सालिम अली | बचपन से ही जिनका चिड़ियों से नाता था

  • 3:11 pm
  • 12 November 2020

मुझे अच्छे से याद है कि जब मैं दस वर्ष का था तथा मेरा भतीजा सुलेमान जो मुझसे दो साल छोटा था, हम दोनों छिपाकर कुछ ‘भाग्यविहीन’ पक्षियों को बचा लेते थे तथा पालतू बनाकर तार के छोटे से बाड़े में रखते थे.

कुछ वर्ष पहले तक इस सवाल ने न तो मुझे परेशान किया ओर न अन्य किसी को कि पक्षियों में मेरी रुचि किस तरह जागृत हुई. मैं तो इसी के साथ बड़ा हुआ तथा मेरी विचित्रता को मेरा स्वभाव मानकर स्वीकार कर लिया गया, बस! वह तो बहुत बाद में जब एक, जिज्ञासु पत्रकार ने यह सवाल मेरे समक्ष रखा तब मैंने इस पर सोचना शुरू किया. तब मेरी समझ में आया कि मेरी प्रारंभिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उसका सवाल उतना असंगत नहीं था जितना पहली नज़र में लगा था. सत्तासी वर्ष का अंतराल, विवरणों को याद रखने के लिए बहुत लंबा अंतराल है, किंतु मुझे अपना खेतवाड़ी का फैला हुआ पारिवारिक घर पूरी तरह याद है.

खेतवाड़ी बंबई का मध्यवर्ग का आवास स्थल था, जो आज के भीड़ भरे क्षेत्रों गिरिगाम तथा चरनी रोड के बीच में था. इसमें में पांच भाइयों तथा चार बहनों के अनाथ परिवार का सबसे छोटा सदस्य था. मेरी मां ज़ीनत-उन-निसा की मृत्यु तब हुई, जब मैं मात्र तीन वर्ष का था, तथा मेरे पिता मोईज़ुद्दीन की मृत्यु तो तब हुई जब मैं एक वर्ष का ही था. हमारे मामा अमीरुद्दीन तैयबजी तथा उनकी निस्संतान पत्नी हामिदा बेगम की स्नेही छाया में हम लोग पले, वे दोनों हम लोगों के लिए किसी भी माता-पिता से अधिक थे. वे अन्य कई अनाथ बच्चों तथा मित्रों एवं संबंधियों के बच्चों के भी अभिभावक थे. कुछ बच्चों में संदेहास्पद गुण भी थे. उस अजीब से मिश्रित परिवार में ऐसा कोई नहीं था, जहां तक मुझे याद है, जिसे पक्षियों में कोई भी रुचि हो, हां (पक्षियों में) संभवतः, त्योहारी पुलाव की सामग्री के रूप में उनकी रुचि रही हो.

‘प्रकृति संरक्षण” तब बिरले ही सुनने में आने वाला पद था. तीतर और बटेर खुले रूप में प्रचुर मात्रा में बिकते थे. तीतर एक रुपए में छह से आठ तथा बटेर सोलह से बीस तक मिलते थे, इसलिए त्योहारों तथा छुट्टियों के दिनों में रोज़ की मुर्ग़ी के स्थान पर ये अधिक आनंद देते थे. मुर्ग़ियां भी एक रुपए में दो या तीन मिलती थीं. गोल तथा चपटी बांस की टोकरियों में पक्षी, खेतवाडी-घर में, जीवित ही लाए जाते थे तथा पारंपरिक रूप (उनके गले में चीरा लगाया जाता था) से ही उनको हलाल किया जाता था.

मुझे अच्छे से याद है कि जब मैं दस वर्ष का था तथा मेरा भतीजा सुलेमान जो मुझसे दो साल छोटा था, हम दोनों छिपाकर कुछ ‘भाग्यविहीन’ पक्षियों को बचा लेते थे तथा पालतू बनाकर तार के छोटे से बाड़े में रखते थे. लकड़ी के खोके तथा तार के बाड़े बनाने में पुराना विश्वस्त रसोईया तथा परिवार के सब काम करने वाला और, सबसे बड़ी बात, हम बच्चों का पक्का दोस्त, सही या ग़लत काम में भरोसे वाला साथी नानू हमारी मदद करता था. हम लोगों को बड़ा आश्चर्य होता था कि घर के इतने सारे काम करने के बाद भी, वह कैसे, इन रोज़मर्रा के कामों के अलावा हमारे कामों के लिए न केवल समय निकाल लेता था, बल्कि उत्साह तथा प्रसन्नता से इन्हें करता भी था.

