सजग दर्शकों को बदल देता है थिएटरः डॉ.अमितेश

  • 4:03 pm
  • 4 February 2024

बरेली | विंडरमेयर रंग-साहित्य उत्सव में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और संस्कृतिकर्मी डॉ. अमितेश कुमार ने ‘नाटक कैसे देखें’ विषय पर व्याख्यान किया. कहा कि नाटक देखकर लौटने के बाद अगर वह आपको थोड़ा ज़्यादा अनुभवसम्पन्न, संवेदनशील और सजग नहीं बनाता है तो खोट या तो नाटक में है या फिर उसे देखने और महसूस करने के आपके तरीक़े में. उन्होंने नाटक देखने के अपने तजुर्बे और विंडरमेयर उत्सव में देखे हुए अपने नाटकों को दौरान दर्शकों की अनुभूति-प्रतिक्रिया के हवाले से भी इसकी व्याख्या की.

व्याख्यान के मुख्य अंशः

• नाटक कला है, इसकी तमाम बारीकियों को समझ-सीखकर ही कोई इस कला में निष्णात होता है. तो क्या नाटक देखना भी कला है? इस मुद्दे पर अर्से से बहस-विमर्श होता आया है. कुछ लोग मानते हैं कि दर्शकों को भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए तो कुछ मानते हैं कि लोगों को तरह-तरह के नाटक देखते रहने चाहिए. नाटक देखने के इस अभ्यास से वह ख़ुद-ब-ख़ुद देखना सीख जाएंगे, इसके लिए अलग से किसी तरह के प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं है. मगर सिनेमा देखने का सलीक़ा सिखाने के लिए तो बाक़ायदा कोर्स चलते हैं?

• अगर आप साधारण दर्शक हैं तो आपको सीखने की ज़रूरत नहीं है, पर अगर आप कला के प्रति सह्रदय हैं, रसिक हैं तो उसे बेहतर ढंग से देखने और महसूस करने के लिए कला की उस विधा की बारीकियाँ सीखने-समझने की ज़रूरत पड़ेगी ही ताकि आप उन्हें पहचान सकें, सराह सकें या उनमें निहित चालाकियों (स्मार्टनेस) को पकड़ सकें.

• किसी दास्तानगो की महफ़िल में जाइए, वे आग्रह करते हैं कि कोई बात अगर आपको भाती है तो आप दाद दीजिए, वाह-वाह कीजिए मगर ताली मत बजाइए. दिल्ली, इलाहाबाद हो या बरेली नाटक देखते हुए तालियाँ अक्सर सुनाई दे जाती हैं. इस तरह की तालियाँ यों तो दर्शक के प्रशंसा भाव की अभिव्यक्ति लगती हैं, मगर मंच पर कलाकारों पर इससे मुश्किल होती हैं, कई बार नाटक का प्रवाह टूट जाता है और कलाकारों को वापस अपने रंग में लौटने में वक़्त लग जाता है.

• मोबाइल से होने वाला व्यतिक्रम भी बड़ी समस्या बनता है. नाटक के दौरान फ़ोन पर बतियाने या फिर फ़ोटो या वीडियो बनाने की प्रवृति गंभीर है. कलाकारों का ध्यान बंटता है और उन्हें खीझ होती है. और दर्शक के तौर पर सोचकर देखें कि जब मंच पर कोई कलाकार लंबी मेहनत के बाद अपना हुनर आपको दिखा रहा है, उस वक़्त आप उसे देखने के बजाय मोबाइल की स्क्रीन देख रहे होते हैं.

• मास कल्चर के इस युग में जब पूरी दुनिया को अपने मोबाइल फ़ोन में समेटे हुए अपने ज़रूरतों की पूर्ति के प्रति हम आश्वस्त हैं और मुदित भी. एक मिनट की रील से लेकर तमाम ओटीटी प्लेटफ़ार्म की उपलब्धता पर लहालोट हैं, इस सवाल का जवाब पाना भी अहम् हो जाता है कि इन सबके बावजूद हम नाटक देखने क्यों जाते हैं? यानी मास कल्चर के ये माध्यम हमें वह सब कुछ नहीं देते, जिनकी दरअसल हमें ज़रूरत है तभी तो हम नाटकों या किताबों की ओर देखते हैं.

• पिछले कुछ दशकों से भारतीय रंगमंच पर बौद्धिकता इतनी हावी हो गई है कि नाटकों को ज़बरदस्त ‘इन्टेक्चुअल एक्टिविटी’ में बदल दिया गया है और इसका नतीजा यह है कि आम दर्शक इससे दूर गए हैं. और यह नई बात भी नहीं है, प्रसाद के दिनों में भी साहित्यिक नाटकों पर ज़ोर था, जबकि उसी दौर में अवाम की ज़बान में आनंद देने वाला थिएटर पारसी शैली के नाटकों और नौटंकी की शक्ल में मौजूद था.

