135 साल की परंपरा है महोबा की रामलीला

कोंच की रामलीला के बारे में बहुत कुछ पढ़ा-सुना था लेकिन जब नौकरी करने महोबा गया तो लोगों से वहां की रामलीला के ख़ूब चर्चे सुने. हालांकि महोबा में छह साल तक रहा मगर उस दौरान रामलीला पर कोई काम नहीं कर सका. इस बार केवल इसीलिए महोबा गया कि 135 साल पुरानी रामलीला के ऐतिहासिक सूत्रों की तलाश कर सकूं.

महोबा की रामलीला की ख़ूबी इसकी ऐतिहासिकता तो है ही, कई और ख़ासियतें भी हैं. मसलन जब तमाम जगहों पर पुरानी रामलीला पेशेवर मंडलियों के बूते चल रही हैं, यहाँ लीला का दायित्व स्थानीय कलाकारों का ही है – मंच से लेकर बैकस्टेज तक सब कुछ वे लोग ही संभालते हैं. समर्पण और प्रतिबद्धता से ही यह संभव हो पाता है.

सबसे पहले महेश्वर दिन तिवारी से भेंट हुई. 78 साल के हो गए हैं, बेसिक शिक्षा परिषद में सहायक अध्यापक के पद से रिटायर हुए हैं. रामलीला से उनका जुड़ाव बचपन से ही रहा है. वर्षों तक उन्होंने रामलीला के मंच पर कई किरदार जिये हैं.

वह 1955 से लगातार रामलीला का हिस्सा बने हुए हैं. बताते हैं कि राम मंदिर में जाकर कलाकारों से जब मिलना-जुलना शुरू किया था तब वह दस साल के थे. इस मेल-जोल और सोहबत का ही असर था कि रामलीला करने की ललक पैदा हुई. वह याद करते हैं कि 1964 में महोबा की रामलीला में आगा हश्र कश्मीरी के लिखे नाटक ‘सीता बनवास’ का मंचन हुआ. तब इसके लिए साढ़े छह आने का टिकट लगा करता था. लोग टिकट लेकर इसे देखने के लिए आते. पूरा पंडाल खचाखच भरा रहता.

चूंकि उनके पास टिकट ख़रीदने के पैसे तो होते नहीं थे, इसलिए उन्होंने दरबान से परिचय बढ़ाया. वह लीला के समय से पहले ही पहुंच जाते और पंडाल के बाहर बैठे दरबान को पानी पिला दिया करते थे. और इस मेहरबानी के बदले में वह उनको लीला देखने के लिए अंदर जाने की इजाजत दे देता था.

रामलीला की शुरुआत 1875 में हुई और 1895 से आज तक यह जन सहयोग से ही चल रही है. उन दिनों रामलीला का कथानक रामयश दर्पण से लिया गया था और प्रस्तुति कवित्त छंद शैली में होती थी. बाद में 1912 के आसपास रामलीला के लिए अपने पाठ तैयार किए गए. इनकी हस्तलिखित प्रतिलिपि अब भी सुरक्षित है, और इसी पाठ के आधार पर आज भी लीला का मंचन होता है.

बक़ौल महेश्वर दिन तिवारी, 1895 के भगवान दास तिवारी ने रामलीला की शुरुआत की. 1940 में बद्री प्रसाद तिवारी ‘धवल जी’ ने यह दायित्व संभाला और लीला को व्यवस्थित स्वरूप जिया. वह ख़ुद भी लीला में शामिल होते और रावण की भूमिका करते थे. रज्जन महाराज के ज़िम्मे सभी कलाकारों को प्रशिक्षित करने का काम था, और बैकस्टेज का ज़िम्मा नर्मदा प्रसाद ओझा संभालते. पात्रों का श्रृंगार भी वही करते थे. उनके बाद मुकुंद लाल तिवारी ‘बब्बा जी’ ने लीला का दायित्व संभाला.

वह बताते हैं कि पंडित शिवचरण लाल तिवारी, भगवानदास तिवारी, मुकुंद लाल तिवारी ‘बापू’ और बाबूलाल तिवारी की सोच और समर्पण से संचालित लीला के मंचन की परंपरा को मौजूदा कलाकारों ने बनाए रखा है. पचास साल पहले रामलीला में शामिल हुए कितने ही कलाकार अब भी समर्पण के भाव से जुटे रहते हैं. रामलीला मैदान में ही एक सभागार रामालय है, जिसमें कलाकारों के अभ्यास के साथ ही दूसरे धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहते हैं. दस दिनों की इस रामलीला में शामिल होने के लिए राम, लक्ष्मण और सीता की भूमिका निभाने वाले पात्र 15 दिनों तक राम मंदिर में ही रहते हैं.

श्री रामलीला न्यास महोबा के सचिव मनोज तिवारी व्यवस्थापकों की चौथी पीढ़ी के उत्तराधिकारी हैं. वह बताते हैं कि उन लोगों ने 1912 का हस्तलिखित साहित्य बाक़ायदा संभाले रखा है. रामलीला के अलग-अलग प्रसंगों की कई प्रतियां हैं और इन्हीं के आधार पर मंचन होता है.

महेश्वर दिन के अनुसार उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रह चुके आर.के. तिवारी और झारखंड में मुख्य सचिव रहे उनके बड़े भाई देवेंद्र तिवारी भी इस रामलीला से जुड़े रहे हैं. वह राम का अभिनय करते थे. महोबा की रामलीला की निरतंरता को प्रभु की कृपा मानने वाले श्री तिवारी का जोश उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी बरक़रार है. उन्हें सारे पाठ कंठस्थ हैं और पूरी लय के साथ उनका पाठ करते हैं.

बदले दौर के लिहाज से उनकी फ़िक्र इस बात को लेकर है कि आने वाली पीढ़ी का अपनी इस परंपरा के प्रति मोह कम हो रहा है. कहते हैं, ‘इसकी वजहें तमाम हो सकती हैं, फिर भी हमारा संकल्प है कि भविष्य में भी लीला की निरंतरता बनाए रखने की कोशिश जारी रखी जाए.’

(कुछ और कलाकारों से बातचीत अगले अंक में)

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