शैलेंद्र | राजकपूर के पुश्किन और आम आदमी की आवाज़

  • 4:12 pm
  • 30 August 2020

फ़िल्मी गीतों की मार्फ़त ही शैलेंद्र को पहचानने वाले मुमकिन कि यह न जानते हों कि बरसों से सड़कों पर जो नारे वे सुनते आए हैं, दीवारों पर पढ़ते आए हैं, उनमें से कितने ही शैलेंद्र की देन हैं – ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..’ या फिर ‘क्रांति के लिए उठे क़दम, क्रांति के लिए जली मशाल!’ पहले इप्टा और फिर इप्टा ज़रिए ही वे फ़िल्मों तक गए. इप्टा का थीम साँग ‘तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर…’ भी उनका ही लिखा हुआ है.

शैलेन्द्र की कविताओं में, उनके गीतों में सामाजिक यथार्थ के दृश्य बहुतायत में मिलते हैं और दलितों, शोषितों, पीड़ितों, वंचितों के प्रति पक्ष में आवाज़ भी. एक दौर में आजीविका के लिए उन्होंने रेलवे में छोटी-मोटी नौकरी की थी. लिहाज़ा मजदूरों—कामगारों की तकलीफ़ों को वह करीब से जानते थे. और यह सब उनके कवि मन को किस तरह प्रभावित करते थे, यह उनकी ज़बानी, ‘‘मशीनों के तानपूरे पर गीत गाते हुए भी सामाजिक विषमता पर नज़र जाए बिना न रह सकी. तनख़्वाह के दिन (नौ या दस तारीख़ को) कारख़ाने के दरवाज़े पर जहां मिठाई और कपड़े की दुकानों का मेला लगता था, वहां पठान और महाजन अपना सूद ऐंठ लेने के लिए खड़े रहते थे. आदमी निकला और गर्दन पकड़ी. देश के बहुत से लोग उधार और मदद पर ही ज़िंन्दगी गुज़ार रहे हैं. ग़रीबी मेरे देश के नाम के साथ जोंक की तरह चिपटी है. नतीजा, हम सब एक हो गए – कवि, मैं और मेरे गीत और विद्रोह के स्वर गूंजने लगे. पचास-पचास हज़ार की भीड़ के बीच. सभाओं और जुलूसों में गाये हुए इस काल के गीत, ‘नया साहित्य’ और ‘हंस’ में छपी इस काल की कविताएं अति उग्रवादी अवश्य थीं, लेकिन इनके माध्यम से जनजीवन और रुचि को समझने का अवसर मिला. जनजीवन के पास रहने की आदत पड़ी, जो कालान्तर में फ़िल्मी गीतकार की हैसियत से बहुत काम आयी.’’
(‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ धर्मयुग में प्रकाशित शैलेन्द्र का आत्मपरिचय)

नौकरी और मजदूर आंदोलनों में व्यस्तता के बावजूद शैलेन्द्र ने देशी और विदेशी भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का लगातार अध्ययन किया. संस्कृत, अंग्रेज़ी, गुजराती, मराठी, बंगला, पंजाबी, रूसी आदि चौदह भाषाएं सीखीं और उनका साहित्य पढ़ा. मार्क्सवादी विचारकों और रूसी साहित्य से वह बेहद प्रभावित थे. इससे मिली दृष्टि उनके गीतों में साफ़ नज़र आती है. सर्वहारा का दुःख, उनका अपना दुःख हो गया. इस दरमियान उन्होंने जो भी गीत लिखे, जन आंदोलनों में नारे की तरह इस्तेमाल होने लगे – ‘हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..’, ‘क्रांति के लिए उठे क़दम, क्रांति के लिए जली मशाल!’, ‘झूठे सपनों के छल से निकल, चलती सड़कों पर आ!’ ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में…’ में तो मजदूर आंदोलनों का लोकप्रिय गीत बन गया. गीत की घन-गरज महसूस करने के लिए इसके बोल देखिए, ‘हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है/ तुमने मांगें ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा/ छीना हमसे अनाज सस्ता, तुम छंटनी पर हो आमादा/ तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है….मत करो बहाने संकट है, मुद्राप्रसार इन्फ्लेशन है/ यह बनियों चोर लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है/ बगलें मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज्य तुम्हारा है/ हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है.’

