डूरंड कप का सफ़र और नॉर्थईस्ट यूनाइटेड एफ़सी की जीत
अभी बीते शनिवार की शाम कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में फ़ुटबॉल प्रतियोगिता का फ़ाइनल मैच खेला जा रहा था. ये एक शानदार संघर्षपूर्ण मैच था. इस फ़ाइनल में सत्रह बार की विजेता मोहन बागान की टीम और पहली बार फ़ाइनल खेल रही नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड एफ़सी टीम आमने-सामने थीं.
मैच के ग्यारहवें मिनट में ही जेसन कमिंग्स द्वारा पेनाल्टी से किए गए गोल से मोहन बागान की टीम ने एक गोल की बढ़त ले ली. उसके बाद पहले हाफ़ के इंजरी टाइम में सहल अब्दुल समद द्वारा इस सीज़न के पहले गोल की बदौलत उसकी ये बढ़त दोगुनी हो गई.
लेकिन दूसरा हाफ़ पहले हाफ़ का एकदम उलट था. पचपनवें मिनट में मोरक्कन खिलाड़ी अलादीन अजारी ने बागान की बढ़त को कम कर दिया. और फिर तीन मिनट बाद ही युनाइटेड के गुलेरमो ने अजारी के शानदार क्रॉस पर गोल करके स्कोर बराबर कर दिया. नियमित समय में दो-दो गोल की बराबरी पर रहने के कारण मैच का फ़ैसला पेनाल्टी शूटआउट से हुआ. इसमें यूनाइटेड ने चार के मुक़ाबले तीन गोल से जीत हासिल की. भारतीय फ़ुटबॉल के अपेक्षाकृत एक नए और केवल दस साल पुराने फ़ुटबॉल क्लब नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड का ये इस प्रतियोगिता का पहला ख़िताब था.
ये प्रतियोगिता डूरंड कप के नाम से जानी जाती है. एक ऐसी प्रतियोगिता जो भारत की ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे पुरानी और विश्व की तीसरी सबसे पुरानी खेली जा रही प्रतियोगिता है. आज भले ही उसकी वो पहले वाली धज न रही, लेकिन एक ऐसा समय हुआ करता था जब वो देश की सबसे प्रीमियर फ़ुटबॉल प्रतियोगिता में शुमार हुआ करती थी. ऐसी प्रतियोगिता जिसका सिर्फ़ खिलाड़ियों को ही नहीं बल्कि फ़ुटबॉल के चाहने वालों को भी साल भर इंतज़ार रहता. मोहन बागान, ईस्ट बंगाल, मो.स्पोर्टिंग, जेसीटी फगवाड़ा, बीएसएफ़, डेम्पो क्लब जैसी टीमों के समर्थक अपनी टीमों को लेकर खिलाड़ियों से भी ज्यादा उत्साहित रहते.
एक ऐसी प्रतियोगिता जिसका 136 साल लंबा इतिहास है. जिसके साथ भारतीय फ़ुटबॉल की समृद्ध परंपरा है. जिसने तीन अलग-अलग शताब्दियों में भारत में फ़ुटबॉल खेल को बनते भी देखा और इस खेल को बनाया भी और देश में फ़ुटबॉल के स्वरूप निर्धारण में अहम भूमिका भी निभाई. भले ही आज इस प्रतियोगिता की पहले वाली चमक न रह गई हो,लेकिन ये प्रतियोगिता भारतीय फ़ुटबॉल इतिहास का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा है.
प्रतियोगिता जो 1888 में अस्तित्व में आई, समय के घात-प्रतिघात सहती हुई बीसवीं सदी को पार करती है और इक्कीसवीं सदी के चौथाई समय तक का सफ़र तय करती है. इतने पर भी वो मरती नहीं है, ख़त्म नहीं होती. वो अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लड़ती है, संघर्ष करती है और अंततः एक नए स्वरूप में, एक नए कलेवर में, नए समय के अनुरूप ख़ुद को ढालती है, नई ज़िम्मेदारियाँ उठाने के लिए तैयार खड़ी होती है. और ये सब इस बार के सफल आयोजन और इसकी फिर से बढ़ती लोकप्रियता ने हमें बताया.
ऐसा नहीं है कि इसका इतना लंबा सफ़र हमेशा निरापद रहा हो. नहीं, इसकी राह में तमाम अवरोध आए, ये थकी भी, हताश भी हुई, अनेकानेक बदलाव भी झेले, जगहें बदलीं, मंज़िलें बदलीं और विराम भी लिए. अगर कुछ न हुआ तो बस उस यात्रा का कारवां न रुका.
