शरद जोशी | लिखना जिनके लिए जीने की तरकीब थी

  • 10:52 am
  • 21 May 2020

शरद जोशी ने फ़िल्मों के लिए संवाद लिखे, टेलीविज़न के सीरियल भी लिखे, मंच पर पढ़ते हुए ख़ूब मक़बूल हुए मगर ज़माना उनकी तंज़निगारी का क़ायल हुआ, आज तक है. नवभारत टाइम्स में छपने वाला उनका कॉलम ‘प्रतिदिन’ हिन्दी अख़बारों की दुनिया में अकेली ऐसी मिसाल है कि बहुतेरे लोग सिर्फ़ शरद जोशी को पढ़ने के लिए अख़बार लेते. और अख़बार पीछे की तरफ़ से पढ़ा जाता क्योंकि ‘प्रतिदिन’ की जगह आख़िरी पन्ने पर हुआ करती थी. पीढ़ियों की स्मृति में अख़बार पढ़ने की यह आदत और ‘प्रतिदिन’ अब भी ताज़ा है.

व्यंग्य को ‘विचारहीनता’ के आरोपों की जकड़न से मुक्त कराने में शरद जोशी की बड़ी भूमिका रही है. लेखन में अपने अग्रज परसाई की तरह ही उनका पूरा लेखन व्यंग्य-प्रधान है लेकिन मज़बूत वैचारिक-आधार के साथ. व्यंग्य की भाषा का नया सौंदर्यबोध रचते हुए पढ़ने वालों को बताया कि व्यंग्य हंसने-हंसाने की कवायद नहीं, बल्कि जनपीड़ा की तार्किक अभिव्यक्ति है. भाषा से लेकर विचार तक इसका सरलीकरण आसान हरग़िज़ नहीं है. व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा आम आदमी को ‘बोन्साई’ बनाने वाली सत्ता-संस्कृति के ख़िलाफ़ उनकी क़लम उम्र भर चलती रही. शरद जोशी सहज और बोलचाल के गद्य में ऐसी व्यंजना भरते, जो पाठक के मन-मस्तिष्क को झकझोरती भर नहीं, एक नई सोच भी पैदा करती. अवाम उनके लेखन के केंद्र में था. भ्रष्टाचार, शोषण, विकृति और अन्याय पर चोट करने का कोई मौक़ा वह छोड़ते नहीं थे.

लेखन की शुरुआत उन्होंने ‘नई दुनिया’ से की. यह 1951 की बात है. यशस्वी पत्रकार राजेंद्र माथुर भी उन्हीं दिनों कॉलेज से निकलकर ‘नई दुनिया’ आए थे. बाद में जब राजेंद्र माथुर दिल्ली आए और नवभारत टाइम्स के संपादन का ज़िम्मा संभाला तब तक शरद जोशी भी व्यंग्य की दुनिया में स्थापित हो चुके थे. उन दिनों के अख़बारों में व्यंग्य छपा करते थे, मगर जब-तब या फिर हफ़्तावार कॉलम की शक्ल में. हर रोज़ व्यंग्य की जगह बनाने का विचार राजेंद्र माथुर को आया तो उन्होंने शरद जोशी को यह कॉलम लिखने के लिए कहा. और इस तरह शुरू हुआ ‘प्रतिदिन’ मील का पत्थर साबित हुआ. वह कहीं भी रहे, यह कॉलम उन्होंने अनिवार्य रूप से लिखा. किसी वजह से एकाध बार अगर ‘प्रतिदिन’ नहीं छपा तो देश भर से शिकायतें अख़बार के दफ़्तर में आ गई. राजेंद्र माथुर ख़ुद कहते थे कि शरद जोशी और ‘नवभारत टाइम्स’ एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं. प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि उन्हें रज्जू बाबू (राजेंद्र माथुर) से ईर्ष्या है कि ‘जनसत्ता’ के पास कोई शरद जोशी क्यों नहीं?

