मैसूर पाक वाले शहर में पनीर लाहौरी का ज़ाइक़ा
मैसूर में राजमहल हैं, संग्रहालय है, श्रीरंगपट्टनम, चामुंडी पर्वत, वृंदावन गार्डेन है, देखने लायक़ दशहरा है और भी न जाने क्या-क्या है? फौज के मेरे दोस्त जब भी बंगलूरू आने का न्योता देते, मैसूर के बारे में यह सब कुछ बताकर ललचाते
मगर इन सारी जगहों में मुझे वह कशिश नहीं लगती थी कि सब कुछ छोड़-छाड़कर फ़ौरन टिकट कटा लूं. वजह शायद यह भी हो कि उम्र और समझ का रिश्ता भी करीब का हो चला है वरना कभी ‘नदी के द्वीप’ पढ़ते हुए नौकुछिया ताल के अज्ञेय के ब्योरे ने ज़ेहन पर वह असर डाला था कि सवेरे उपन्यास ख़त्म करते ही बब्बू भाई को नौकुछिया चलने के लिए राज़ी किया और बुलेट लेकर निकल पड़े थे हम दोनों. यह बात दीगर है कि सूरज डूबने की बेला में ताल के किनारे खड़े होकर मैं अज्ञेय के वर्णन वाली कुदरती छटा तलाश रहा था और बब्बू भाई मुझे हैरत से देख रहे थे. ‘अमां..क्या दिखाने लाए थे? यहां वैसा तो कुछ नहीं लग रहा, जैसा रास्ते भर बताते आए थे.’ किताब की मार्फ़त चढ़ा मेरा नशा भी तब तक उतर चुका था और मैं ख़ुद सकते में था तो उन्हें क्या जवाब देता. बहरहाल उस वक़्त वापस बरेली लौटना हमने मुनासिब नहीं समझा और फिर वहां से चौबटिया चले गए. बमुश्किल हासिल हुए होटल के एक कमरे में हीटर और दो-दो कम्बलों के बावजूद हमने दो-दो कम्बल और जुटाए थे. फिर कैसे-कैसे सवेरा हुआ, वह अलग दास्तां है.
ख़ैर, चंडीगढ़ रहते हुए एक बार बंगलूरू जाने का मौक़ा मिला तो मैंने तय किया कि मैसूर भी जाऊंगा. उन तमाम वजहों से नहीं जो दोस्त गिनाते थे. मेरे लिए मैसूर दरअसल आर.के.नारायण का शहर था. उनकी कल्पना के शहर मालगुड़ी में घूमते हुए, उनके पात्रों से मिलते हुए न जाने क्यों मुझे हमेशा लगता कि मैसूर और मैसूर के लोग ऐसे ही होंगे. अब कल्पना करने में भला क्या जाता है? हालांकि अपने बच्चों को उनकी कहानियां पढ़ाते वक़्त ऐहतियातन मैं यह ज़रूर बताता था कि दरअसल मालगुड़ी नाम की कोई जगह देश के नक्शे में नहीं है. और मज़ा यह कि मैंने खु़द मालगुड़ी देखा है. बंगलूरू से होसुर जा रहा था. शहर से बाहर निकलते वक़्त बाईं ओर ऊंचाई पर निगाह गई तो हैरान रह गया- वहां बड़े-बड़े अक्षरों में मालगुड़ी दर्ज़ था. ग़ौर से देखा तो उसके साथ रेस्टोरेंट भी लिखा हुआ मिला. फिर भी सन्तोष हुआ. सोचा, चलो किताबों के बाहर मालगुड़ी कहीं तो आबाद है, रेस्टोरेंट की शक्ल में ही सही. हालांकि बाद में अजमेर में भी मालगुड़ी के नाम से आबाद एक रेस्टोरेंट देखा.
