सवाल करता है, सुकून छीन लेता है साहित्यः डॉ. ख़ालिद

बरेली | साहित्य अपने पाठकों को सुकून या तसल्ली दे सकता है, लेकिन यह हमेशा ज़रूरी नहीं, अच्छा साहित्य अपने दौर के सवालों के जवाब मांगता है, पढ़ने वाले का सुकून छीनकर उसे बेचैन भी करता रहता है. यही बेचैनी वक़्त की कसौटी पर उसकी अहमियत तय करती है. उर्दू के मशहूर कथाकार डॉ. ख़ालिद जावेद ने बृहस्पतिवार की शाम को विंडरमेयर में आयोजित अभिनंदन समारोह में यह बात कही. इस मौक़े पर आयोजित ‘विंडरमेयर विमर्श’ श्रृंखला में उन्होंने अपने ख़िताबी उपन्यास ‘नेमतख़ाना’ पर विस्तार से बात की, अपनी रचना-यात्रा के बारे में बताया और शहर में अपने पुराने दिनों और प्रिय ठिकानों को याद किया.

बक़ौल डॉ.ख़ालिद, ‘नेमतख़ाना’ इंसानों की आंतों पर दायर एक मुकदमा है, जो बेचैन करता है. इस उपन्यास को मौत की दूसरी किताब और फिर ‘एक ख़ंजर पानी में’ और ‘अरसलान और बहज़ाद’ को तीसरी और चौथी किताब कहने के सवाल पर उन्होंने कहा कि वस्तुतः यह ज़िंदगी की किताब है. कोई रचना या कोई कला, दरअसल मौत को जीतने की कोशिश है. मिस्र में ममी बनाने के ख़्याल का हवाला देते हुए उन्होंने मूर्ति कला के विकास का ज़िक्र किया. कहा कि दरअसल किसी शख़्स की मौत तो उसी दिन होती है, जिस दिन वह अपनों की स्मृति से बेदख़ल हो जाता है. यह भी कि दौर-ए-हालिया में तो ज़िंदगी और मौत आपस में अपने किरदार बदलते मालूम होते हैं. ज़िंदगी में इतने ग़म हैं कि वह मौत-सी लगने लगती है. और मौत ज़िंदगी से बढ़कर सुकून देने वाली मालूम होती है.

रचनात्मकता में प्रयोग करने के जोख़िम के सवाल पर डॉ.ख़ालिद ने कहा कि लेखक का पहला काम तो लिखना है. उसे नदी की तरह बहते (लिखते) रहना चाहिए. कहा कि अपने लेखन में तजुर्बा करने का जोख़िम उठाने से उन्होंने कभी परहेज नहीं किया. अपने लेखन में वीभत्स रस की बहुतायत के सवाल पर उन्होंने कहा कि अगर यह रस है और हमारी दुनिया और ज़िंदगी में मौजूद है तो कहीं न कहीं इसे भी जगह तो मिलनी ही चाहिए. और कविताओं में यह संभव नहीं तो कहानी-उपन्यास में यह आ जाए तो क्या हर्ज़ है. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ख़ूबसूरती पैदा भी बदसूरती से ही होती है.

रंग, फ़लसफ़े और साइंस के समावेश पर उन्होंने कहा कि कहानी का आधार अनुभूति है और फ़लसफ़ा उसी का अमूर्त रूप है. जब वह मूर्त होती है तो साहित्य का रूप लेती है. इसी तरह, हर रंग की अपनी भाषा होती है. हर शब्द का अपना रंग होता है. क्वांटम फ़िजिक्स की पढ़ाई के दौरान उसमें रहस्य के जो संकेत मिले, उसी ने बाद में उन्हें फ़लसफ़े का छात्र बना दिया.

आज के दौर के उर्दू लेखन के बारे में उनका मत है कि लेखक अगर सेलिब्रिटी बनने की कोशिश में मुब्तला हो जाएगा तो साहित्य में गहराई नहीं आ सकती. लेखक को अदृश्य रहना चाहिए वरना ‘लिटरेचर पापुलर’ ही रहेगा जो ‘समझ में आने लायक’ के नाम पर रचा जा रहा है. ऐसे साहित्य की उम्र बहुत लंबी नहीं होती. अलबत्ता, उर्दू में शायरी बहुत उम्दा हो रही है.

अपनी रचनाओं में शहर के तमाम ठिकानों के ज़िक्र के बारे में बात करते हुए डॉ. ख़ालिद ने कहा कि बचपन से ही नदियों से उन्हें बेहद प्रेम रहा. और यह प्रेम इस हद तक था कि उनकी ख़्वाहिश होती कि किसी तरह नदी को अपने घर ले आते. कहा कि उनका विस्तार और बहते रहने की धीरता उन्हें हमेशा दिलकश लगती है.

हाल के दिनों में देश के तमाम साहित्यिक उत्सवों में शिरकत के अपने तजुर्बे साझा करते हुए उन्होंने बताया कि त्रिवेंद्रम में युवा पीढ़ी की साहित्य को लेकर ललक ने उन्हें बहुत प्रभावित किया. और इसकी वजह अकेली सबसे ज़्यादा साक्षरता भर नहीं हो सकती, अपनी दुनिया को जानने के लिए किताबों से दोस्ती का सलीक़ा ज़रूर इसके मूल में है.

डॉ. ख़ालिद जावेद से बातचीत ‘संवाद न्यूज़’ के संपादक प्रभात ने की. रंग विनायक रंगमंडल के मुखिया डॉ.बृजेश्वर सिंह ने ‘नेमतख़ाना’ के लिए मिले जेसीबी साहित्य पुरस्कार को शहर की अदबी दुनिया के लिए उपलब्धि बताया. उन्होंने डॉ. ख़ालिद जावेद को अंगवस्त्रम और सम्मान-पत्र भेंट किया. कार्यक्रम की शुरुआत में मुशाहिद रफ़त ने ख़ालिद जावेद के कृतित्व और व्यक्तित्व का परिचय दिया.

प्रमुख रचनाएःं अरसलान और बहज़ाद, एक ख़ंजर पानी में, नेमतख़ाना, मौत की किताब (सभी उपन्यास) और तीन कहानी संग्रह, तफ़रीह की एक दोपहर, आख़िरी दावत और अन्य कहानियाँ, बुरे मौसम में हैं.

सम्बंधित

मैं तफ़रीह के लिए नहीं लिखता, न चाहता हूं कि लोग इसे तफ़रीहन पढ़ेंः ख़ालिद जावेद


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.