• हमारी बौद्धिक ज़रूरतें भी होती हैं, मगर आनंद को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. मनोरंजन हमारी ज़रूरत है और ख़ुराक भी. इसलिए नाटक की पहली कसौटी तो यही है कि दर्शक को उसमें मज़ा आ रहा है या नहीं. वह आनंद क्षणिक उत्तेजना भर है या उससे कहीं आगे तक जाता है, उसके साथ रहता है. यहाँ एक सवाल यह भी है कि उस आनंद की कसौटी क्या हो?

• कई बार नाटक हँसते-खेलते हमारी चेतना को, हमारे अनुभवों को बदल देते हैं. हमारे सामने सवालों के जवाब ढूँढ़ने की चुनौती पेश करते हैं. अपनी रुचियों के परिष्कार को हम ख़ुद महसूस करते हैं और पहले के मुक़ाबले थोड़ा बेहतर बन जाते हैं. और कई नाटक ऐसे भी होते हैं, जो हमारी भावनाओं को सहलाते हैं मगर ऐसा कुछ नहीं देते, जिससे हमारे अनुभव-संसार में रत्ती भर भी इज़ाफ़ा हो. वे न तो दर्शक के व्यक्तित्व के लिए और न ही समाज के लिए बेहतर है.

• कन्हाई लाल के नाटक ‘द्रोपदी’ और कुमुद मिश्रा के नाटक ‘मुक्तिधाम’ देखते हुए अपने अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ कि अच्छा नाटक स्वस्थ मनोरंजन देता है मगर डराता भी है और सिखाता भी है.

• नाटक दृश्य-श्रव्य कला है और हमसे देखते हुए सुनने और सुनते हुए देखने की माँग करता है, हमसे सचेत बने रहने की अपेक्षा करता है.

• दर्शक तीन तरह के होते हैं – पहले वे जो सिर्फ़ देख आते हैं, दूसरे वे जो उत्साही है, वे नाटक के बारे में बातें करते हैं, बता सकते हैं कि उन्हें क्या अच्छा लगा मगर अच्छा लगने की वजह उन्हें मालूम नहीं होती. तीसरे दर्जे के दर्शक न सिर्फ़ ख़ूबी-ख़ामी बल्कि उनके कारणों के बारे में भी सोचते-जानते हैं. यह जो तीसरे वर्ग का दर्शक है, वह सचेत और संवेदनशील है. यानी क्या अच्छा लगा और क्यों अच्छा लगा समझने वाले.

• ऐसा दर्शक बनने के लिए यह भी ज़रूरी है कि अलग-अलग तरह के नाटक देखते रहें. किसी पूर्वाग्रह के आधार पर कोई राय क़ायम करने की बजाय पूरा नाटक देखकर राय बनाना ज़्यादा बढ़िया तरीक़ा है. कहानी की संप्रेषणियता, या अभिनय भर काफ़ी नहीं, उपकरण, मंच सज्जा, नाटक की लय पर भी ग़ौर करें, देखें कि बाद में याद क्या रह गया- नाटक या ताम-झाम.

• आप कोई खेल देखते हैं और आप कोई नाटक देखते हैं तो उन दोनों को देखने में किस तरह का अंतर होता है? अक्सर जो नाटक आपको अच्छा लगता है, आप उसमें डूब जाते हैं, और खेल अच्छा लगता है तो भी उसका विश्लेषण आप करते रहते हैं…यही काम नाटक देखते हुए भला क्यों नहीं हो सकता?

• ब्रेख़्त तो ऐसा ही चाहते थे कि जिस तरह खेल के मैदान में दर्शक खेल का विश्लेषण करते हैं, उसी तरह दर्शक नाटक की स्थिति का विश्लेषण करें. वे दर्शकों को सम्मोहित करने के बजाय झकझोरते हैं.

• बक़ौल ब्रेख़्त, नाटकीय रंगमंच का दर्शक घटनाओं को संभावित मानते हुए अपरिवर्तनीय मानता है. जबकि महाकाव्यात्मक रंगमंच का दर्शक कहता है कि यह अविश्वसनीय है, असाधारण है, इसे रोकना चाहिए. वह यथास्थितिवादी बनने की बजाय परिवर्तन का पक्षधर बनता है.

• ब्रेख़्त नाटक को परिवर्तनवादी कला मानते हैं, जिसका काम मनोरंजन के साथ शिक्षा भी है. शिक्षा औऱ आनंद का समन्वय करते हुए ब्रेख़्त के ध्यान में दर्शक ही है. अपने नाटकों से वह दर्शकों को सम्मोहित करने के बजाय उनकी चेतना जागृत करने में यक़ीन रखते हैं. वह चाहते हैं कि नाटक तब शुरू हो, जब दर्शक प्रेक्षागृह से बाहर चले जाएं.

