स्मरण | ज़ोहरा जो आपा थीं नानी थीं और कहानी भी

  • 12:22 am
  • 27 April 2020

वह मज़ाक में कहा करती थीं कि दुनिया में सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘एक ज़ोहरा सहगल’ हैं! मगर परिहास में कही गई उनकी इस बात का हकीक़त से गहरा रिश्ता निकला. अभिनय की उनकी प्रतिभा और रचनात्मकता, एक शख़्स के तौर पर उनकी ज़िंदादिली और प्रतिबद्धता ने उन्हें ऐसा ही बेमिसाल साबित किया. कला की दुनिया में अस्सी बरस तक जाने-अनजाने या नैसर्गिक ख़ूबियों के बूते उन्होंने इतना कुछ किया कि जीते-जी किवदंति बन गईं.

साहिबज़ादी ज़ोहरा बेगम मुमताज़ुल्ला ख़ान 1912 में सहारनपुर में पैदा हुई थीं. वालिद उनके रामपुर के रोहिला पठान रहे. चकराता में पली-बढ़ी और स्कूल की पढ़ाई के बाद लाहौर के क़्वीन मैरी कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. उनकी वालिदा ‘अप्रकट प्रगतिशील’ थीं और उनकी ख्वाहिश थी कि उनकी लाडली आला तालीम हासिल करे. क्वीन मैरी कॉलेज में बुर्का अपरिहार्य था. सो किशोर अवस्था से ही कुछ बाग़ी तबियत की ज़ोहरा सहगल ने मजबूरी में बुर्का पहना और फिर छोड़ भी दिया. ज़ाहिर है कि पर्देदारी के उस दौर में मर्द-औरत के बीच बातचीत का रिवाज़ भी नहीं था लेकिन ज़ोहरा बग़ैर सकुचाए पूरे आत्मविश्वास के साथ सबसे बात और बहस करती थीं. वाद-विवाद-संवाद से उन्होंने सामाजिक निषेधों को अपने ढंग से चुनौत से पेश की. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नारीवाद की अवधारणा बाद में आई, ज़ोहरा सहगल पहले ही उसमें ढल चुकी थीं.

लाहौर की पढ़ाई पूरी होने के बाद एडिनबरा में रह रहे उनके मामू ने एक ब्रिटिश अभिनेता के साथ अप्रैंटिस तय की मगर उनकी मामी ने ड्रेस्डेनके बैले स्कूल में दाख़िले का मशविरा दिया. ज़ोहरा ने पहले कभी डांस नहीं किया था, इशलिए वह थोड़ा पसोपेश में थीं. मगर उन्होंने कोशिश की और ड्रेस्डेन (जर्मनी) में विगमैन के बैले स्कूल में उन्हें दाख़िला मिल भी गया. वहां दाख़िला लेने वाली वह पहली भारतीय थीं. वहीं उन्होंने यूरोप का टुअर कर रहे उदय शंकर के ग्रुप क बैले देखा और उनसे मिलकर साथ करने की संशा जताई थी. उदय शंकर ने भी वायदा किया कि वह अपना प्रशिक्षण पूरा कर लें, वह उन्हें अपने ट्रूप में ले लेंगे. 1933 में वह भारत वापस आईं.

उनकी रचनात्मक जिंदगी में ‘भापा’ और ‘दादा’ की अहम भूमिका थी. इस भूमिका को उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी बार-बार रेखांकित किया है. पूरे ऐहतराम के साथ. भापा थे पृथ्वीराज कपूर और दादा उदयशंकर! कला जगत अपनी इन दोनों महान विभूतियों को इसी आत्मीयता से संबोधित करता था. एक उस दौर के रंगमंच का अभिनय-सम्राट था तो दूसरा अभिनय के साथ-साथ नृत्य-कला का विलक्षण साधक. पृथ्वीराज कपूर इप्टा के सिरमौर थे तो उदयशंकर अपनी अतिख्यात बैले संस्था के रहनुमा.

ज़ोहरा सहगल सन् 1935 में उदयशंकर के दल से जुड़ीं. इसी कंपनी में कामेश्वर सहगल भी थे, जिनसे 1942 में उनकी शादी हुई. तभी से वह ज़ोहरा बेगम से ज़ोहरा सहगल हो गईं. उदयशंकर की टीम की सदस्य होकर उन्होंने जापान, जर्मन, फ्रांस, मिस्र और अमेरिका सहित कई यूरोपियन देशों में प्रस्तुतियां दीं तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई. उदयशंकर की नृत्यशाला अल्मोड़ा में थी. वहां उन्होंने प्रशिक्षक का काम भी किया. कुछ समय बाद वह पति कामेश्वर सहगल के साथ लाहौर के जोरेश डांस इंस्टीट्यूट में सह-निर्देशक रहीं. 1947 के विभाजन के वक्त उन्होंने हिंदुस्तान रहना तय किया. प्रगतिशील रुझान ने उन्हें वाया इप्टा पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर से जोड़ा. पृथ्वी थिएटर में वह अभिनेत्री और नृत्य निर्देशिका दोनों थीं. चौदह साल उन्होंने वहां बिताए. इप्टा का बनना और फिर निष्क्रिय हो जाना नजदीक से देखा.

