रिपोर्ट | उन्नाव के ज़री कारीगरों को सीएफ़सी से उम्मीद

  • 12:35 pm
  • 24 October 2021

उन्नाव की ज़रदोज़ी ने देश भर में शोहरत बटोरी है. यहां के कारीगर जितने हुनरमंद हैं, ढंग का बाज़ार नहीं मिलने से उतने ही परेशान और आर्थिक रूप से कमजोर भी. दुश्वारियों से जूझ रहे इन कारीगरों को बेहतर प्लेटफ़ॉर्म दिलाने का बीड़ा ज़ाहिरा बेग ने उठाया था. अब कॉमन फैसिलिटी सेंटर के रूप में उनके इरादों को मुकाम मिला है.

उन्नाव | ज़री-ज़रदोज़ी और चिकन की कढ़ाई के हुनरमंदों को नया आसमान मिलने वाला है. बारह सालों से उनके संघर्षों की नींव तैयार कर रही ज़ाहिरा बेग की मेहनत रंग ला रही है. ओडीओपी (एक ज़िला एक उत्पाद) में चुने जाने के बाद केंद्र सरकार ने ज़री का काम करने वालों के लिए यहाँ 2.24 करोड़ रुपये की लागत से सीएफ़सी (कॉमन फ़ैसिलिटी सेंटर) बना दिया है. मशीनें भी लग गई हैं.

ग़रीब और बेसहारा महिलाओं का संबल बनीं और 35 वर्षों से हस्तकला को बढ़ावा देने में जुटीं ज़ाहिरा बेग और उनकी सहयोगियों का जरी-ज़रदोज़ी का हुनर देश भर में ख़ूब सराहा गया है. शहर के एबी नगर मोहल्ले की ज़ाहिरा बेग के कुनबे में एक बड़ी बहन और चचेरे भाई हैं. 54 वर्ष की इस उम्र में भी ज़ाहिरा बेग का हर दिन अपने हुनर को और धार देने की हिकमत में गुज़रता है.

बक़ौल ज़ाहिरा बेग, जब वह हाईस्कूल में पढ़ती थीं, तो उन्होंने ज़रदोज़ी के प्रशिक्षण के बारे में सुना. घर वालों की इज़ाजत से वह भी प्रशिक्षण केंद्र जाकर कढ़ाई सीखने लगी. ज्यों-ज्यों सीखती गई, मन में यह इरादा पक्का करती गईं कि यहां सब कुछ सीखकर ही दम लेंगी. फिर इसी तरह ग़रीब लड़कियों और महिलाओं की अपने हुनर से मदद करेंगी…और फिर बीए करने के बाद उन्होंने यह काम शुरू भी कर दिया. घर वालों ने मदद की. फिर शहर के रामपुरी मोहल्ले की उनकी दोस्त उर्मिला यादव भी इस पहल में साथ देने के लिए आगे आईं.

परेशानियों से जूझते चल पड़ी संघर्षों की गाड़ी
ज़ाहिरा बेग ने बताया, “हमने 10-10 महिलाओं का स्वयं सहायता समूह बना लिया. ग़रीब महिलाएं हमारे समूह का अंग बनती गईं. इन्हीं महिलाओं को ज़रदोज़ी और चिकन कढ़ाई का हुनर सिखाने लगी. कच्चे माल के लिए भटकना पड़ता. कभी पूंजी की दिक़्कत भी आड़े आ जाती. इन सबसे निपटने पर भी हालात बहुत ख़ुश होने लायक़ नहीं बनते. बहुत निराशा होती, जब ख़ूब मेहनत के बाद भी महिला कारीगरों को उनकी मेहनत का दाम नहीं मिल पाता. बड़े व्यापारियों से कपड़े और डिज़ाइन लेकर कढ़ाई कराने वाले बिचौलिए तो मोटा मुनाफ़ा कमा लेते, लेकिन मेहनतक़शों के हिस्से बमुश्किल मजदूरी ही आ पाती थी.”

