बक़ौल राही, सेक्यूलरिज़्म कोई चिड़िया नहीं कि लासा लगाके फंसा लेंगे

  • 8:01 pm
  • 1 September 2020

राही मासूम रज़ा के अदबी सफ़र का आगाज़ शायरी से हुआ. 1945 में वह प्रगतिशील लेखक संघ से वाबस्ता हुए. सन् 1966 आते-आते उनकी ग़ज़लों-नज़्मों के सात संग्रह आ चुके थे. यही नहीं, सन् सत्तावन की एक सदी पूरी होने पर 1957 में लिखा हुआ उनका एपिक ‘अठारह सौ सत्तावन’ उर्दू और हिन्दी दोनों ही ज़बानों में ख़ूब मक़बूल हुआ. राही की आवाज़ में जादू था और तरन्नुम भी लाज़वाब. मुशायरे में पढ़ते, तो समां बंध जाता.

अलीगढ़ के दिनों में उन्होंने गद्य लिखना शुरू किया तो वहां भी अलग छाप छोड़ी. हालांकि गद्य का उनका रियाज़ पढ़ाई के दिनों से ही था, जब दोस्ती की ख़ातिर अब्बास हुसैनी के ‘निकहत’ और ‘रूमानी दुनिया’ रिसालों में वह शाहिद अख़्तर और दीगर नामों से लिखते थे. पाबन्दी से लिखने की आदत उन्हें यहीं से पड़ी. शायद इस रियाज़ का ही नतीज़ा था कि वे एक ही समय में फ़िल्मों की पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक, अख़बारों में नियमित कॉलम और नज़्म, ग़ज़ल, उपन्यास लिख लिया करते थे.

1966 में आए उनके उपन्यास ‘आधा गांव’ का बड़ा ठण्डा स्वागत हुआ. मगर जैसा कि स्वयंसिद्ध है, ‘‘अच्छी रचना का ताप धीरे-धीरे महसूस होता है,’’ ‘आधा गांव’ की ख्याति और चर्चा हिन्दी-उर्दू दोनों ही जबानों में एक साथ हुई. 1972 में जब जोधपुर विश्वविद्यालय में एम.ए. (हिन्दी) के पाठ्यक्रम में ‘आधा गांव’ लगाने का फ़ैसला हुआ तो बवाल मच गया. नैतिकतावादियों, प्रतिक्रियावादियों ने एक सुर में राही और उनके इस उपन्यास की जमकर आलोचना की. उपन्यास पर अश्लील और साम्प्रदायिक होने के इल्जाम लगे. हालांकि राही पर इसका बहुत असर हुआ, उल्टा फ़िरकापरस्ती से जूझने का उनका संकल्प और मज़बूत हुआ.

अख़बारों के उनके कॉलम बेहद तीखे हुआ करते, जिसमें न ही किसी की परवाह करते और न किसी को बख़्शते. अपने एक लेख ‘भारतीय समाज किसी मज़हब की जागीर नहीं है!’ में वे लिखते हैं, ‘‘सेक्यूलरिज़्म कोई चिड़िया नहीं है कि कोई बहेलिया कंपे में लासा लगाके उसे फंसा लेगा. सेक्यूलरिज़्म सोचने का ढंग है, जीने का तरीका है! और जब तक देश के आर्थिक और राजनीतिक ढांचे में बुनियादी परिवर्तन नहीं करेंगे, तब तक साम्प्रदायिकता का भूत यूं ही हमारी बेज़ुबान और बेबस सड़कों पर नाचता रहेगा.’’

मुल्क का बंटवारा और हिजरत करने वाले लाखों लोगों की तक़लीफ़ें उन्होंने देखी थीं, उनके रंज़ो-ग़म में शरीक रहे थे. लिहाज़ा साम्प्रदायिकता के चेहरे से ख़ूब वाक़िफ़ थे. यही वजह है कि उनके लेखन की बुनियाद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा की संकीर्णता का प्रतिरोध है. राही का कहना था, ‘‘धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष सम्बंध नहीं है. पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी, वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा.’’ ‘आधा गांव’ में उन्होंने इस ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक, एक नहीं रहेगा. और बाद में हुआ भी यही.

‘आधा गांव’ विभाजन के पहले शिया मुसलमानों के दुख-दर्द और पाकिस्तान के वजूद को पूरी तरह नकारता है. ‘‘पाकिस्तान क्या है? कौनो मस्जिद बस्जिद बाय का?’’ आधा गांव में उनका एक क़िरदार दरयाफ़्त करता है. यह हिन्दुस्तान के दूरदराज़ के गांव में बसने वाली अवाम का भोला-भाला चेहरा है, जो ऊपर की सियासत और जंग से अन्जान है और जिसके लिए अपनी जन्म और कर्मभूमि ही उसका मुल्क है.