ज़ोहरा सहगल का फ़िल्मी सफ़र ख़्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म ‘धरती के लाल’ से शुरू हुआ. इसके बाद ‘नीचा नगर’ में काम किया. इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली और ज़ोहरा को 1946 में कान फिल्म फेस्टिवल अवॉर्ड मिला. यह उन्हें मिला पहला बड़ा अवार्ड था. तब तक किसी अन्य भारतीय अभिनेत्री को कॉन फिल्म फेस्टिवल अवार्ड नहीं मिला था.

वह इंग्लैंड में बीबीसी टेलीविजन और ब्रिटिश ड्रामा लीग की स्थायी कलाकार रहीं. साथ ही कई अन्य विदेशी फ़िल्मों और धारावाहिकों में अभिनय किया. विदेश में उनके छह नाटक, आठ फ़िल्में और चार टेलीविज़न सीरीज़ विशेष चर्चा में रहे – जिनका ज़िक्र आज भी वहां के सिनेमा और नाट्य पाठ्यक्रमों में होता है. भारत में उन्होंने इब्राहिम अल्काजी, हबीब तनवीर, अमीर रज़ा हुसैन, मदीहा गौहर, रूद्रदीप चक्रवर्ती, एम के रैना, गौहर रज़ा सहित मणि रत्नम, अनुराग बोस, निखिल आडवाणी, बालाकृष्णन, संजय लीला भंसाली, केतन आनंद और आदित्य चोपड़ा आदि के साथ नाटकों-फ़िल्मों में काम किया. 1990 से लेकर 2002 तक उनके दस टेलीविज़न धारावाहिक ख़ूब चर्चा में रहे. दूरदर्शन के दिनों में मुल्ला नसीर की कहानियां सुनाने वाली नानी किसे भूल सकती हैं भला! ज़ोहरा सहगल की कविता में ख़ास दिलचस्पी थी. हिंदुस्तान तथा सुदूर देशों में उन्होंने एकल कविता पाठ के कई कार्यक्रम किए.

सफ़दर हाशमी के साथ उनका गहरा लगाव था. सफ़दर की हत्या के बाद उन्होंने विरोध तथा श्रद्धांजलि सभा में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर प्रतिरोधी नज़्म ‘इंतिसाब’ पढ़ी थी. रंगमंच और सिनेमा में उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें संगीत नाटक अकादमी, (यूनाइटेड किंगडम में बहु सांस्कृतिक फिल्म वे रंगमंच के विकास में उल्लेखनीय योगदान के लिए) नॉर्मन बेटन अवार्ड, आजीवन उपलब्धियों के लिए संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, पद्मश्री तथा पद्म विभूषण उल्लेखनीय हैं.

ज़ोहरा जो आपा थीं नानी थीं और कहानी भी. ज़िंदगी को बिंदास जीने वाली ज़ोहरा आपा की ख़ुशमिज़ाजी और ज़िंदादिली उनके रहते भी प्रेरणा थी और उनके जाने के बाद भी. वह नास्तिक थीं. उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था, “जब मैं मरूं तो मैं नहीं चाहती कि तब किसी तरह का धार्मिक या कला से जुड़ा कार्यक्रम हो. अगर शवगृह के लोग मेरी राख रखने से मना करें तो मेरे बच्चे उसे घर लाकर टॉयलेट में बहा दें…. इससे ज्यादा घिनौना कुछ नहीं हो सकता कि किसी मरे हुए आदमी का कोई हिस्सा किसी जार में रखकर सजाया गया हो. अगर ज़िंदगी के बाद कुछ नहीं है तो फिर किसी चीज़ की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन अगर उसके बाद कुछ है तो… मेरी तथाकथित आत्मा जन्नत में घूमेगी. मैं अपने प्यारे कामेश्वर, अपने बहुत बूढ़े हो चुके अब्बाजान और अपने गुरुओं, जिन्हें मैं बहुत चाहती हूं, दादा (उदयशंकर) और पापा जी (पृथ्वीराज कपूर) से मिलूंगी.”

चार पीढ़ियों के साथ काम करने वालीं ज़ोहरा आपा का देहांत 102 साल की उम्र में 10 जुलाई, 2014 को हुआ. यह युगों की एक महान सहयात्री की विदाई भी थी.

आवरण चित्र| imdb.com से साभार.


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