एक ऐसी प्रतियोगिता जिसने भारतीय फ़ुटबॉल को बनते देखा, विकसित होते और बढ़ते देखा. जो उसके उठान की भी साक्षी रही और पतन की भी. जो भारतीय फ़ुटबॉल के आरंभिक काल से अब तक की यात्रा की सबसे विश्वसनीय साथी रही और उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चली. वो जिसने भारतीय खिलाड़ियों को नंगे पैरों और घुटनों से ऊपर धोती पहन कर फ़ुटबॉल खेलते भी देखा और वीएआर वाला समय भी. वो जिसने पैसे की कमी के चलते जूतों के बजाय खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नंगे पैर खेलते हुए भी देखा और खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपयों की बोली लगने वाला आईएसएल लीग का समय भी देखा. वो जिसने नंगे पैर खेलते भारतीय टीम को ओलम्पिक में चौथा स्थान प्राप्त करते और पहले एशियाड में स्वर्ण पदक जीतते भी देखा और करोड़ों के बारे न्यारे होते हुए भी विश्व रैंकिंग में एक सौ पचासवें से भी नीचे के नंबर पर फिसलते हुए भी देखा.
भारत में फ़ुटबॉल खेल का आगमन ब्रिटिश सेना के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ. उस समय भारत में फ़ुटबॉल के लोकप्रिय होने के दो कारक हुए. एक, बंगाली भद्रलोक के नागेंद्र प्रसाद ने 1885 में शोभा बाज़ार क्लब की स्थापना की, जिसने कोलकाता में फ़ुटबॉल को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. इस कारण से उन्हें भारतीय फ़ुटबॉल का पितामह भी माना जाता है. दो, सन् 1888 में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मोर्टिमर डूरंड ने शिमला के पास स्थित छावनी दागशाई में एक प्रतियोगिता शुरु कराई जिसे उनके नाम से डूरंड कप टूर्नामेंट के नाम से जाना गया. ये भारत की पहली आधिकारिक फ़ुटबॉल प्रतियोगिता थी. ये डूरंड वही साहेब थे जिनके नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मध्य विभाजक डूरंड रेखा है.
इस प्रतियोगिता का प्रारंभिक उद्देश्य सेना में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाना था और ये ख़ालिस ब्रिटिश भारतीय सेना के निमित्त थी. 1888 का इसका पहला फ़ाइनल एक स्कॉटिश डर्बी था, जिसमें स्कॉटलैंड की दो टीमें हाइलैंड लाइट इन्फ़ैंट्री और रॉयल स्कॉट्स फ्यूजीलियर्स आमने सामने थीं. मैच स्कॉट्स ने इन्फ़ैंट्री को 2-1 से हराकर जीता.
देश की आज़ादी से पहले तक ये प्रतियोगिता पूरी तरह से ब्रिटिश सेना के लिए बनी रही थी. बस इसमें बाद में सीमांत प्रांतीय रेजीमेंट जैसी कुछ अन्य सैनिक रेजीमेंटों को भी भाग लेने की अनुमति मिली.
ये प्रतियोगिता एक वार्षिक आयोजन था. आरंभ होने के बाद से इसका लगातार प्रतिवर्ष आयोजन होता रहा. लेकिन 1914 से 1919 तक पहले विश्व युद्ध के कारण और फिर 1939 में तथा 1941 से 1949 तक द्वितीय विश्व युद्ध और भारत की आज़ादी और विभाजन जैसी स्थितियों के कारण इसका आयोजन स्थगित रहा. 1940 में जब ज्यादातर रेजीमेंट युद्ध मोर्चे पर भेजी जा चुकी थीं तो इसका आयोजन पहली बार शिमला से हटाकर दिल्ली में किया गया. ये पहला अवसर था जब बहुत सारी रेजीमेंटों की कमी के कारण सिविल टीमों को भी इसमें खेलने का अवसर मिला. और कमाल की बात है कि ब्लैक पैंथर्स के नाम से जाने जानी वाली टीम मोहम्मडन स्पोर्टिग ने ब्रिटिश वर्चस्व ख़त्म करते हुए यह प्रतियोगिता जीत ली. ये पहला अवसर था, जब किसी ग़ैर-सैनिक और भारतीय टीम ने ये प्रतियोगिता जीती थी.
1940 का फ़ाइनल मैच दिल्ली के इर्विन एम्फ़ीथियेटर में खेला गया था जिसे बाद में मेजर ध्यानचंद स्टेडियम के नाम से जाना जाना था. इस मैच में मो.स्पोर्टिंग टीम ने हाफ़िज़ राशिद और साबू के गोलों के मदद से रॉयल वारविकशायर रेजीमेंट की टीम को 2-1 से हरा दिया. इसके बाद अगले नौ सालों तक इस प्रतियोगिता को स्थगित रहना था.
1950 में डूरंड फ़ुटबॉल टूर्नामेंट सोसायटी का अधिकार भारतीय सेना को सौंप दिया गया, जिसके संरक्षण में इस प्रतियोगिता का आयोजन 2006 में उस समय तक होना था, जब इसका आयोजन में ओसियन नाम के कला संगठन को सह आयोजक बनाया गया. ये पहला अवसर था कि सेना के अलावा एक सिविल संगठन भी इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भिका निभा रहा था.
बीसवीं सदी का उतरार्द्ध का इस प्रतियोगिता का इतिहास बंगाल की दो टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के वर्चस्व का इतिहास था. मोहन बागान ने 17 बार और ईस्ट बंगाल ने 16 बार इस प्रतियोगिता को जीता. मोहन बागान की टीम एकमात्र ऐसी टीम है, जिसने दो बार जीत की हैट्रिक लगाई. पहली बार 1963/1964/1965 में और दूसरी बार 1984/1985/1986 में. बंगाल के इस वर्चस्व को आज़ादी के बाद के कुछ सालों में कुछ हद तक हैदराबाद की टीमों ने चुनौती दी. आज़ादी के बाद 1950 में आयोजित पहली प्रतियोगिता का ख़िताब हैदराबाद सिटी पुलिस ने मोहन बागान को 1-0 से हराकर जीता. उसने दूसरा ख़िताब 1954 में और तीसरा 1957 में जीता. दरअसल उस समय इस टीम के कोच भारतीय फ़ुटबॉल के लेजेंड सैय्यद अब्दुल रहीम हुआ करते थे. दूसरी टीम जिसने इतिहास रचा, वो मद्रास रेजिमेंटल सेंटर की थी. इसने 1955 में भारतीय वायुसेना टीम को 3-2 से हराकर फ़ाइनल जीता. आज़ादी के बाद ये प्रतियोगिता जीतने वाली पहली सेना की टीम थी.
लेकिन बंगाल के वर्चस्व को सबसे बड़ी और कड़ी चुनौती पंजाब से मिली. पंजाब की ये टीमें थीं जेसीटी फगवाड़ा और बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स. बीएसएफ़ ने सात बार और जेसीटी ने पांच बार ये प्रतियोगिता जीती.
1997 का ख़िताब एफ़सी कोचीन ने जीता. वो इस प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली दक्षिण भारतीय टीम थी. 2000 से 2015 तक के समय में गोवा की कई टीमों सलगांवकर क्लब, चर्चिल ब्रदर्स, डेम्पो क्लब ने अपना वर्चस्व स्थापित किया. सलगांवकर ने 1999, 2003 और 2014 में, डेम्पो ने 2006 में और चर्चिल ब्रदर्स ने 2007, 2009 और 2011 में ये प्रतियोगिता जीती.
ये कमाल है कि 1940 में पहली बार ख़िताब जीतने वाली टीम मो.स्पोर्टिंग को अपना दूसरा ख़िताब जीतने के लिए 73 साल का लंबा इंतज़ार करना पड़ा. 2013 में उसने अपना दूसरा ख़िताब जीता. ये दिल्ली में इस प्रतियोगिता का अंतिम आयोजन था. वहां इस प्रतियोगिता को लेकर कोई उत्साह और आकर्षण नहीं रह गया था. अतः 2014 में इसका आयोजन हुआ में कराया गया और निर्णय लिया गया कि हर साल अलग शहर में इसका आयोजन कराया जाएगा.
लेकिन इस समय तक ये प्रतियोगिता अपनी चमक अपना महत्व को चुकी थी. भारतीय फ़ुटबॉल कलंदर में आईसीएल प्रमुखता पा चुकी थी. इसी कारण 2015, 2017 और 2018 में इसे भारतीय फ़ुटबॉल कलंदर में जगह ही नहीं मिली और प्रतियोगिता स्थगित रही. लेकिन भारतीय सशस्त्र सेना इसको लेकर गंभीर थी. इसलिए 2019 में सेना ने पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिलकर इसका आयोजन कोलकाता में किया. लेकिन 2020 में कोविद के कारण इसे पुनः स्थगित करना पड़ा. इसके बाद सेना और बंगाल सरकार ने संयुक्त रूप से 2025 तक कोलकाता में आयोजित करने का निर्णय किया. साथ ही इसको फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ कदम उठाए. इसमें सबसे महत्वपूर्ण ये था कि इसमें आईएसएल की सभी टीमों का भाग लेना अनिवार्य कर दिया गया. इसके अलावा सेना की चार और आई लीग की पांच आमंत्रित टीमों का भाग लेना भी सुनिश्चित किया गया. 2022 के 131वें संस्करण में भारतीय फ़ुटबॉल की सभी टीमों ने पहली बार इसमें भाग लिया और प्रतियोगिता की लोकप्रियता बहाल होने की दिशा में एक महावपूर्ण पहल हुई.
इस प्रतियोगिता की एक सुंदर और विशिष्ट बात ये है कि इसमें विजेता टीम को एक नहीं बल्कि तीन-तीन ट्रॉफ़ी दी जाती हैं. पहली डूरंड ट्रॉफ़ी जिसे ‘द मास्टरपीस’ के नाम से भी जाना जाता है. दूसरी शिमला ट्रॉफ़ी और तीसरी प्रेसिडेंट ट्रॉफ़ी जो आज़ादी से पहले वायसराय ट्रॉफ़ी होती थी.
उम्मीद की जानी चाहिए एक ऐतिहासिक प्रतियोगिता अपनी पुरानी चमक और महत्व का फिर से पा सकेगी और भारतीय फ़ुटबॉल के विकास में अपनी भूमिका निभाती रहेगी.
कवर | चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ जनरल अनिल चौहान ने 133वें चैंपियन नॉर्थईस्ट यूनाइटेड एफ़सी को प्रेसिडेंट ट्रॉफ़ी दी. x.com/thedurandcup से सभार
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