उनके उपन्यासों में ‘टोपी शुक्ला’ और ‘कटरा बी आर्जू’ अपने विषय, कथावस्तु, भाषा-शैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं. 1969 में लिखे ‘टोपी शुक्ला’ में वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के अन्दर चलने वाली वाम राजनीति और अन्य से अपने अन्तर्संबन्धों की पड़ताल करते हैं, तो इमरजेंसी के बाद लिखा गया उपन्यास ‘कटरा बी आर्जू’, आपातकाल की भयावहता पर आधारित है. उस दौर में लिखे ‘नवभारत टाइम्स’, ‘धर्मयुग’ और ‘रविवार’ वगैरह में छपने वाले अपने नियमित कॉलम में उन्होंने आपातकाल की खुलकर मुख़ालफत की. साथ ही उस दौरान कुछ लेखकों, बुद्धिजीवियों की चुप्पी और तटस्थता से वह बेहद निराश थे.

ऐसी घड़ी को वह निर्णायक मानते थे, जिसमें लेखक की प्रतिबद्धता, पक्षधरता सामने आती है और जिसका असर भावी समाज और पीढ़ियों पर पड़ता है. कॉलम ‘विभाजन के रास्ते’ में उन्होंने लिखा, ‘‘इन बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, विचारकों ने इमरजेंसी लगने के बाद डर के मारे जो चुप्पी साधी थी, वह चुप्पी अब तक नहीं टूटी है.’’ 1984 के सिख विरोधी दंगे हों या अयोध्या का बाबरी मस्जिद प्रसंग – ऐसे कई मुद्दों पर समाज में फैलती ख़ामोशी से वह हैरान-परेशान रहते. अपने लेखन के जरिए अक्सर वह ऐसे सवालों से जूझते-टकराते रहे.

1967 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में पढ़ाने के बाद वह बम्बई चले गए. कृश्न चन्दर, साहिर लुधियानवी, राजिंदर सिंह बेदी और कैफी आज़मी सरीखे दोस्तो ने उन्हें फ़िल्मों में संवाद और स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी. यह बात भी कम दिलचस्प नहीं कि तीन सौ फ़िल्मों की स्क्रिप्ट और संवाद लिखने वाले राही ने ‘आधा गांव’ के सिवाय सारे उपन्यास बम्बई में ही लिखे. संवाद और पटकथा के लिए तीन बार उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिला. हिन्दी फ़िल्मों में अपने लेखन को लेकर वह किसी मुगालते में नहीं रहे. एक इंटरव्यू में उन्होंने बड़े साफ़गोई से कहा था, ‘‘फ़िल्म में लेखन की कोई अहम् भूमिका नहीं होती. फिर भी मैं अपनी बात कहने के लिए, फ़िल्म का कुछ हथिया लेता हूं.’’ टीवी के धारावाहिक ‘महाभारत’ के संवाद और पटकथा ने उन्हें ख़ूब लोकप्रियता दी. ‘महाभारत’ की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था.

राही उर्दू ज़बान के शायर थे, तो हिन्दी के उपन्यासकार. उर्दू ज़बान को फरोग करने के लिए देवनागरी लिपि अपनाने की उन्होंने खुलकर वकालत की. लेकिन उर्दू का रस्मुलखत बिल्कुल से छोड़ दिया जाए, वे इसके ख़िलाफ़ थे. ‘आधा गांव’ में भोजपुरी मिश्रित हिन्दी-उर्दू ज़बान का ख़ूब इस्तेमाल हुआ है. किसी भाषा की शर्त पर क्षेत्रीय बोली या दूसरी भाषा की कुर्बानी के वह हामी नहीं थे. भाषाई-शुद्धता के सवाल पर वह एक जगह लिखते हैं कि ‘‘ज़मीन को जमीन लिख देने से उसके मायने नहीं बदल जाते.’’

वामपंथी विचारधारा के हिमायती राही मासूम रजा का सपना हिन्दुस्तान को एक समाजवादी मुल्क बनते हुए देखना था. कैसा समाजवाद के बाबत उनक राय थी, ‘‘यह सारी की सारी प्रक्रिया पूरी तरह से हिन्दुस्तानी परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए, नहीं तो भटकाव-टूटन होना स्वाभाविक है.’’ ‘कटरा बी आर्जू’ में अपने क़िरदार के मार्फ़त कहलवा उनका यह संवाद मौजूदा परिस्थितियों में प्रासंगिक जान पड़ता है,‘‘सोश्ल-इज्म के आए में बहुत देरी हो रही है. सोश्ल-इज्म में यही तो डबल खराबी है कि फारेन में नहीं बन सकती. कपड़े की तरह बदन की नाप की काटे को पड़ती है.’’

गाजीपुर के गांव गंगोली के राही ख़ुद को गंगा का बेटा कहते. ‘गंगा और महादेव’ में उन्होंने कहा है – ‘‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/ मुझे क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/ लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/ मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंको/ और उस जोगी से यह कह दो/ महादेव अब इस गंगा को वापिस ले लो/ यह ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बनकर दौड़ रही है.’’

कवर | अरिजित बोस के ब्लॉग से साभार

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