ख़ुमार बाराबंकवी | मुशायरों की ज़ीनत और आबरू-ए-ग़ज़ल

  • 11:07 am
  • 15 September 2020

एक दौर था जब ख़ुमार बाराबंकवी के क़लाम का नशा उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलता था. जिन्होंने मुशायरों में उन्हें रु-ब-रु देखा-सुना है या उनके पुराने वीडियो देखे हैं, वे ख़ुमार के जादू से ज़रूर वाक़िफ़ होंगे. मुल्क की आज़ादी के ठीक पहले और उसके बाद जिन शायरों की बदौलत मुशायरे आलमी तौर पर मकबूल हुए, उनमें ख़ुमार बाराबंकवी का नाम सबसे ऊपर है. वह मुशायरों की ज़ीनत थे और आबरु-ए-ग़ज़ल कहे जाते.

सन् 1938 में मोहम्मद हैदर की उम्र 19 साल थी, जब ख़ुमार बाराबंकवी के नाम से उन्होंने बरेली में पहली बार मुशायरे में शिरकत की. पहले ही शे’र ‘वाक़िफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से/ इस राज़ को पूछो किसी बर्बाद नज़र से.’ पर उन्हें स्टेज पर बैठे उस्ताद शायरों और सामयीन की भरपूर दाद मिली. शायरी की दुनिया के एक लंबे सफ़र का यह आगाज़ भर था. मुशायरों में वह तहत के बजाय तरन्नुम में पढ़ते. उस दौर के ज्यादातर शायर तरन्नुम में ही ग़ज़लें पढ़ा करते. यह रिवाज़ आम रिवाज था, तो ख़ुमार भी उसी राह चले. उनकी आवाज़ और तरन्नुम गजब का था. जिस पर ग़ज़ल पढ़ने का उनका जुदा अंदाज़, हर मिसरे के बाद आदाब कहने की उनकी दिलफ़रेब अदा, उन्हें दूसरे शायरों से अलग करती. इश्क-मोहब्बत, मिलन-जुदाई के नाज़ुक अहसास में डूबी ख़ुमार की ग़ज़लें लोगों पर जादू-सा असर करतीं. अपनी सादा ज़बान की वजह से भी वह बहुत मकबूल हुए. उनके पूरे क़लाम को देखें तो मालूम होगा कि अपनी ग़ज़लों में अरबी, फ़ारसी के कठिन अल्फ़ाज़ उन्होंने न के बराबर इस्तेमाल किए हैं. उनकी ग़ज़लों के ऐसे कई शे’र मिल जाएंगे, जो अपनी सादा ज़बान की वजह से ही मशहूर हुए और आज भी हैं. ‘न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है/ दिया जल रहा है हवा चल रही है’, ‘कोई धोका न खा जाए मेरी तरह/ ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिए.’

वह दौर था, जब जिगर मुरादाबादी और ख़ुमार बाराबंकवी के बग़ैर मुशायरे का ख़्याल नहीं किया जा सकता था. लोग इन्हें ही मुशायरे में सुनने आते. फ़िल्मी दुनिया में भी उस वक़्त उर्दू ज़बान और उसके अदीबों का बोलबाला था. फ़िल्म निर्माता-निर्देशक और संगीतकारों को अच्छी शायरी की समझ थी. लिहाजा उनकी कोशिश रहती कि उम्दा गीत-संगीत उनकी फ़िल्मों की मार्फ़त अवाम तक पहुंचे. जब भी अदबी फ़लक पर कोई नायाब शायर चमकता, उसे फ़िल्मों के लिए लिखने की दावत दी जाती. ताकि उसकी मकबूलियत का फ़ायदा फ़िल्मों को भी मिले. जोश मलीहाबादी, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, असद भोपाली से लेकर ख़ुमार बाराबंकवी तक इसी तरह फिल्मी दुनिया में पहुंचे.

1945 में एक मुशायरे के सिलसिले में ख़ुमार बाराबंकवी का बंबई जाना हुआ. मुशायरे की इस रंगीन महफ़िल में मशहूर निर्देशक ए.आर. कारदार और नौशाद भी मौजूद थे. इन दोनों ने जब ख़ुमार का क़लाम सुना, तो इतने मुतास्सिर हुए कि फ़िल्म ‘शाहजहां’ के लिए उन्हें साइन कर लिया. इस फ़िल्म के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को पहले ही ले लिया गया था. ‘शाहजहां’ मजरूह सुल्तानपुरी की भी पहली फ़िल्म थी. डायरेक्टर और संगीतकार को एक और गीतकार की तलाश थी, जो ख़ुमार बाराबंकवी पर जाकर ख़त्म हुई.

