विष्णु प्रभाकर | ‘आवारा मसीहा’ जिनकी पहचान बन गई

  • 1:02 pm
  • 21 June 2020

विष्णु प्रभाकर हिन्दी के उन विरले साहित्याकरों में हैं, जिन्होंने कहानियां लिखीं, उपन्यास, नाटक और यात्रा वृतांत लिखे, ‘अर्द्धनारीश्वर’ के लिए पुरस्कार-सम्मान पाए, आत्मकथा लिखी, जिनकी सौ से ज्यादा किताबें हैं मगर वृहत्तर पाठक वर्ग उन्हें ‘आवारा मसीहा’ के लिए जानता है. शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी – ‘आवारा मसीहा’. बहुतेरे पाठक आज भी पहले ‘आवारा मसीहा’ पढ़ते हैं और फिर शरतचन्द्र के उपन्यास. हिन्दी की यह कालजयी रचना है, जिसके विभिन्न भाषाओं में छपने वाले संस्करण दो सैकड़ा छूने को हैं. विष्णु प्रभाकर की चौदह बरसों की मेहनत के बाद सन् 1974 में यह पुस्तक सम्भव हो सकी.

किताब के बारे में उन्होंने ख़ुद लिखा है – जब पहला संस्करण आया तो मैं मन ही मन डर रहा था कि कहीं बंगाली मित्र मेरी कुछ स्थापनाओं से क्रुद्ध न हो उठें. लेकिन मेरे हर्ष का पार नहीं था,जब सबसे पहला पत्र मुझे एक बंगला भाषा की पत्रिका के संपादक का मिला. उन्होंने लिखा था कि आपने एक अत्यंत महत्वपूर्ण और चिरस्थायी कार्य किया जो हम न कर सके. मैं तो जैसे जी उठा.

‘आवारा मसीहा’ लिखने के लिए उन्होंने सुदूर उन देशों की यात्राएं कीं, जहां शरत गए या रहे थे. शरत के हज़ारों ख़तों और भेंटवार्ताओं को बार-बार पढ़ा. उन लोगों से मिले, जो उनको और उनके जीवन के बारे में जानते थे. इस जीवनी के 1999 के संस्करण की भूमिका में विष्णु प्रभाकर ने लिखा है, “आवारा मसीहा नाम को लेकर काफ़ी ऊहापोह मची. वे-वे अर्थ किए गए जिनकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. मैं तो इस नाम के माध्यम से यही बताना चाहता था कि कैसे एक आवारा लड़का अंत में पीड़ित मानवता का मसीहा बन जाता है. आवारा और मसीहा दो शब्द हैं. दोनों में एक ही अंतर है. आवारा मनुष्य में सब गुण होते हैं पर उसके सामने दिशा नहीं होती. जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है.” इसी भूमिका में उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि इस जीवनी की एक भी पंक्ति कल्पना पर आधारित नहीं है. जितनी जानकारी पाई उतना लिखा. ‘आवारा मसीहा’ का अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिंधी, तेलुगु, गुजराती और रुसी अनुवाद भी ख़ासा मकबूल है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में जिन भारतीय साहित्यिक कृतियों को सबसे ज्यादा पढ़ा और सराहा जाता है, उनमें यह प्रमुख है.

शरतचन्द्र चटर्जी के संपूर्ण कथा साहित्य में स्त्री-पात्रों की अहम भूमिका हैं. विष्णु जी के अधिकांश रचनात्मक लेखन में भी स्त्री-मर्म की विविध छवियां मिलेंगीं. उनके अति महत्वपूर्ण और बहुचर्चित उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर’, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, में स्त्री-पात्र नए जीवट में हैं. उनका कथा लेखन यथार्थ, सपनों और आदर्शवादी स्थितियों का एक सम्मिलन-सा है. बहुधा उनकी रचनाओं का मूल आधार ‘परिवार’ हैं, जिसमें प्राय: सभी आयु वर्ग और लिंग के सदस्य मिलते हैं. घर-आंगन और पड़ोस के ख़ाके पाठकों का मर्म छूते हैं. बच्चों के लिए भी उन्होंने ख़ूब लिखा है.

विष्णु प्रभाकर पर गांधीवाद का गहरा प्रभाव रहा. उनके जीवन और साहित्य में गांधी रचे-बसे रहे. आठ साल की उम्र में उन्होंने खद्दर पहनना शुरू किया था और फिर पूरी उम्र हर मौसम में यही उनका लिबास रहा. अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के दौर में उन्होंने सरकारी नौकरी की तो एक सुपरिंटेंडेंट स्मिथ के वह निजी सहायक थे. अपने बॉस के साथ एक बार वह तत्कालीन अंग्रेज़ गृहमंत्री से मिलने गए. मोटा कुर्ता और मोटी धोती पहनी हुई थी. उनका परिचय यह कहकर कराया गया कि, ‘यह गांधी के भक्त हैं.’ महात्मा गांधी और कस्तूरबा से वह कई बार मिले. जवाहरलाल नेहरु, मीरा बेन, प्यारेलाल और महादेव भाई से भी. उन्होंने कई बार रेखांकित किया कि गांधी और गांधीवाद को समझना इतना आसान नहीं है.

हिसार में रहते हुए उन्होंने नाटक लिखे, और नाटक मंडली में काम भी करते रहे. आज़ादी के बाद जब वह दिल्ली आ गए तो दो बरस तक आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर काम भी किया. दिल्ली की कॉफी हाउस में उनकी बैठकी के कितने ही क़िस्से हैं. इस कॉफ़ी हाउस में साहित्य, कला और सियासत से वाबस्ता कई पीढ़ियों ने उनकी संगत की है. जिस भी मेज़ पर वह बैठते थे, उसे विष्णु प्रभाकर की टेबल कहा जाता था. और जितना भी हो, सबका बिल वह ख़ुद अदा करते थे. पुरानी दिल्ली में अपने घर से कनॉट प्लेस तक हर शाम कॉफी हाउस तक पैदल आना उनकी दिनचर्या में शामिल था. एक दफा वह रविंद्रनाथ टैगोर को पुरानी दिल्ली के कुंडेवलान ले गए. सरोजिनी नायडू भी साथ थीं. वहां गुरुदेव ने तीन कविताएं सुनाईं. सामंतवाद, साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता के घोर विरोधी विष्णु प्रभाकर कभी पंजाब में भगत सिंह और उनकी नौजवान सभा से भी जुड़े रहे थे. इस वजह से उन्हें पुलिस की प्रताड़ना भी सहनी पड़ी.

21 जून 1912 को मुजफ्फरनगर के मीरापुर में जन्मे विष्णु दयाल ने जिन लिखना शुरू किया तो एक सम्पादक के कहने पर उन्होंने अपने नाम के साथ प्रभाकर जोड़ा था.

लघुकथा | फ़र्क़

उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा-रेखा को देखा जाए. जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे. दोनों ओर पहरा था. बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता. दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं. वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था – पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक औऱ उनका कमाण्डर भी. दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, “उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं. पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे.”

उसने उत्तर दिया, “जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूं?” और मन ही मन कहा – मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूं. इतना विवेक मुझमें है.

वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे. रौबीले पठान थे. बड़े तपाक से हाथ मिलाया.

उस दिन ईद थी. उसने उन्हें ‘मुबारकबाद’ कहा. बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले – “इधर तशरीफ़ लाइए. हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए.”

इसका उत्तर उसके पास तैयार था. अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा – “बहुत-बहुत शुक्रिया. बड़ी ख़ुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक़्त बहुत कम है. आज तो माफ़ी चाहता हूँ.”

इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुईं कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचे भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाख़िल हो गया. एक-साथ सबने उनकी ओर देखा. एक क्षण बाद उसने पूछा – “ये आपकी हैं?”

उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के उत्तर दिया -“जी हां, जनाब! हमारी हैं. जानवर हैं, फ़र्क़ करना नहीं जानते. ”


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