सारा रसोईघर वह अकेले संभालता था, कम से कम दस व्यक्तियों के लिए रोज़ दिन में दो बार खाना बनता था. खाने वालों में बढ़ती उम्र के हम लोगों की ख़ुराक भी अच्छी थी. इन कामों में सारे बर्तन मांजना व साफ़ करना, आटा गूंथना और ढेरों रोटियां सेंकना शामिल था. तब भी नानू हम लोगों को ज्यादा खाने के लिए मज़ाक-मज़ाक में उकसाया करता था. वह शर्त लगाकर कहता कि वह ज्यादा तेज़ी से रोटी बना सकता है या हम लोग ज्यादा तेज़ी से खा सकते हैं. और रोटियां भी वह ज़मीन पर बैठकर, लकड़ी के चूल्हे पर सेंकता था.

हम लोग, मैं और सुलेमान, अपना चिड़ियाघर साझे में चलाते थे. हम लोगों को बाड़े के पास बैठकर पक्षियों का व्यवहार तथा गतिविधियां देखने में बहुत आनंद मिलता था. हम लोगों ने अपने पालतू प्रिय पक्षियों को नाम भी दिए थे. स्कूल की छुट्टियों के दिन, बजाय गृहकार्य करने के, पक्षियों के साथ समय बिताने में हमें कहीं ज्यादा आनंद आता था.

हमें उन दिनों प्रतिमाह दो रुपए जेबख़र्च के लिए मिलते थे और क्राफर्ड मार्किट के एक हिस्से में चिड़ियां भी बिकती थीं. अपने जेबख़र्च के भीतर हम दोनों क्राफर्ड मार्किट की अधिकतम दौड़ लगाया करते थे ताकि नए पक्षियों को अपने संग्रह में जोड़ सकें. शुरू के दिनों में हमारी रुचि प्रमुखतः शिकारी-पक्षियों, यानी भूरे तथा विचित्र तीतर, तथा भूरे वृष्टि और क्षुप बटेर तक ही रहती थी. जन्मदिन या अन्य त्योहारों के बाद जब हम ‘धनी’ होते थे तब हम एक या दो जोड़े भूरे ‘वन-कुक्कुट’ (जंगल फाउल) या ‘लाल कंटकी कुक्कुट’ (रेड स्पर फाउल) ले आते थे. किंतु मैं पक्षियों, अन्य जानवरों या ‘पैट्स’ को अधिक समय तक क़ैद करके नहीं रख सका. अनेक असफलताओं तथा निराशाओं को भोगने के बाद मैंने इसका प्रयास छोड़ दिया, और यद्यपि जीवन के बाद के वर्षो में, समय-समय पर, मुझे प्रयोगों के लिए पक्षियों को रखना पड़ा लेकिन मैंने उन्हें प्रयोग के बाद हमेशा मुक्त कर दिया.

हमारे पिता तुल्य मामा जी ने, जिनके साथ हम रहते थे तथा जिन्हें हम लड़के उनकी शिकार उपलब्धियों से प्रभावित होकर अपना हीरो मानते थे, मुझे ‘एयर गन’ भेंट दी थी. उस समय मेरी उम्र नौ-दस वर्ष थी. मुझे भली भांति याद है कि वह निकल पट्टित – 500 छर्रे- आवर्ती ‘डेज़ी’ थी जो उन दिनों बहुत लोकप्रिय थी और गन से ज्यादा खिलौना लगती थी. उसकी सम्मुख ‘मक्खी’ (साइट) के पीछे एक छेद था, जो नाल के चारों तरफ के खोखले बेलन में जाता था. इस छेद से उस बेलन में “बी बी-आकार’ के 500 सीसे के गोल छरें भरे जाते थे. प्रत्येक ‘शॉट’ के बाद एक हत्थे से स्प्रिंग को दबाया जाता था, जिससे अगला छर्रा खुद ही ‘ब्रीच’ में चला जाता था.