‘न्यौता और चुनौती’ उनका अकेला कविता संग्रह है, जिसमें उनकी 32 कविताएं और जनगीत संकलित हैं. यह संकलन मराठी के जनकवि अन्नाभाऊ साठे को समर्पित है. इसकी ज्यादातर कविताएं और गीत जन आंदोलनों के प्रभाव में लिखे गए हैं. इन गीतों में कोई बड़ा विषय और मुद्दा जरूर मिलेगा. शैलेन्द्र की कविता और गीतों की सम्यक विवेचना करें, तो उन्हें दो हिस्सों में बांटना होगा. पहला, परतंत्र भारत का है. जहां वे अपने गीतों से देशवासियों में क्रांति की अलख जगा रहे हैं. उन्हें अहसास दिला रहे हैं कि उनकी दुर्दशा के पीछे कौन ज़िम्मेदार है. अपने ऐसे ही एक गीत ‘इतिहास’ में वे साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत में मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के बारे में लिखते हैं, ‘खेतों में खलिहानों में/ मिल और कारख़ानों में/ चल-सागर की लहरों में /इस उपजाऊ धरती के/ उत्तप्त गर्भ के अंदर/ कीड़ों से रंगा करते/ वे खून पसीना करते!’ और आगाह भी करते हैं, ‘निर्धन के लाल लहू से/ लिखा कठोर घटनाक्रम/ यों ही आये जायेगा/ जब तक पीड़ित धरती से/ पूंजीवादी शासन का/ नत निर्बल के शोषण का/ यह दाग न धुल जायेगा/ तब तक ऐसा घटनाक्रम/ यों ही आये-जायेगा/ यों ही आये-जायेगा !’

संग्रह के पहले हिस्से में शैलेन्द्र की कुछ भावुक कविताएं ‘जिस ओर करो संकेत मात्र’, ‘उस दिन’, ‘निंदिया’, ‘यदि मैं कहूं’, ‘क्यों प्यार किया’, ‘नादान प्रेमिका’, ‘आज’, ‘भूत’ शामिल हैं. ये साधारण प्रेम कविताएं हैं. इन्हें लिखते समय वह 23-24 साल के रहे होंगे. जैसे-जैसे वह वैचारिक तौर पर परिपक्व होते गए, उनके गीतों की भावभूमि बदलती गई. करोड़ों-करोड़ लोगों के साथ देश की आज़ादी का स्वागत करते हुए वह लिखते हैं – ‘जय जय भारतवर्ष प्रणाम/ युग युग के आदर्श प्रणाम!/ शत शत बंधन टूटे आज/ बैरी के प्रभु रूठे आज/ अंधकार है भाग रहा/ जाग रहा है तरूण विहान!’ आज़ादी के बाद देशवासियों को लगता था कि अपनी सरकार आने के बाद उनके दुःख-दर्द दूर हो जाएंगे. ऊंच-नीच और भेदभाव ख़त्म हो जाएगा. कोई भूखा और बेरोजगार नहीं रहेगा. सभी के हाथों को काम मिलेगा. लेकिन ये उम्मीदें, सपने जल्दी ही चूर हो गए. शैलेन्द्र का दिल तड़प उठा. उनके गीत जो कल तक अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ आग उगलते थे, उनके निशाने पर अब देशी हुक्मरान आ गए. ‘आज़ादी की चाल दुरंगी/ घर-घर अन्न-वस्त्र की तंगी/ तरस दूध को बच्चे सोये/ निर्धन की औरत अधनंगी/ बढ़ती गई गरीबी दिन दिन/ बेकारी ने मुंह फैलाया!’ लिखते हैं, ‘संघ खुला, खद्दर जी बोले/ आओ तिनरंगे के नीचे!/ रोटी ऊपर से बरसेगी/ करो कीर्तन आंखें मींचे/ तुमको भूख नहीं है भाई/ कम्युनिस्टों ने है भड़काया!’

वह विरोध ही नहीं करते, बल्कि जनता को विकल्प भी सुझाते हैं. जनता का आहृन करते हुए लिखते हैं, ‘उनका कहना है: यह कैसे आज़ादी है/ वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है/ तुम किसान-मजदूरों पर गोली चलवाओ/ और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ/ तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो/ तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छांटो / हमें न छल पायेगी यह कोरी आज़ादी/ उठ री, उठ, मजदूर किसानों की आबादी!’ वामपंथी विचारधारा से जुड़े तमाम बुद्धिजीवियों की तरह शैलेन्द्र का भी मानना था कि देश की आज़ादी अधूरी है. ‘ढोल बजे एलान हुआ, आज़ादी आई/ ख़ून बहाये बिना लीडरों ने दिलवाई/ ख़ुश होकर अंगरेजों ने दी नेताओं को/ सत्य अंहिसावादी वीर विजेताओं को/…..‘वही नवाब, वही राजे, कुहराम वही है/ पदवी बदल गई है, किंतु निजाम वही है/ थका पिसा मजदूर वही, दहकान वही है/ कहने को भारत, पर हिंदुस्तान वही है/ बोली बदल गयी है, बात वही है सारी/ हिज़ मैजेस्टी छठे जार्ज की लंबरदारी/ कॉमनवैल्थ कुटुम्ब, वही चर्चिल की यारी/ परदेशी का माल सुदेशी पहरेदारी !

