थिएटर दुनिया देखना सिखाता हैः प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल

  • 9:15 am
  • 4 February 2024

(बरेली में 24 से 31 जनवरी तक चले विंडरमेयर रंग-साहित्य उत्सव के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल ने रंगमंच की भारतीय परंपरा की ख़ूबियों को रेखांकित करते हुए अपने अनुभवों के हवाले से नाटक के सजग दर्शकों पर होने वाले असर पर भी बात की. प्रो.अग्रवाल के व्याख्यान का यह कमोबेश अविकल पाठ है. -सं)

यों नाटक तो हम सभी करते हैं, ज़िंदगी में क़दम-क़दम पर नाटक है लेकिन नाटक से मेरा जुड़ाव काफ़ी पुराना है. तब 18 साल था. ग्वालियर में डॉ.कमल वशिष्ठ थे, जो नाटक करने को लेकर बहुत बेचैन रहा करते थे. साधन तो उनके पास नहीं थे, मगर समकालीन, आधुनिक और कुछ प्रयोगात्मक नाटक करने की धुन सवार रहती थी. तो उन्होंने हम जैसे दो-चार नौजवानों को साथ लेकर, ‘नाट्यायन’ बनाई और नाटक खेलने का सिलसिला शुरू किया. 1972 की बात है, जब हम लोगों ने पहला नाटक किया था – ‘हत्या एक आकार की’. जिसमें हम चार लोग थे, मैं, मेरे बड़े भाई रामबाबू, सत्येंद्र और श्रीनिवास. तो इस नाटक से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह चलता रहा, अर्से तक मैं नाटक करता रहा, कुछ नाटक डायरेक्ट भी किए- ‘बाक़ी इतिहास’, ‘दुलारी बाई’ वगैरह. दिल्ली आने के बाद भी मैंने अभिनय किया मगर नाटक तो समग्रता की विधा है और पूरा समर्पण मांगने वाली विधा है. तो आपको यह फ़ैसला करना होता है कि नाटक करना है या कुछ और. मैंने जो फ़ैसला किया, वह सभी जानते हैं पर रंगमंच से लगाव हमेशा बना रहा.

सन् 2000 में, मैं लंदन गया था और उन दिनों काफ़ी कड़की में था. तो घूमने-देखने के ठिकाने मुझे चुनने थे. मैंने तय किया कि दो जगहों पर मुझे ज़रूर जाना है – ग्लोब थिएटर और दूसरा हाई गेट सीमेट्री. अब लंदन जाकर भी बाबा कार्ल मार्क्स को ख़िराज-ए-’अक़ीदत पेश न करना तो कुफ़्र होता न! जहां मैं ठहरा था, ग्लोब थिएटर वहाँ से सात-आठ किलोमीटर दूर था मगर पैसे बचाने के लिए वहाँ मैं पैदल गया. अब मुझे याद नहीं कि वहां कौन-सा नाटक चल रहा था, पर जो सबसे सस्ता टिकट था, उसमें आपको खड़े होकर नाटक देखना होता था, तो मैंने दो घंटे खड़े होकर नाटक देखा. पर यह तय था कि लंदन आया हूँ तो कार्ल मार्क्स की क़ब्र और शेक्सपियर का नाटक देखे बग़ैर लौटूँगा नहीं.

हम जानें या न जानें, पर अभिनय के बिना आप जी नहीं सकते. और अभिनय करना हमेशा कोई बुरी बात नहीं होती. अगर आपको कभी किसी बात पर क्रोध आ रहा हो और आप उसे छुपा ले जाएं, तो यह अभिनय ही है और यह जीवन में ज़रूरी भी है. उम्र के जिस दौर में पहुंच हूं, उसमें कई बार लगता है कि ज़िंदगी जैसे जी, उससे अलग तरह से जीता तो शायद बेहतर होता. कई बार मुझे लगता है कि अभिनय एक अभिनेता को वह अवसर भी देता है, कि उसे कई ज़िंदगियां जीने का तजुर्बा मिल जाता है. इसीलिए जो महत्त्वपूर्ण नाट्य कृतियां होती हैं, जो महत्त्वपूर्ण चरित्र होते हैं, और उनका अभिनय होता है, वो हमारे जीवन में हमारे साथ चलते हैं.

हारुकी मुराकामी की बहुत ख़ूबसूरत कहानी है- ‘ड्राइव माई कार’. वह एक्टर है थिएटर का और जापान में वह अंकल वान्या की भूमिका करने के लिए विख्यात है. वह अपनी कार नहीं चला सकता, उसकी आंख में तकलीफ़ है. वह एक लड़की को ड्राइवर रख लेता है. लड़की और अभिनेता के संबंध, अंकल वान्या की जो भूमिका वह मंच पर जीता है, उसके समानान्तर उसके जीवन में चलते हैं और किस तरह उस पात्र का एक नया रूप आपके सामने खुलता है, यह एक रोचक अनुभव है. इस कहानी पर एक ख़ूबसूरत फ़िल्म भी बनी है, और मैं आप सबको वह फ़िल्म भी देखने की पुरज़ोर सिफ़ारिश करूंगा.