एयर गनों की ही तरह वह कोई शस्त्र नहीं था – वह बहुत ही अपरिशुद्ध तथा मनमानी-सी करने वाली गन थी. 10 मीटर दूर के निशाने को बेधने के लिए उसमें पर्याप्त कौशल लगाने के बाद भी चूक के लिए तैयार रहना पड़ता था. किंतु मेरी गन, मेरे साथियों की एक शॉट गन के स्थान पर नवनिर्मित आवर्ती शॉट गन थी, इसलिए उनकी ईर्ष्या का विषय थी. इतने आधुनिक एवं परिष्कृत शस्त्र का स्वामी होना मेरे लिए गर्व की बात थी जिसका प्रदर्शन करना मुझे अच्छा लगता था. इसकी कमियों के बावजूद, शीघ्र ही मैंने इतनी कुशलता प्राप्त कर ली थी कि मैं गौरेयाओं को मार सकता था जिनकी एक कालोनी हमारे अस्तबल को सदा आबाद रखती थी.

घोड़ों के ‘नकथैलों’ से गिरे दानों, दीवार तथा छतगीर में अनेक छेदों की उपस्थिति उन्हें पर्याप्त जीवन साधन प्रदान करते थे. हम लड़के ख़ुदा से डरने वाले मुस्लिम-बच्चों की तरह पाले गए थे. हमें पता था कि गौरेया का गोश्त वैध गोश्त था और उसे हम तब ही खा सकते थे जब उसे आनुष्ठानिक रूप से ‘हलाल’ किया जाए. परलोक में दारुण परिणाम भोगने के डर से तथा बड़े बूढ़ों की सामयिक चेतावनियों से हम लोग अधिकांशतः उस अनुष्ठान का पालन करने में धर्मनिष्ठ थे. किंतु नरक के भयानक ख़तरों के बावजूद, कभी-कभार हम लोग धोखा देने के लालच में नानू को मना लेते थे कि उस मृत तथा ठंडे पक्षी को वह हलाल कर दे. नानू ने हमें सिखा दिया था कि सही अंत्येष्टि के बाद गौरेया के साथ कैसा व्यवहार करना है, और हममें से कुछ छोटे बालक थोड़े-से घी तथा मसाले से कड़ाही में उन गौरेयों को स्वादिष्ट व्यंजन में बदल देते थे.

नौ या दस वर्ष की उम्र में, इसी अवधि मेँ, मैंने अपना प्रथम पक्षी-नोट लिखा था. खेतवाड़ी अस्तबल में गौरेया के शिकार की एक घटना इसका विषय थी. दीवार में लकड़ी की खूटियां ठोंकी गई थीं ताकि (अश्व) साज़ उन पर टांगे जा सकें. उनमें से एक खूंटी निकल आई थी, इसलिए घोंसला बनाने के लिए एक सुराख़ उपलब्ध था. एक मादा गौरेया का उसमें घोंसला बनाने की घटना का वर्णन किया गया था. लगभग साठ वर्ष पश्चात जब यह खोजा गया तब अनगढ़ तथा अपूर्ण होने के बावजूद उस नोट का सारांश ‘पंछिनिहारकों के लिए समाचारपत्रक’ (‘न्यूज़लेटर फ़ॉर बर्डवाचर्स”) में प्रकाशित होने योग्य पाया गया, जो थोड़े-बहुत मूल रूप में इस प्रकार है :

‘1906/07 जब मादा अंदर अंडों पर बैठी थी तब एक नर गौरेया सूराख़ के पास कील पर बैठा था. मैंने अस्तबल में खड़ी गाड़ी के पीछे से उस नर को मारा. थोड़ी ही देर में, उस मादा ने एक अन्य नर को बुला लिया. वह नर भी पहरेदार की तरह कील पर बैठा. मैंने उस नर को भी मार दिया. थोड़ी देर में उस मादा के पास एक और नर था जो फिर पहरे पर बैठा. मैंने उस नर को भी मारा. अगले सात दिनों में मैंने उस स्थान पर आठ नर गौरयों को मार गिराया; और प्रत्येक बार उस मादा को एक नर मिल जाता, मानो नर उसके लिए हमेशा तैयार रहते थे जो मृत पति का स्थान ग्रहण कर लेते थे.’

मुझे इस नोट पर गर्व है. यद्यपि यह नोट मेरी शिकार-प्रतिभा का अभिलेख था, और इसके अन्य उपयोगों की संभावनाओं को समझने की शक्ति भी मुझमें उस समय नहीं थी, पर आज के व्यवहार संबंधी अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है.

(डॉ.सालिम अली की आत्मकथा ‘द फ़ॉल ऑफ़ ए स्पैरो’ का हिंदी अनुवाद विश्वमोहन तिवारी ने किया है. नेशनल बुक ट्रस्ट से छपे इसी अनुवाद ‘एक गौरेया का गिरना’ से साभार.)


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