़र से पूरी दुनिया की कहानी कहते हैं. औपनिवेशिक शासन, सामंतशाही, महाजनी सभ्यता और समाज के कितने विद्रूप पर चोट करते हैं.

किसानों-मजदूरों, दलितों-शोषितों औऱ महिलाओं की सामाजिक – आर्थिक मुक्ति के पक्षधर प्रेमचंद की ‘आहुति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेहूं’ और ‘सद्गति’ जैसी कहानियों में किसान और खेतिहर मजदूर ही नायक हैं. सामंतशाही और ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के हाथों किसानों का शोषण इन कहानियों का केन्द्रीय तत्व है.

1917 में रूस की अक्टूबर क्रांति से निकले विचार और चेतना का असर सारी दुनिया पर पड़ा. प्रेमचंद भी रूसी क्रांति से बेहद प्रभावित थे. अपने दोस्त के नाम एक ख़त में उन्होंने इसका ज़िक्र किया है, ‘‘मैं बोल्शेविकों के मतामत से कमोबेश प्रभावित हूं.’’ वर्गविहीन समाज का सपना प्रेमचंद का सपना था. ऐसा समाज जहां वर्ण, वर्ग, लिंग, रंग, नस्ल, भाषा, धर्म और जाति के नाम पर कोई भेद न हो. शुरुआत में महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन में गहरी श्रद्धा रखने वाले प्रेमचंद का आदर्शवाद बाद के दिनों में लिखे उनके साहित्य में टूटता दिखाई देता है.

सन् 1933 में ‘जागरण’ अख़बार के एक सम्पादकीय में वह लिखते हैं – ‘‘सामाजिक अन्याय पर सत्याग्रह से फतेह की धारणा निःसन्देह झूठी साबित हुई है.’’ यही नहीं आगे चलकर अपने उपन्यास के एक पात्र के मुंह से वह कहलवाते हैं -‘‘शिकारी से लड़ने के लिए हथियार का सहारा लेना ज़रूरी है, शिकारी के चंगुल में आना सज्जनता नहीं कायरता है.’’ यहां हम ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ के लेखक से इतर एक दूसरे ही प्रेमचंद को देखते हैं. गोया कि इसके बाद ही प्रेमचंद ‘गोदान’ जैसा एपिक उपन्यास, ‘कफ़न’ जैसी कालजयी कहानी और दिल-दिमाग़ को झिंझोड़ देने वाला अपना आलेख ‘महाजनी सभ्यता’ लिखते हैं. ऐसी रचनाएं जो हमारे समाज की हक़ीकत और कठोर सच्चाइयों से सीधे-सीधे रु-ब-रु कराती हैं.

वह दौर था, जब हम अंग्रेज़ों के साथ-साथ जागीरदारों, सामंतों की गुलामी भी झेल रहे थे – दोहरी ग़ुलामी. प्रेमचंद दोनों को ही अवाम का एक-सा दुश्मन समझते थे. ‘प्रेमचंद घर में’ किताब के एक अंश में वह अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं – ‘‘शोषक और शोषितों में लड़ाई हुई, तो वे शोषित, ग़रीब किसानों का पक्ष लेंगे.’’ बिला शक उनकी कहानियों- उपन्यासों में यह पक्षधरता और प्रतिबद्धता हमें साफ दिखाई देती है. ‘प्रेमाश्रम’ में वह सामूहिक खेती और वर्गविहीन समाज की वकालत करते हैं, साथ ही विदेशी शासन और शोषक जमींदारी गठबंधन का चेहरा बेनक़ाब करते हैं. उनकी नज़र में आज़ादी का मतलब दूसरा ही था, जो शोषणकारी दमनचक्र से सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के बाद ही मुमकिन था.