होसुर से लौटने के बाद मैसूर जाना था. दोस्त मोटर ले जाने का इसरार करते रहे मगर मैंने बस से सफ़र करना तय किया. बढ़िया सड़क है और सुना था कि बसें भी यूपी के मुक़ाबले काफी ठीक-ठाक हैं. इस बहाने लोग मिलेंगे, उनसे बात करने, समझने का मौक़ा भी. मित्रों का इसरार बरकरार था कि ठीक है बस से ही जाना है तो वॉल्वो का टिकट करा लेते हैं. मैंने मना किया और फ़ोन से वक़्त मालूम करके सवेरे-सवेरे पहुंच गया – मैजेस्टिक यानी केंपेगौड़ा बस स्टैंड. पूछताछ काउण्टर से पता चल गया कि मैसूर की बस कहां से जाती है. वहां पहुंचा तो देखा कि अपने जूड़े में कलम खोंसे हुए एक महिला कण्डक्टर बस लगाने में ड्राइवर की मदद कर रही थीं. इससे पहले कभी कण्डक्टर की वर्दी में किसी महिला को नहीं देखा था. उनसे पूछने में भी थोड़ा संकोच हो रहा था- भाषा का संकोच अलग. ऑटो वालों के बारे में तो अंदाज़ हो चुका था कि वे कन्नड़ और हिन्दी समान अधिकार से बोलते हैं. अलबत्ता हिन्दी बोलने पर किराया ज्यादा वसूलने की सारी जुगत भी करते हैं. बस अभी तक अपनी जगह स्थिर नहीं हो पाई थी और मैं यह जानने को व्यग्र था कि मैसूर वाली बस वही है या नहीं? सो कण्डक्टर से मैंने अंग्रेज़ी में पूछ लिया मगर उन्होंने मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और बस को घुमाने के लिए वैसे ही इशारा करती रहीं. अजीब मुश्किल थी. इतने में सामने से आए एक शख़्स ने कण्डक्टर से हिन्दी में पूछा,’यह बस कब जाएगी?’ तड़ से जवाब आया,’साढ़े नौ बजे.’ यानी मेरी अंग्रज़ी की एहतियात बेमायने थी, काम तो हिन्दी से ही चलेगा.
बस चली तो शहर का हिस्सा पार करते ही रास्ते के दोनों ओर पथरीली ज़मीन कभी ऊपर उठकर पहाड़ में तब्दील हो जाती तो कभी दूर तक नारियल के लहराते पेड़ साथ चलते. रामनगर, मड्डूर, माण्ड्या, श्रीरंगपट्टनम और भी एकाध जगह बस रूकी. खूब साफ-सुथरे बस स्टैंड, अंदर करीने से सजी दुकानें और स्टॉल. पांच रुपये की कॉफी और पांच रुपये की चाय. जितने दिन रहा, चाय नहीं पी. कॉफी की महक और उसका विलक्षण स्वाद बार-बार अपनी ओर खींचता. इंडियन कॉफी हाउस की कॉफी का ज़ाइक़ा उसके कुछ आसपास का ज़रूर होता है मगर कहीं और वह स्वाद हरगिज़ नहीं मिला. और हां, पांच रुपये में समोसा. हथेली के बराबर आकार वाले इस समोसे में आलू नहीं, मसाले में भुनी हुई प्याज़ होती. अद्भुत स्वाद. हमारे बरेली में किप्स ने मक्खन समोसा तक ईजाद कर डाला, जिसमें वह मेवा और मिश्री भरते हैं, आलू वाले समोसों में किशमिश-काजू डालते हैं मगर प्याज़ के बारे में उन्होंने भी नहीं सोचा.
रास्ते भर नारियल के पेड़, पटरी पर सजी नारियल पानी की दुकानें, टेम्पो में ढोए जा रहे नारियल, ख़ूब चटख़ रंगों में सजे मंदिर, माथे पर फिल्मी सितारों के महाकाय कटआउट उठाए और फूलों-झंडियों से सजे सिनेमाघर देखते हुए मैसूर पहुंच गया. होटल खोजा. नहा-धोकर बिस्तर पर पड़ा और आंख खुली तो देखा कि बाहर अंधेरा हो चुका है. होटल में खाने का इरादा छोड़कर किसी खांटी दक्षिण भारतीय रेस्तरां की तलाश में बाहर निकला. होटल के अटेंडेंट से पूछा था तो उसने दो-तीन नाम सुझा दिए मगर उसे शायद ख़ुद पर यक़ीन नहीं था, इसलिए दो-तीन नाम और बता दिए. उसका हिन्दी का उच्चारण कुछ ऐसा था कि एक भी नाम साफ समझ नहीं पाया. तय किया कि बाहर निकलकर ख़ुद ही तलाशता हूं. रास्ते पर चलते हुए नारायण के किताबों के कुछ पात्र मिल गए. कुछ दुकानों पर तो कुछ रास्ता चलते. उन्हीं में से एक बुजुर्ग से पूछा तो उन्होंने सीधे रास्ते पर बस स्टैंड तक जाने की सलाह दी.
