रंग संवाद | मंडेज़ आर बेस्ट फ़ॉर फ्लाइंग आउट ऑफ़ विंडोज़
‘मंडेज़ आर बेस्ट फ़ॉर फ्लाइंग आउट ऑफ़ विंडोज़’ यानी सोमवार खिड़कियों से बाहर उड़ने का बेहतर दिन है. नाट्य प्रस्तुति का यह दिलचस्प नाम आकर्षित करता है. राजीव कृष्णन निर्देशित ‘पर्च’, चेन्नई की यह अंग्रेज़ी भाषा की प्रस्तुति भारत रंग महोत्सव के दूसरे दिन अभिमंच प्रेक्षागृह में है. इससे पहले राजीव की दो प्रस्तुतियां मैं देख चुका हूं – ‘मिस मीना’, और ‘हाउ टू स्किन ए जिराफी’. राजीव का काम प्रभावित करता है, वो रंगमंच की बुनियादी युक्तियों पर ही भरोसा करते हैं और अभिनेता, संगीत, और सामग्रियों की सहभागिता से ऐसी रंग भाषा रचते हैं जिसमें हास्य भी होता है और यथार्थ की पैनी मार भी. कथ्य को वो ऐसे बरतते हैं कि सामयिक चिंता के प्रति समूह की प्रतिक्रिया ज़ाहिर होती है.
अभिमंच प्रेक्षागृह में पहुंचते ही स्टेज सजा हुआ दिखता है. सीट पर बैठ जाने के बाद मंच पर नज़र डालता हूं, अभिनेता तैयार हैं. एक तरफ पियानो रखा है, कुछ और वाद्य यंत्र भी. प्लेटफ़ॉर्म हैं, फ़्रेम हैं, कुछ ट्रंक हैं जिन पर इमारतों का चित्र बना हुआ है…अभिनेता मंच पर हैं दर्शकों के बैठने के इतंज़ार में. समय हो चुका है एनएसडी की उद्घोषिका प्रस्तुति शुरू होने की औपचारिक घोषणा करती हैं लेकिन प्रस्तुति शुरू नहीं होती. मंच पर सामने आते हैं निर्देशक राजीव कृष्णन. वो प्रस्तुति के बारे में बताते हैं. प्रस्तुति डैनियल खार्म्स की कहानियों पर आधारित है तो खार्म्स का परिचय देते हैं. घोषणा करते हैं कि देश में आज जैसी विसंगति है उसमें खार्म्स की दुनिया बहुत जानी पहचानी लगती है और दमनकारी क़ानूनों के विरोध में जो देश भर में आंदोलन हो रहे हैं वह उसका समर्थन करते हैं. मंचन के बाद मैं उनसे पूछता हूं कि क्या प्रस्तुति की शुरूआत में जो उद्घोषणा उन्होंने की वो हर बार करते हैं? राजीव कहते हैं, ‘नहीं, मैं अपनी बात कहने के लिए इस राष्ट्रीय मंच का उपयोग करना चाहता था. दर्शक शायद ही समझ पाते हैं कि क्या हुआ! लेकिन एक रंगकर्मी की प्रतिबद्धता और सत्ता से सवाल पूछते रहने का साहस स्थापित होता है.’
डैनियल खार्म्स (1905-1942) प्रारंभिक सोवियत काल के असंगतवादी कवि, लेखक और नाटककार थे. अपने गैर पारम्पिक विद्रोही तरीकों के लिए उनके समय के स्टालिनवादी शासन ने उन्हें कई बार जेल में डाला. उनका वयस्क साहित्य उनके जीवनकाल में नहीं छपा और वे बाल लेखन तक सीमित होकर रह गए. कहा जाता है कि 1942 में लेनिनग्राद की घेरेबंदी के दौरान गिरफ़्तार किए जाने के बाद एक अस्पताल के मनोरोगी वार्ड में भूख से लड़ते हुए गुमनामी में उनकी मौत हो गई. उनकी कहानियाँ सहज चित्रण को ठुकराती हैं, हास्य से शुरू होती हैं लेकिन स्याह हो जाती हैं, कइयों में हिंसा के आकस्मिक कृत्यों का प्रदर्शन है. निर्देशक बताते हैं कि खार्म्स को बहुत सालों बाद खोजा गया, उनके लेखन को भी. उनकी रचनाओं में सौन्दर्य भी है और अश्लीलता भी. क्रम का निषेध है और यथार्थवाद का भी.
प्रस्तुति में जो दुनिया है वो बहुत जानी पहचानी भी हैं, और अजीबोग़रीब भी. रंगभाषा में अभिनेता हैं, संगीत है, कठपुतलियां हैं, सामग्रियां हैं और खार्म्स की असंगत रचनाएं है…एक दूसरे से तालमेल करती हुई…इस प्रक्रिया में दर्शक भी शामिल है… प्रस्तुति एक विरल रंगानुभूति रचती है. खार्म्स की कहानियों का न आदि है, न अंत. न क़िरदार है, न कथा, वैसे वो कहानियां भी नहीं है. जैसे एक कहानी में दो क़िरदार छत से गिर रहे हैं, अलग-अलग खिड़कियों से लोग उनको गिरते हुए देख रहे हैं और वो ख़ुद भी लोगों को देख रहे हैं. जैसे एक महिला जो शीशा साफ़ करती है ताकि कौन गिर रहा है उसे पहचान सके तो इस साफ़ शीशे से गिरने वाले उसे भी देख लेते हैं. एक दूसरी कहानी में अत्यधिक जिज्ञासा से खिड़की के बाहर झांकती गिरती और बिखरती औरतें हैं, जिनका उबाऊ क्रम है लेकिन प्रस्तुति में अभिनेता इसे संगीत और संवाद अदायगी की अलग-अलग भंगिमा के साथ रोचक बनाकर पेश करते हैं.