• गाई डिबोड कहते हैं कि दृश्यात्मकता दो तरह के दर्शक रचती है, एक तो निष्क्रिय दर्शक जो उस पर विचार किए बिना उसे सीधे-सीधे ग्रहण करता है और दूसरा वह जो दृश्य के मूर्त रूप का हिस्सा बन जाता है. यानी दृश्य केवल दृश्य नहीं, एक अनुभव भी है जो देखने वाले के साथ रह जाता है.

• सवाल यह भी है कि नाटक में हम देखते क्या है? नाटक में कुछ लोग कहानी देखते हैं. कुछ उसकी प्रस्तुति के तरीक़े पर ध्यान देते हैं. नाटक दृश्य-श्रव्य कला है. इसे केवल देखना या केवल सुनना नहीं है. हम जो सुनते हैं, वे शब्द नाटककार देता और अभिनेता उन शब्दों को बोलता भर नहीं, भाव भी रचता है, उन्हें दृश्य में बदल देता है. मृच्छकटिकम् में चारुदत्त के घर आए चोर को याद कर सकते हैं कि सेंध मारने से लेकर घर के अंदर रखी चीज़ों का ख़ाका शब्दों से खींचकर दर्शकों के सामने वह उसके दृश्य उपस्थित कर देता है.

• स्पेस, लाइट्स, प्रॉपट्रीज़, ये सब मिलकर कहन को मायने देते हैं. किसी स्पेस में अगर चार लोग अलग-अलग जगहों पर उपस्थित हैं तो नाटक उन सभी जगहों पर घटित हो रहा है, ऐसे में आप एक को देखेंगे तो बाक़ी छूट जाएंगे. तो आप पूरा नाटक देख ही नहीं पाते, ऐसे में आप उसे कैसे सराहेंगे? तो इसे ऐसे देख सकते हैं कि मंच के सारे इंतज़ाम के बीच अभिनेता अपनी कला को और कला के ज़रिये शब्द को हम सब तक कैसे पहुँचा पा रहे हैं. कोई दर्शक अभिनय कौशल का बहुत पारखी न भी हो तब भी अगर अभिनेता चरित्र के सात्विक भाव में डूबा हुआ हो और शब्दों ने उसे हम तक पहुँचा पा रहा हो तो वह हमें अच्छा लगने लगता है.

डॉ.ब्रजेश्वर सिंह, कुमुद मिश्रा, प्रभात और डॉ.अमितेश कुमार

• नाटककार और अभिनेता से साथ ही निर्देशक एक अहम् कड़ी है. हम यह भी देखने जाते हैं कि उस निर्देशक ने नाटक को व्याख्या कैसे की है, उसे किस तरह प्रस्तुत किया है और उसके ज़रिये वह हमें क्या दिखाना चाहता है. हमने ‘मैकबेथ’, ‘ओथेलो’, ‘आधे-अधूरे’ या ‘आषाढ़ का एक दिन’ की अलग-अलग प्रस्तुतियाँ देखी होंगी. और कहानी जानते हुए भी हम देखने जाते हैं कि अमुक निर्देशक ने दृश्यबंध, प्रकाश और दूसरी सामग्री का इस्तेमाल करते हुए उस नाटक की क्या व्याख्या दी है. और उसकी व्याख्या पुरानी व्याख्या या नाटककार की हमें दी गई व्याख्या से किस तरह अलग है. हम देखना चाहते हैं कि अश्वत्थामा का एकालाप या हेमलेट का वही मोनोलॉग कोई औऱ कैसे बोल रहा होता है.

• हम लीनियर कहानी के आदी हो जाते हैं, सीधे-सीधे कही जाने वाली कहानी मगर कई बार निर्देशक सीधे कहने के बजाय कहानी को उलझा देता है, वह उम्मीद करता है कि चेतना सम्पन्न दर्शक होने के नाते आप उन सूत्रों को पकड़ ही लेंगे. तो अगर आप ख़ुद को प्रशिक्षित नहीं करते हैं, तब आप कहानी को सराहने से वंचित रह जाएंगे.

• नाटक देखते हुए सबसे अच्छी बात यह है कि हम अपनी पाँचों इंद्रियों का सबसे सजग इस्तेमाल करते हैं. अधैर्य के इस मौजूदा दौर में नाटक हमें यह मौक़ा देता है कि अपनी इंद्रियों का हम सक्रिय इस्तेमाल कर सकें. ऐसा करके हम ज़ाहिर अर्थों के साथ ही निहित अर्थ को भी समझ पाते हैं, अर्थ या परिप्रेक्ष्य का पूरा नया संसार हमारे सामने खुल जाता है.

• नाटक देखने के लिए ख़ुद को प्रशिक्षित करने का एक फ़ायदा यह भी है कि हम इस दुनिया में, अपने आसपास, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में चलते रहने वाले नाटक को समझने का सामर्थ्य भी हासिल कर पाते हैं.

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