शैलेन्द्र के गीतों में गजब की लय और भाषा की रवानी है. इन गीतों में कहीं-कहीं ऐसा व्यंग्य है, जो उनके गीतों को धारदार बनाता है. शैलेन्द्र अपने गीतों में घुमा फिराकर नहीं, सीधे-सीधे बात करते हैं. इस साफगोई से कहीं-कहीं उनकी भाषा और भी ज्यादा तल्ख़ हो जाती है. मसलन ‘लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मजदूरों का/ हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मजदूरों का/ एक बार इन गंदी गलियों में भी आओ/ घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहां भी जाओ!’ अपने गीतों में वह आम आदमी के दुःख-दर्द, भावों की सटीक अभिव्यक्ति के बारे में उनका कहना था, ‘कलाकार कोई आसमान से टपका हुआ जीव नहीं है, बल्कि साधारण इंसान है. यदि वह साधारण इंसान नहीं, तो जनसाधारण के मनमानस के दुख-सुख को कैसे समझेगा और उसकी अभिव्यक्ति कैसे करेगा?’

राज कपूर से उनकी मुलाक़ात और फ़िल्मों में जाने का क़िस्सा यूं है कि बंबई में इप्टा ने एक कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र अपना गीत ‘जलता है पंजाब साथियो…’ पढ़ रहे थे. सुनने वालों में राज कपूर भी थे. उन्हें यह गीत बेहद पसंद आया. सम्मेलन के बाद वह शैलेन्द्र से मिले और उन्हें अपनी फ़िल्म में गाने लिखने की पेशकश की. मगर शैलेंद्र ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि ‘मैं पैसे के लिए नहीं लिखता. कोई ऐसी बात नहीं है, जो मुझे आपकी फ़िल्म में गाना लिखने के लिए प्रेरणा दे.’ बहरहाल एक वक्त ऐसा भी आया, जब शैलेन्द्र को पारिवारिक मजबूरियों के चलते पैसे की बेहद ज़रूरत आ पड़ी तो मदद के लिए वह राज कपूर के पास पहुंचे. फ़िल्म में गाने लिखना उन्होंने मंजूर कर लिया.

राज कपूर उस वक्त ‘बरसात’ बना रहे थे. उसके छह गीत हसरत जयपुरी लिख चुके थे, दो गानों की और ज़रूरत थी, जो शैलेन्द्र ने लिखे. एक तो फ़िल्म का शीर्षक गीत ‘बरसात में हम से मिले तुम…’ और दूसरा ‘पतली क़मर है, तिरछी नज़र है..’. 1949 में आई ‘बरसात’ के इन दो गीतों ने उन्हें रातों-रात देश भर में मकबूल बना दिया. राज कपूर और शैलेंद्र की जोड़ी ने आगे चलकर फ़िल्मी दुनिया में नया इतिहास रचा. उनके बीच आत्मीयता का अलग ही रिश्ता बना. राज कपूर उन्हें पुश्किन या कविराज के नाम से पुकारते.

फ़िल्मों में मसरुफ़ियतों के चलते शैलेन्द्र अदबी काम ज्यादा नहीं कर पाए, लेकिन उनके फ़िल्मी गीतों को कमतर नहीं माना जा सकता. इन गीतों में भी काव्यात्मक भाषा और आम आदमी से जुड़े उनके सरोकार साफ़ दिखाई देते हैं. गीत फ़िल्म के लिए ही सही मगर उन्होंने किसी स्तर पर समझौता नहीं किया. उनके बारे में भीष्म साहनी का कहना था, ‘शैलेन्द्र के आ जाने पर (फ़िल्मी दुनिया में) एक नई आवाज़ सुनाई पड़ने लगी थी. यह आज़ादी के मिल जाने पर, भारत के नए शासकों को संबोधित करने वाली आवाज़ थी. इसके तेवर ही कुछ अलग थे. बड़ी बेबाक, चुनौती भरी आवाज़ थी. इसमें दृढ़ता थी. जुझारूपन था. पर साथ ही इसमें अपने देश और देश की जनता के प्रति अगाध प्रेमभाव था…..साथ ही साथ शासकों से दो-टूक पूछा भी गया था, ‘लीडरो न गाओ गीत राम राज का/ इस स्वराज का क्या हुआ किसान, कामगार राज का.’