प्रस्तुति यह ध्यान दिलाती है कि रंगमंच की प्रस्तुति में नाटकीयता का बुनियादी महत्व है. इस प्रस्तुति में कथ्य को पेश करने की शैली मे जो नाटकीयता रची गई है वो इसकी दृश्यात्मकता को आकर्षक बनाती है. अभिनेता अपने शरीर और आवाज़ के साथ कठपुतलियों, जूतों, सैंडल, ट्रंक, फ़्रेम, गुब्बारों आदि के सहारे नाटकीय रंगभाषा रचते हैं, जिनमें संगीत उनके साथ संगत करता है. रंगभाषा में संवाद और मौन का एक संतुलन है, हास्य और गंभीरता का भी. मार्मिकता का भी और जीवन की असंगति पर उपहास उड़ाने का भी. प्रस्तुति में दर्शक और अभिनेता के बीच कोई आभासी दीवार नहीं है, दर्शकों की कल्पना को प्रस्तुति विस्तार देती है. कुछ दृश्यों में दर्शक भी प्रस्तुति में शामिल भी होते हैं. दर्शकों को प्रस्तुति में शामिल करना आसान नहीं होता क्योंकि कुशल अभिनेता न हो तो प्रस्तुति से नियंत्रण छूटने की संभावना रहती है. प्रस्तुति के दौरान ऐसा होता दिखता भी है. दर्शक दीर्घा में रीता गांगुली जैसी रंगमंच की दिग्गज बैठी हैं, वो अभिनेता से संवाद करने लगती हैं, बीच में टिप्पणियां भी. अभिनेता अपनी विदग्धता से आख्यान पर नियंत्रण बनाए रखती है.
एक और कहानी का जिक्र आवश्यक है. अभिनेत्री ख़ुद को ट्रंक में बंद कर लेती है. मृत्यु के बारे में जानने का उसका प्रयोग चल रहा है. यह दृश्य हमारे समय के विद्रूप को रेखांकित करता है. एक ही कहानी को बार- बार कहते दो पत्रकार जैसे लगते अभिनेता उसी ट्रंक पर आ बैठते हैं, अभिनेत्री की चीख़ों से बेअसर वे अपनी कहानियों में मशगूल रहते हैं. उसी तरह जैसे बिना बात के मुद्दों पर बहस करता मीडिया गंभीरता का अभिनय करता हुआ अपने समय के सत्य को दबाता है और उनसे बेख़बर रखता है अपने दर्शकों को. जो असामान्य है वो सामान्य बन गया है, इस विंडबना को प्रस्तुति सहज स्पष्ट कर देती है. राजनीतिक अभिव्यक्ति की छाया प्रस्तुति में मौजूद है.
प्रस्तुति की दृश्य परिकल्पना रंग अनुभूति को सघन बनाती है, दर्शक प्रस्तुति के साथ बहें नहीं इसलिए उनको आख्यान से बाहर निकालते रहने का इंतज़ाम भी है, जिसमें प्रकाश और संगीत का बेहतरीन इस्तेमाल है. आख्यान कई बार टूटता है, दर्शकों पर प्रकाश कई बार पड़ता है और इसी अंतराल में प्रस्तुति एक कहानी से दूसरी कहानी की तरफ भी बढ़ जाती है तो आख्यान की तरलता बरक़रार रहती है. प्रकाश परिकल्पना में नवाचार है. माइक स्टैंड पर लगी लाइट, टेबल लैम्प और छोटे बल्बों से से प्रभावी काम लिया गया है, इनसे मुग्ध करने वाले बिंब रचे गए हैं जैसे तूफ़ान का दृश्य, बस में अलग-अलग कठपुतलियों के बैठने का दृश्य आदि.
अभिनेता ईश्वर ललिता, रेन्सी फिलिप, सचिन गुरजाले, विजय रविकुमार और विनोद रवींद्रन और संगीतकार अभय पियानो, जो सेलो, कीबोर्ड और दूसरे वाद्य आवश्यकतानुसार बजाते हुए प्रस्तुति के मूड को बनाये रखते हैं, खार्म्स की दुनिया से बड़ी रोचकता से हमारा परिचय कराते हैं. ऐसा करना सहज नहीं रहा होगा, मैं घर लौटते हुए खार्म्स की कहानियों को सर्च करता हूं…पढ़ता हूं…वो पढ़ने के लिए भी चुनौती हैं तो दृश्य में रूपांतरित करना…’पर्च’ की इस प्रस्तुति का प्रभाव और गहरा जाता है.
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