आख़िर ख़ुश होने का रास्ता निकला
“आख़िर हमने न्यू ब्राईट फ़्यूचर सोसाइटी और उन्नाव ज़रदोज़ी क्लस्टर उत्थान समिति के नाम से स्वयं सहायता समूहों को एकजुट किया और दिल्ली, बनारस, लखनऊ, मुंबई, हैदराबाद, मुरादाबाद, कोलकाता, हरियाणा, पंजाब सहित तमाम और जगहों पर हस्तशिल्प प्रदर्शनी में शरीक होकर अपने समूहों के उत्पाद की प्रदर्शनी लगाई. उन्नाव का हुनर लोगों के सामने आया तो इसने लोगों का ध्यान खींचा औऱ पहचान भी बनाई.”

ज़ाहिरा बताती हैं, “बिचौलियों से बचने और उत्पादों को देश-दुनिया तक पहुंचाने के लिए सन् 2008 में क्लस्टर बनाने की कोशिश शुरू की. लंबी कोशिशों के बाद आख़िर सरकार ने इसे ओडीओपी में शामिल कर लिया और 2.24 करोड़ की लागत से सीएफ़सी को मंजूरी दे दी. अभी शुरुआती दिनों में ही इस सेंटर से 250 स्वयं सहायता समूहों के 3000 लोग जुड़ चुके हैं. ख़ुशनसीबी यह कि इनमें 70 फ़ीसदी औरतें हैं.”

मेहनत उनकी, कमाई बिचौलियों की
ज़री कारीगर जवाहर नगर की बेबी, नई सरांय की राबिया, मोहान की कलीमा, हैदराबाद की गायत्री, मुंशीगंज की सुशीला, सपना सोनकर, हसनगंज के अतहर, शहर के हाशिम…नामों की पूरी फ़ेहरिस्त है. सबके सब मेहनती और जुझारू लोग हैं लेकिन इनकी व्यथा परेशान करने वाली है. एक साड़ी या लहंगा तैयार करने में कई बार महीना भर लग जाता है. एक-एक तार की करीने से कढ़ाई और उन्हें सजाने में आंखें सूज जाती हैं, बैठे-बैठे पैर अकड़ जाते हैं. मगर इस कड़ी मेहनत के बाद मिलने वाली मजदूरी इतनी भी नहीं होती कि ज़िंदगी ढंग से बसर हो जाए.

एक साड़ी का कपड़ा 700 से 1000 रुपये का मिलता है और कढ़ाई करने के 300 से 500 रुपये मिलते हैं. यही साड़ी बाज़ार में 4500 से 6000 रुपये में बिकती है. जो लहंगा दो हज़ार में तैयार हो जाता है, व्यापारी उसे चार से पाँच हज़ार रुपये में बेचते हैं. तब लगता है, एक झटके में ठगी हो गई.

इन कारीगरों ने कहना है कि ज़रदोज़ी और चिकन के काम के लिए मशहूर तो लखनऊ है लेकिन इसमें बड़ा हाथ उन्नाव का है. लखनऊ के व्यापारी बिचौलियों के ज़रिए से कढ़ाई उनसे ही कराते हैं. अब सीएफ़सी बन जाने से उम्मीद जगी है कि मेहनत का वाजिब दाम मिलेगा तो गुज़र-बसर भी बेहतर हो सकेगी.

ज़िला उद्योग केंद्र की उपायुक्त करुणा राय के मुताबिक सीएफ़सी के लिए ज़रूरी मशीनें आ चुकी हैं. इन्हें चलाने की ट्रेनिंग देने के लिए प्रशिक्षक भी इसी महीने आ जाएंगे और काम शुरू हो जाएगा.

सिविल लाइंस में बनाए गए सीएफ़सी में डिज़ाइनिंग, पैकिंग, फ़िनिशिंग और मार्केटिंग की ट्रेनिंग देने के साथ ही कारीगरों के बनाए परिधानों की ऑनलाइन बिक्री भी की जाएगी. मांग के मुताबिक डिज़ाइन के कपड़े भी बनाए जाएंगे. लेन-देन भी ऑनलाइन ही होगा.


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