शरद जोशी के हिस्से में यह श्रेय भी है कि उन्होंने टिकट ख़रीद कर व्यंग्य सुनने की रवायत चलाई. उनके मित्र प्रो. कांति कुमार जैन के संस्मरणों का एक संग्रह है – ‘लौट कर आना नहीं होगा’. इसमें शरद जोशी पर उनका लंबा संस्मरण है. वह लिखते हैं, “मंच के सामने खड़े हुए शरद के व्यंग्य सुनना एक अनुभव हुआ करता था. उस ज़माने में कवि सम्मेलनों के घटते स्तर को रोकने का ज़बरदस्त काम शरद जोशी के व्यंग्य पाठों ने किया. हिन्दी में टिकट ख़रीदकर व्यंग्य सुनाने की परंपरा शरद ने चलाई. आप सर्कस देखने जाते हैं तो टिकट ख़रीदते हैं, लेखक की रचनाएं बिना दाम छुपाए क्यों सुनना चाहते हैं? शरद का तर्क दमदार था. उसने ख़ूब व्यंग्य पढ़े, ख़ूब पैसा कमाया, ख़ूब लोकप्रियता अर्जित की. हिन्दी के लेखक के भुक्कड़ पुनिया बने रहने का उन्होंने प्रत्याख्यान किया. जैसे कवि सम्मेलनों में कवि बुलाए जाते हैं, वैसे शरद भी बुलाए जाने लगे. शरद का व्यंग्य-पाठ अच्छे से अच्छे कवि के काव्य पाठ पर भारी पड़ता….”

प्रो. जैन का यह कथन भी गौरतलब है, “शरद जोशी जो भी करते, शिद्दत से करते. यदि ‘श’ शरद जोशी का था तो वह शिद्दत का भी था. शरद जोशी ने इरफ़ाना से प्रेम किया. शिद्दत से किया, व्यंग्य लिखे, शिद्दत से लिखे. अफ़सर से शत्रुता निभाई, शिद्दत से निभाई.”

और ख़ुद शरद जोशी कहते, ‘लिखना मेरे लिए जीने की तरकीब है. इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ़ यही कह पाता हूं कि चलो, इतने बरस जी लिया. यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, यह सोचना कठिन है. लिखना मेरा निजी उद्देश्य है.’

शरद जोशी ने कई फ़िल्मों के संवाद और टेलीविज़न धारावाहिकों की स्क्रिप्ट भी लिखीं. उनका लिखा धारावाहिक ‘यह जो है ज़िंदगी’ बेहद लोकप्रिय हुआ. ‘दाने अनार के’, ‘प्याले में तूफ़ान’, ‘सिहासन बत्तीसी’, ‘वाह जनाब’, ‘विक्रम बेताल’ और ‘देवी जी’ सीरियल भी उन्होंने लिखे, जो अपने वक्त में ख़ासे लोकप्रिय हुए.

उज्जैन में 21 मई, 1931 को जन्मे शरद जोशी ने शुरुआती दिनों में मध्य प्रदेश सरकार के सूचना और प्रकाशन विभाग में काम किया, पत्रकारिता की और रेडियो के लिए भी लिखा मगर बाद में स्वतंत्र रूप से लेखन करते रहे. ‘जीप पर सवार इल्लियां’, ‘रहा किनारे बैठ’, ‘मेरी श्रेष्ठ रचनाएं’, ‘पिछले दिनों’, ‘किसी बहाने’, ‘परिक्रमा’, ‘यथासंभव’, ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’, ‘यत्र तत्र सर्वत्र’ और ‘यथासम्भव’ उनकी प्रमुख कृतियां हैं. 1989 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. 5 सितंबर, 1991 को बंबई में उनका निधन हुआ.

सम्बंधित

व्यंग्य | चाचा का ट्रक और हिन्दी साहित्य

व्यंग्य | अतिथि! तुम कब जाओगे


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.