भरत मुनि के नाट्य शास्त्र पर टीका करते हुए अभिनव गुप्त ने बहुतेरी महत्वपूर्ण बातें कही हैं. वह कहते हैं कि अभिनय अनुकृति है लेकिन अलग. अभिनय जीवन का अनुकरण है लेकिन वह मात्र अनुकरण नहीं है, अनुकरण के अलावा भी कुछ है. तभी तो एक ही पात्र को, एक ही कथा को कई अभिनेता या निर्देशक अलग-अलग ढंग से देख सकते हैं, प्रस्तुत कर सकते हैं. इससे बहुत महत्वपूर्ण दार्शनिक बात उभरती है और वो यह कि किसी चीज़ को देखने के कई पहलू हो सकते हैं, किसी भी बात को समझने या कहने के कई पहलू हो सकते है यानी व्याख्या अलग-अलग हो सकती है मगर साथ ही यह भी कि वस्तु सत्य है, उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता.

भारतीय नाट्य परंपरा में चाहे वह शास्त्रीय हो या वह लोक परंपरा हो, उस तरह के ‘रिएलिस्टिक स्टेज’ की कभी परवाह नहीं की गई, जैसा कि यूरोप में था और पारसी थिएटर के ज़रिये भारत में आया. मिसाल के तौर पर यह सवाल कि प्रसाद के नाटक खेले नहीं जा सकते, यह उन्हीं लोगों के मन में आ सकता है जिनके दिमाग़ में मंच का मतलब है- रिएलिटी वरना हमारे यहां तो जब रामलीला करते हैं, एक परदा डाल देते हैं तो वह दशरथ का महल बन जाता है, दूसरा परदा डाल देते हैं तो वह रावण का महल बन जाता है. वहीं हनुमान जी लंका जला आते हैं. सुलोचना भी सती हो जाती है.

लेकिन रियलिस्टिक स्टेज के प्रति आग्रह न होना, बल्कि उसको नकारना और इसके बिना अपनी बात और भाव को संप्रेषित कर देने को भारतीय नाट्य परंपरा में बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. नाटक यह कोशिश ही नहीं करता कि आपको वास्तविकता अनुभूत कराई जाए. यहीं वह सिनेमा से अलग भी हो जाता है. नाटक आपके वास्तविक जीवन, आपके आसपास के यथार्थ या ऐतिहासिक यथार्थ की अन्तर्दृष्टि देने की कोशिश करता है, पर वह मंच पर उस यथार्थ को पुनर्सृजित करने की कोशिश नहीं करता. और अगर ऐसा करेगा तो बहुत बुरा और हास्यास्पद बन जाएगा. ग्वालियर में मराठा नाटक कंपनियाँ बहुत आती थीं और ‘रियलिज़्म’ का उन पर बहुत असर रहता था. तो ऐसे ही एक नाटक में एक बार शिवाजी का घोड़ा मंच पर बिदक गया, अब घोड़ा इधर भागे-उधर भागे और शिवाजी की भूमिका करने वाला अभिनेता वहीं मंच पर लटका हुआ, इस बीच हॉल में वो अफरा-तफरी मची कि पूछिए मत. अगर वो भारतीय नाट्य शास्त्र की परंपरा के अनुरूप कर रहे होते तो सिर्फ़ संकेत काफ़ी होता, घोड़े की ज़रूरत ही नहीं थी.

रंगमंच यथार्थ के सृजन में समर्थ हो ही नहीं सकता, इसलिए वह उसके संकेत देता है. आपको अपने दर्शकों की कल्पना पर विश्वास होना चाहिए और होता भी है या आप उसकी कल्पना का इतना विस्तार करने का प्रयत्न कर सकते हैं कि वह आपके संकेतों से समझ जाए कि क्या हो रहा है, क्या दिखाने की कोशिश की गई है. इस अर्थ में देखें तो नाटक आपको देखना सिखाता है, ज़िंदगी को देखना, संकेतों को देखना, जो सीधे-सीधे वहां नहीं हैं यानी निहितार्थ को पढ़ना-समझना. मैं अगर जीवन को थोड़े बेहतर ढंग से देख पाता हूं और कई ऐसी चीज़ें, जो सामने नज़र नहीं आतीं, उन्हें जोड़ पाता हूं तो उसका एक बड़ा कारण यह है कि मैं शुरू से थिएटर से जुड़ा रहा हूं. और वो लगाव मेरा आज तक बरकरार है.

नाटक में जो वहाँ नहीं है, लेकिन जो अभिनेता, या लेखक या निर्देशक आपको अपने संकेतों से, शब्दों से वाचिक-आंगिक अभिनय से, मंच सज्जा से जो दिखाने की कोशिश कर रहा है, वो आप देख सकें तो उसकी सफलता है और अगर आप न देख सकें तो उसकी विफलता तो है ही, कहीं न कहीं आप की विफलता भी है. इसीलिए नाटक केवल अभिनेता के लिए नहीं, भावक के लिए, दर्शकों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वो आपको देखना सिखाते हैं.

कवर | सिद्धार्थ रावल

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