‘प्रेमाश्रम’ की मार्फ़त प्रेमचन्द ऐसे क़ानून की ज़रूरत बताते हैं जो, ‘‘ज़मींदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले ले.’’ 1933 में ‘जागरण’ के अपने एक दीगर संपादकीय में वह लिखते हैं – ‘‘अधिकांश भारतीय स्वराज इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी ही आवाज़, बहसें सुनी जाएं बल्कि स्वराज का अर्थ उनके प्राकृतिक उपज पर नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपयोग और अपनी पैदावर पर अपनी इच्छा अनुसार मूल्य लेने का स्वत्व.’’ उनके मतानुसार किसानों को स्वराज की सबसे ज्यादा ज़रूरत है. उनका यह भी मानना था कि आर्थिक आज़ादी के बाद ही वास्तविक आज़ादी मुमकिन है. ‘प्रेमाश्रम’ में अपने पात्रों से प्रेमचंद कहलाते हैं – ‘‘रुस देश में कास्तकारों का ही राज्य है, वह जो चाहते हैं, करते हैं.’’ और कादिर कौतुहल से कहता है – ‘‘चलो ठाकुर उसी देश में चलें.’’ काल और अनुभव की व्यापकता से प्रेमचंद के विचारों में बदलाव आता गया, जो बाद में उनकी रचनाओं में साफ़ दिखाई देता है.

प्रेमचंद ने अपने लेखन से सुंदरता की कसौटी बदली. उनकी नज़र में साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो. अपने साहित्य में उन्होंने न सिर्फ आम आदमी की कहानी कही, बल्कि उस ज़बान में कही जो आमफ़हम है, जो साधारण पाठक को भी आसानी से समझ में आ जाए. कहावतों और मुहावरों में ढली उनकी भाषा, पढ़ने का अलग सुख देती है. रामवृक्ष बेनीपुरी ने हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की अहमियत बताते हुए लिखा है, ‘‘प्रेमचंद ने हमें केवल जनता का ही साहित्य नहीं दिया, बल्कि वह साहित्य कैसी भाषा में लिखा जाए, उसका पथ निर्देश भी किया. जनता द्वारा बोले जाने वाले कितने ही शब्दों को उनकी कुटिया, मड़ैया से घसीटकर सरस्वती मंदिर में लाए और यूं ही कितने अनधिकृत शब्दों को जो केवल बड़प्पन का बोझ लिए हमारे सिर पर सवार थे, इस मंदिर से बाहर किया.’’

अपनी 56 साल की ज़िंदगी में प्रेमचंद ने बेशुमार लिखा. कहानी और उपन्यासों के अलावा उन्होंने ‘कर्बला’, ‘रूहानी शादी’, ‘संग्राम’, ‘प्रेम की वेदी’ जैसे नाटक लिखे, तो उनके प्रमुख निबंध ‘कुछ विचार’, ‘विविध प्रसंग’, ‘कलम’, ‘महात्मा शेख सादी’, ‘दुर्गादास’, ‘त्याग और तलवार’ आदि किताबों में संकलित हैं. इनमें ज्यादातर विचारोत्तेजक निबंध हैं. उन्होंने रूसी साहित्यकार तोलस्तोय की कहानियों का अनुवाद किया. साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ और समाचार-पत्र ‘जागरण’ के संपादन का ज़िम्मा संभाला. विश्व की प्रमुख घटनाओं, साहित्य से भी वे अछूते नहीं थे. साम्राज्यवाद, सामंतवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता को वे इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन समझते थे और इनके खिलाफ उन्होंने ताउम्र लिखा.

अक्टूबर, 1936 में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘भारत’ अख़बार में प्रेमचंद से हुई अपनी मुलाकातों के बारे में एक भावनात्मक लेख लिखा था. उस लेख में प्रेमचंद के बारे में उन्होंने क्या ख़ूब लिखा है, ‘‘मैं जब बाबू राजेन्द्र प्रसाद और पं.जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्र के समादृत नेताओं को देखता हूं और साथ-साथ मुझे श्री प्रेमचंदजी की याद आती है, मेरा हृदय आनन्द और भक्ति से पूर्ण हो जाता है. मैं देखता हूं, राजनीति के सामने साहित्य का सर नहीं झुका, बल्कि और ऊंचा है, केवल देखने वाले नहीं हैं.’’

जन्म | 31 जुलाई, 1880 | लमही. निधन | 8 अक्टूबर, 1936 | वाराणसी.

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