इस तरह ख़ुमार बाराबंकवी का फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ. 1946 में आई ‘शाहजहां’ अपने गीत-संगीत की वजह से हिट साबित हुई. इस फ़िल्म के नग़्मे ‘चाह बरबाद करेगी’ और ‘ये दिल-ए-बेक़रार झूम कोई आया है’ को ख़ुमार बाराबंकवी ने ही लिखा था. इसके बाद ‘रूपलेखा’, हलचल’, ‘जवाब’, ‘जल्लाद’ ‘दरवाजा’, ‘ज़रा बच के’ ‘बारादरी’, ‘दिल की बस्ती’, ‘आधी रात’, ‘मेहरबानी’, ‘मेहंदी’, ‘महफ़िल’, ‘शहज़ादा’, ‘क़ातिल’, ‘साज़ और आवाज़’ और ‘लव एंड गॉड’ फ़िल्मों में उन्होंने गीत लिखे. और ज्यादातर गाने लोकप्रिय भी हुए. ख़ास तौर से ‘बारादरी’ के गाने ‘भुला नहीं देना, ज़माना ख़राब है’, ‘तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती’, ’दर्द भरा दिल भर-भर आए’, ’आग लग जाए इस ज़िन्दगी को’, ‘मोहब्बत की बस इतनी दास्ताँ है’ और ’आई बैरन बयार, कियो सोलह सिंगार’ ने तो उस वक्त जैसे धूम मचाकर रख दी. उनके लिखे गीतों ‘तुम हो जाओ हमारे, हम हो जाएं तुम्हारे’ (रूपलेखा), ‘लूट लिया मेरा क़रार फिर दिले बेक़रार ने’ (हलचल), ’अपने किए पे कोई परेशान हो गया’ (मेहंदी), ‘सो जा तू मेरे राज दुलारे’, ‘आज ग़म कल ख़ुशी है’ (जवाब) ’एक दिल और तलबगार है बहुत’, ’दिल की महफ़िल सजी है चले आइए’, ’साज हो तुम आवाज़ हूँ मैं’ (साज़ और आवाज़) की भी कोई दूसरी मिसाल नहीं. अपनी बेजोड़ शायरी की वजह से ये गाने ख़ूब पसंद किए गए.

फ़िल्मों में इतनी लोकप्रियता के बावजूद उन्हें फ़िल्मी दुनिया ज्यादा रास नहीं आई. जल्दी ही उन्होंने फ़िल्मों से किनारा कर लिया और फिर पूरी तरह से मुशायरों की दुनिया में आबाद हो गए. अपने इस फ़ैसले के बारे में उन्होंने एक बार कहा था,‘‘मैं लिखता तब हूं, जब ऊपर वाला दिल से रू-ब-रू होता है. जबकि फ़िल्मों में ज़रुरत के हिसाब से लिखना पड़ता है, जो मुझसे नहीं हो पाया.’’ मुशायरे का माहौल उनमें एक नया जोश भरता था. जो उन्हें और बेहतर रचने के लिए प्रेरित करता, जबकि फ़िल्मों में धुन सुनकर उसके माफ़िक़ नग़मे लिखने पड़ते. यह अलग तरह ही रचना-प्रक्रिया है, जिसमें ख़ुमार बाराबंकवी फिट नहीं बैठे.

ख़ुमार बाराबंकवी के क़लाम में ज्यादातर ग़ज़लें हैं. नज़्में उन्होंने न के बराबर लिखीं. मुल्क में जब तरक़्क़ीपसंद तहरीक अपने उरूज़ पर थी और ज्यादातर बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़, जोश मलीहाबादी, फिराक़ गोरखपुरी, मख्दूम नज़्में लिख रहे थे, तब भी ख़ुमार बाराबंकवी ने ग़ज़ल का दामन नहीं छोड़ा. हसरत मोहानी, जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुल्तानपुरी की तरह उनका अक़ीदा ग़ज़ल में ही रहा. अपने शानदार अशआर से उन्होंने ग़ज़ल को अज़्मत बख़्शी. मुशायरें में वह इस अंदाज़ में पढ़ते, जैसे सामयीन से गुफ़्तग़ू कर रहे हों.

उनकी एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़लें हैं, जो आज भी उसी तरह से गुनगुनाई जाती हैं. इन ग़ज़लों की सादा बयानी, उन्हें बाक़ी शायरों से अलग करती है. कुछ अशआर ग़ौर कीजिए, ‘तेरे दर से जब उठके जाना पड़ेगा/ ख़ुद अपना जनाज़ा उठाना पड़ेगा/ अब आँखों को दरिया बनाना पड़ेगा /तबस्सुम का क़र्ज़ा चुकाना पड़ेगा/ ‘ख़ुमार’ उनके घर जा रहे हो तो जाओ/ मगर रास्ते में ज़माना पड़ेगा’, ‘वही फिर मुझे याद आने लगे हैं/ जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं/ सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं /तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं/…क़यामत यक़ीनन क़रीब आ गई है/ ‘ख़ुमार’ अब तो मस्जिद जाने लगे हैं’, ‘बुझ गया दिल हयात बाक़ी है/ छुप गया चाँद रात बाक़ी है / हाल-ए-दिल उन से कह चुके सौ बार/ अब भी कहने की बात बाक़ी है/ न वो दिल है न वो शबाब ‘ख़ुमार’/ किस लिए अब हयात बाक़ी है’, ‘इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए/ दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए/ भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम /क़िस्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हम से पूछिए/ आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए/ अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए/ हम तौबा कर के मर गए बे-मौत ऐ ‘ख़ुमार’/ तौहीन-ए-मय-कशी का मज़ा हम से पूछिए.’

उनकी चार किताबें ‘शब-ए-ताब’, ‘हदीस-ए-दीगरां’, ‘आतिश-ए-तर’ और ‘रक्स-ए-मय’ अवाम में ख़ूब मकबूल रहीं और आज भी हैं. कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में ख़ुमार बाराबंकवी की किताबें पढ़ाई जाती हैं. लंबी बीमारी के बाद 19 फरवरी, 1999 को उनका इंतक़ाल हो गया – ‘अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई ‘ख़ुमार’/ अब मुझ को ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही.’

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