तो इस तरह पहुंच गया-होटल विष्णु भवन. साउथ इंडियन मील्स, नार्थ इंडियन फूड्स, चाइनीज़-फ्रेश फ्रूट जूस, चाट और भी बहुत सारा था जो उनकी विशेषज्ञता थी. मैं हैरान था कि साउथ इंडियन रेस्तरां में यह चाइनीज़ क्या कर रहा है? फिर याद पड़ा कि पहली बार सागर रत्ना के मेन्यू में भी चाइनीज़ देखकर मुझे ऐसा ही लगा था मगर फिर व्यापारिक मजबूरी समझकर माफ़ कर दिया था. नूडल्स और मोमोज़ की आदी ज़बानें अगर वहां आएंगी तो उन्हें भला और क्या सुहाएगा? तो सिर्फ़ साउथ इंडियन रेस्तरां कहलाने के फेर में ये बेचारे अपने ग्राहक क्यों गंवाएं? चंडीगढ़ में मिस्टर सुंदरम के रेस्टोरेंट की भी याद आई, जो लोगों के लाख कहने पर भी अपने यहां दक्षिण भारतीय नॉन-वेज परोसने के लिए हरगिज़ तैयार न हुए.
विष्णु भवन में खासी भीड़ थी. जगह तलाश की और इत्मीनान से मेन्यू का मुआयना किया. मेरी दिलचस्पी ग़ैर दक्षिण भारतीय में नहीं थी सो उधर देखा ही नहीं. मैसूर मसाला डोसा, रसम और दही-भात से शुरू करना तय पाया. वेटर को बताया तो उसने पहले गर्दन हिलाई और फिर बताया, ‘नो साउथ इंडियन. ओनली चाइनीज़ एण्ड पंजाबी.’ मेरा सारा उत्साह धुंआ हो गया. मैसूर आकर पंजाबी खाने के बारे में मैंने हरगिज़ नहीं सोचा था. मालूम हुआ कि मैंने पहुंचने में देर कर दी थी और अब खाने को जो था, वह यही था. झक मारकर फिर मेन्यू उठाया-तीसरे पेज पर बड़े अक्षरों में मुनादी थी,’खाना पंजाब से.’ छोले-भठूरे से शुरू करके पनीर लाहौरी और पनीर अमृतसरी तक तमाम चीज़े दर्ज़ थी वहां. मैंने वेटर से पूछ लिया कि ये पनीर लाहौरी और अमृतसरी में क्या फर्क़ है. जवाब मिला,’कोई फ़र्क नहीं है. दोनों की ग्रेवी एक ही है. बस नाम अलग-अलग लिख दिए गए हैं.’ तो यह है असलियत. नाम अलग-अलग, बाकी सब एक. मैंने रेस्तरां के मैनेजर को बुलवा भेजा. उनसे भी वही सवाल किया और वही जवाब मिला. थोड़ी दिल्लगी सूझी तो मैंने उनसे पूछ लिया, ‘ये लाहौर है कहां, आपको मालूम है?’ उन्होंने कुछ सोचने वाली मुद्रा बनाई और फिर बोले,’हमारी डिश का नाम है. बाकी लाहौर कहां है, यह तो नहीं पता.’
कोई और उपाय नहीं था. वहां से उठकर कहीं और तलाश करने पर साउथ इंडियन मिल ही जाएगा, इसकी क्या गारंटी है? मैनेजर ने भरोसा दिलाया था कि सवेरे नाश्ते के वक़्त आ जाऊं, सब कुछ तैयार मिलेगा. सो खीझकर भठूरा आर्डर कर दिया. एक भठूरा आया-साइज़ डोसे के बराबर. और हां, साथ में नारियल की चटनी भी. उसे खाते हुए, ख़त्म करने की कोशिश में बार-बार नारायण वर्णित डोसई को याद करता रहा, जिसका आकार चाय की प्लेट या उससे छोटा होता है.
सम्बंधित
सफ़रनामा | भोपाल का ताल, खुला आसमान और पठान की ग़ज़लें
सफ़रनामा | यूरोप की अमरावतीः रोमा
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं