मवाना | बालूशाही का ब्रांड मुखत्यार सिंह का नाम

मवाना की चीनी जैसी ही शोहरत मुखत्यार सिंह की बालूशाही को मिली. यों मुख्त्यार हलवाई के हुनर, उनके नाम और बालूशाही के स्वाद की ख्याति चीनी मिल से भी पुरानी है. उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी बालूशाही के पुराने खस्तेपन और सोंधेपन का किरदार बचाए हुए है. आम शहरी तो उनके मुरीद हैं ही, कई नामचीन लोगों के नाम भी मुरीदों की फ़ेहरिस्त में शामिल हैं.

मुखत्यार सिंह मीरापुर के पास मुकलमपुरा गांव के रहने वाले थे. गांव में महामारी फैली तो वह गांव छोड़कर मवाना में रहने वाली अपनी बड़ी बहन के पास चले आए. उनकी बहन ने उन्हें मवाना के स्वामी हलवाई के यहाँ काम सीखने के लिए लगा दिया. यह सन् 1926 की बात है. पूरे बारह साल तक उन्होंने स्वामी हलवाई के साथ काम किया.

फिर जब अपना काम करने की सोची तो उन्होंने सिर्फ़ एक मिठाई बनाई – बालूशाही. शुद्ध घी की बालूशाही बनाकर एक थाल में लिए वह शहर में फेरी लगाते. मिठाई खाने वालों को उनकी बालूशाही ख़ूब भाई. दो-तीन साल में यह मिठाई ही उनकी पहचान गई. फिर चौड़े कुएं पर किराए की दुकान लेकर उन्होंने बाक़ायदा ठिकाना बनाया.

आज सुभाष बाज़ार में उनके नाम के बोर्ड वाली तीन दुकानें चलती है. एक दुकान उनके बेटे रवि गोला संभालते हैं. बाक़ी दोनों दुकानें मुखत्यार सिंह के पौत्र और ईश्वर सिंह के बेटे मनीष, अमरीश और वीरेंद्र के पुत्र देख रहे हैं. ख़ूबी यही है कि ‘असली वाली दुकान’ के दावों से दूर इन सभी जगहों पर मिठाई की पुरानी वाली रेसिपी का इस्तेमाल करके ही वे पुराना ज़ाइक़ा बचाए हुए हैं.

बक़ौल रवि गोला, क्वालिटी बरक़रार रखने के लिए जो कुछ ज़रूरी है, वह सारे जतन करते हैं. वह याद करते हैं कि पिता जी के ज़माने में आसपास के गाँवों के लोग हांडियों में घी लेकर दुकान पर आ जाया करते थे. और पिता जी उनसे घी ख़रीदकर स्टॉक कर लेते मगर धीरे-धीरे गांवों से घी मिलने का यह सिलसिला ख़त्म हो गया. तब उन्होंने चंदौसी की मंडी का रुख़ किया. वहाँ से घी लाकर अपने यहाँ के स्वाद की कसौटी पर परखा. उन्हें लगा कि लाल सील ब्रांड का घी उनके लिए मुफ़ीद है. अब भी वह यही घी मंगाते हैं.

बताते हैं कि उस दौर में बालूशाही भट्टी में उपले की धीमी आंच पर सिंकती थी. कुरकुरेपन और सोंधेपन के लिए यह धीमी आंच बहुत ज़रूरी है. बाद में जब कोयला इस्तेमाल करते थे, यह ख़्याल तब भी रखा जाता था और अभी जब गैस बरतते हैं तब भी. कोयले के धुंए से प्रदूषण को देखते हुए उन्हें गैस का इस्तेमाल मुनासिब लगता है.

सूबे के कई मुख्यमंत्रियों और अफ़सरों के नाम उनकी स्मृति हैं, एक बार उनकी बालूशाही चख लेने के बाद जो स्वाद के मुरीद हो गए. और शहरी तो ख़ैर एक ज़माने से दीवाने हैं ही.

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