राज कपूर | उम्मीदों की दुनिया बसाने वाला ‘आवारा’ शोमैन

  • 10:05 am
  • 2 June 2020

फ़िल्मकार-लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने एक इंटरव्यू में ख़्रुश्चेव से पूछा था कि उनके देश में ‘आवारा’ की असाधारण लोकप्रियता की क्या वजह है?  ख़्रुश्चेव का जवाब था, ‘रूस ने विश्व युद्ध की मार काफ़ी ज्यादा झेली है, उसमें बेहिसाब रूसी फ़ौजी मारे गए थे. रूसी फ़िल्मकारों ने युद्ध पर बड़ी फ़िल्में बनाई हैं लेकिन उन्होंने सिर्फ़ त्रासदी को सामने रखा. जबकि ख़ुशदिल राज कपूर ने नई ज़िंदगी की उम्मीद के साथ फ़िल्म बनाई जो लोगों में नए किस्म का हौसला जगाती है.’

रूस के अलावा चीन, अफ़्रीका, खाड़ी के देशों और पूर्वी एशिया में ख़ूब मकबूल हुई ‘आवारा’ हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास में मील का पत्थर बनी और इसके निर्माता-निर्देशक राज कपूर भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री के पहले शोमैन कहलाए. हिन्दुस्तानी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चर्चा के केंद्र में लाने वाले फ़िल्मकार! उनकी फ़िल्में यथार्थ और रोमांच के बीच की रेखा पर चलतीं. संगीत वहां जादू और हकीकत के बेमिसाल रंगों के साथ मौजूद रहता. सिनेमैटोग्राफ़ी का जलवा अलग. और यह मिलकर राज कपूर बनते थे…जिन्होंने बरसों देश-दुनिया के सिनेमा प्रेमियों के दिलों पर राज किया.

1948 में आई ‘आग’ राज कपूर की पहली बड़ी फ़िल्म थी. यह फ़िल्म उन्होंने शुरू तो कर ली लेकिन पास की सारी पूंजी चुक गई तो कार गिरवी रख दी, अपने नौकर से उधार लेकर यूनिट के लिए चाय-पानी और खाने का बंदोबस्त किया. उनकी मां उन दिनों उनके पिता पृथ्वीराज कपूर से अक्सर पंजाबी में व्यंग्य से कहा करती थीं कि यह थूक में पकौड़े तलने का ख़्वाब देख रहा है. लेकिन पिता को उनकी सामर्थ्य पर पूरा यक़ीन था. वह कहा करते कि यह फ़िल्म पूरी करेगा और इसे यक़ीनन कामयाबी मिलेगी. इसके पास विश्वास और दृढ़ता है, जो सबसे बढ़कर है. मुहूर्त से लेकर फ़िल्म की रिलीज़ तक राजकपूर तमाम मुश्किलों से गुज़रे. ‘आग’ पूरी हुई तो राज कपूर उसे डिब्बों में भरकर वितरकों के दफ़्तर के चक्कर लगाने लगे. हर जगह नाउम्मीदी मिलती और एक ही जवाब कि यह फ़िल्म नहीं चलेगी. आख़िरकार एक ऐसा वितरक तैयार हुआ, जिसने फ़िल्म देखे बग़ैर उसे रिलीज़ करने का निर्णय लिया. यह कहकर कि ‘मैं फ़िल्म को नहीं, आदमी को सहारा दे रहा हूं.’ चांदी के एक रुपए के सिक्के में सौदा तय हो गया. ‘आग’ को अंततः बड़ा पर्दा नसीब हुआ और सिनेमा शाहकार का शानदार दर्जा भी. राज कपूर पर एक बड़ा असर यह भी हुआ कि आदमी की क़द्र करने की एक नई निगाह उन्हें हासिल हुई.

1949 में जब ‘बरसात’ आई तो आर.के. फिल्म्स का मशहूर ‘लोगो’ भी आया. इस फ़िल्म ने उनकी पिछली फ़िल्म की कमी और घाटे को पूरा किया. बॉक्स ऑफिस पर यह बेहद कामयाब रही. ‘बरसात’ से कई और हस्तियों के अपने करिअर का आगाज हुया. शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र, निम्मी और रामानंद सागर. लता मंगेशकर की आवाज़ राज साहब की फ़िल्मों के लिए बाद में अपरिहार्य हो गई, लेकिन शुरुआत ‘बरसात’ से ही हुई.