शैलेन्द्र का दिल वाकई गरीबों के दुःख-दर्द और उनकी परेशानियों में बसता था. उनकी रोजी-रोटी के सवाल वे अक्सर अपने फ़िल्मी गीतों में उठाते थे. ‘उजाला’ में उनका एक गीत है, ‘सूरज ज़रा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम/ ऐ आस्मां तू बड़ा मेहरबां, आज तुझको भी दावत खिलाएंगें हम.’ वहीं ‘मुसाफ़िर’ के गीत में फिर रोटियों की बात करते हुए कहते हैं, ‘क्यों न रोटियों का पेड़ हम लगा लें/ रोटी तोड़ें, आम तोड़ें, रोटी-आम खा लें.’ उन्होंने अपनी ज़िंदगी में भूख और ग़रीबी को क़रीब से देखा था. वह जानते थे कि आदमी के लिए उसके पेट का सवाल कितना बड़ा है. रोजी-रोटी का सवाल पूरा होने तक, ज़िंदगी के सारे रंग, उसके लिए बदरंग हैं.

‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘आह’, ‘बूट पॉलिश’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’ तीसरी कसम, बसंत बहार, दो बीघा जमीन, मुनीमजी, मधुमति, यहूदी, छोटी बहन, बन्दिनी, जंगली, जानवर, गाइड, आह, दिल अपना और प्रीत पराई, काला बाजार, सीमा, पतिता, छोटी-छोटी बातें और ब्रह्मचारी आदि फ़िल्मों में उनके कभी न भुलाए जाने वाले गीत हैं. उन्होंने 28 अलग-अलग संगीतकारों के साथ काम किया. उसमें सबसे ज्यादा 91 फिल्में शंकर-जयकिशन के साथ कीं. ‘बरसात’ (1949) से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) तक राज कपूर की सभी फ़िल्मों के शीर्षक गीत उन्हीं ने लिखे.

शैलेन्द्र की मौत के बाद एक इंटरव्यू में राज कपूर ने कहा था, ‘शैलेन्द्र की रचना में उत्कृष्टता और सहजता का यह दुर्लभ संयोग उनके व्यक्तित्व में निहित दृढ़ता और आत्मविश्वास से सम्बद्ध है. साथ ही उनके गीतों में ऊंचा दर्शन था, सीधी भाषा.’ यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि ‘आवारा’ का शीर्षक गीत शैलेन्द्र ने कहानी सुने बिना ही लिख दिया था. गाना राज कपूर को सुनाया, तो उन्होंने इसे नामंज़ूर कर दिया. फ़िल्म जब पूरी बन गई, तो राज कपूर ने यह फिर गीत सुना और ख्वाजा अहमद अब्बास को भी सुनाया. गाना सुनने के बाद अब्बास साहब की राय थी कि यह तो फ़िल्म का मुख्य गीत होना चाहिए. यह बात अब इतिहास है कि फ़िल्म जब रिलीज़ हुई, तो यह गीत सरहदें लांघकर दुनिया भर में मकबूल हुआ. राज कपूर जहां कहीं जाते, लोग उनसे इसी गीत की फ़रमाइश करते.

शैलेन्द्र, फ़िल्मों में देश की गरीब अवाम के जज़्बात अल्फ़ाज़ में पिरोते. यही वजह है कि उनके गाने आम लोगों में ख़ूब पसंद किए जाते. लोगों को लगता था कि कोई तो है, जो उनके दुःख-दर्द को अपनी आवाज़ देता है. बासु भट्टाचार्य की पत्नी रिंकी भट्टाचार्य की राय थी, ‘वो ग़रीबी का महिमा मंडन नहीं करते थे, न ही दर्द को सहानुभूति पाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर जताते थे. उनके गीतों में घोर निराशा भरे अंधकार में भी जीने की ललक दिखती थी. जैसे उनका गीत, ‘तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन कर..’

फ़ोटो | शैलेंद्र पर इंडियन पोस्ट के डाक टिकट से

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