‘आवारा’ (1951) ने उन्हें सरोकार वाले फ़िल्मकार के तौर पर पहचान दी. अवामी सरोकार और पूरा एक युग तथा आजादी के बाद की आशाएं-अपेक्षाएं इस फ़िल्म की थीम हैं. तीस के दशक से 50 के दशक तक भारतीय सिनेमा में धीरे-धीरे यथार्थ आने लगा था. सबसे सशक्त होकर आया ‘आवारा’ में‌. इसका एक गीत ‘मुझको चाहिए बहार…’ आमजन के दिल की आवाज़ की अभिव्यक्ति लगा. वह नेहरूवाद का दौर था और दुनिया के नक्शे पर साम्यवाद का अलग दबदबा. ख़ासतौर से रूस में ‘आवारा’ बहुत लोकप्रिय हुई. यूं नेहरू की सिनेमा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी मगर रूस से लौटकर एक बार जब पृथ्वीराज कपूर से मिले तो पहला सवाल यही किया – “यह ‘आवारा’ कौन-सी फ़िल्म है, जो आपके बेटे ने बनाई है? स्टालिन ने कई बार मुझसे इस फ़िल्म का ज़िक्र किया.” बाद में नेहरू ने ‘आवारा’ देखी और उसके बाद की फ़िल्में भी.

‘आवारा’ के बाद ‘आह’ (1953), ‘बूट पॉलिश’ (1954), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956), ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ (1957), ‘जिस देश में गंगाा बहती है’ (1960), ‘संगम’ (1964), ‘मेरा नाम जोकर’ (1970), ‘कल आज और कल’ (1971), ‘बॉबी’ (1973), ‘धर्म-कर्म’ (1975), ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ (1978), ‘प्रेम रोग’ (1982), ‘राम तेरी गंगा मैली’ (1985) उनके निर्देशन और प्रोडक्शन से आईं. इन तमाम फ़िल्मों में ज़माने के बदलते रंगो-ओ-मिज़ाज देखने को मिलते हैं, साथ ही फ़िल्म देखने वाली नई पीढ़ियों की दिलचस्पी-उम्मीदें बदलने का इरादा भी.

फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने कभी राज कपूर की बाबत कहा था, ‘उन्होंने मेरी फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ देखी और इतने प्रभावित हुए कि कई बार मुझसे कहा कि मैं उनके लिए कुछ करूं लेकिन यह प्रस्ताव मैं इसलिए भी स्वीकार नहीं कर पाया कि इसके लिए मुझे हिन्दी में काम करना पड़ता. मैंने उनकी फ़िल्म ‘आग’ देखी तो पाया कि वह बेहद प्रतिभावान हैं. मुझे ‘श्री 420′ सबसे अच्छी फ़िल्म लगती थी. मेरे लिए उनके मन में अति स्नेह था और वह मेरा आदर करते थे. उनके भारतीय सिनेमा को दिए गए अंशदान के बारे में, मैं समझता हूं कि वह एक अत्यधिक कुशल कृतिकार और मास्टर शौमैन थे.’

राज कपूर की फ़िल्मों का संगीत पक्ष भी बड़ी ताकत बना. शैलेंद्र, मुकेश और शंकर-जयकिशन उनके क़रीबी दोस्त थे और उम्र भर आर.के. फिल्म्स से जुड़े भी रहे. इन चारों के बग़ैर शोमैन ख़ुद को अधूरा मानते थे. हसरत जयपुरी, राम गांगुली, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और रविंद्र जैन ने भी उनकी कई फिल्मों में काम किया.  आर.के.स्टूडियो के आगे बना कॉटेज उनका सामान्य कार्यस्थल था. इसे राज कपूर ने स्टूडियो से भी पहले बनवा लिया था, जहां वह ज़मीन पर आलथी-पालथी मार कर बैठते थे. कॉटेज देख चुके लोगों के मुताबिक, कॉटेज की दीवारों पर दुनिया के तमाम धर्मों के देवताओं और पैगंबरों,  ‘आवारा’ में नरगिस की, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में पद्मिनी की और ‘संगम’ में वैजयंती माला की तस्वीरें टंगी होती थीं. कुछ ऐसे फोटो भी जिनमें वह शैलेंद्र, शंकर-जयकिशन, मुकेश और लता मंगेशकर के साथ नज़र आते.

दादा साहब फाल्के पुरस्कार के साथ ही उन्हें सोवियत लैंड-नेहरू अवॉर्ड, पद्मभूषण, ग्रां प्रिक्स और तमाम राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार शामिल हैं.  स्कूल में बेशक राज कपूर मैट्रिक से आगे नहीं जा पाए मगर ख़ुद फ़िल्म की दुनिया का ऐसा बड़ा स्कूल बने, जिसने कितनों को लायक़ बनाया, सिखाया, शोहरत दिलाई.


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