किताब | तरक्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र

  • 10:58 pm
  • 17 May 2020

ज़ाहिद ख़ान पत्रकार हैं, तख़लीक़कार हैं. जेरे तब्सिरा किताब ‘तरक्क़ी पसंद तहरीक के हमसफ़र’ के अलावा उनकी चार किताबें और आ चुकी हैं. उन्हें बहुत से इनामात से नवाजा जा चुका है. इनामात समाज पसंदी का एलान होते हैं और लिखने वाले की काबिलियत और अहमियत ज़ाहिर करते हैं. तरक्क़ी पसंदी हर चंद के अब गए ज़माने की बात हुई. क्योंकि साल 1955-60 से तो दूसरी बड़ी या छोटी तहरीक जदीदयत ने उर्दू में अपना कदोकामत (ऊंचाई) निकालना शुरू कर दिया था और तरक्क़ी पसंदों ने आहिस्ता-आहिस्ता तरक्क़ी पसंदी का दामन छोड़ना शुरू कर दिया था. जिसकी मिसाल चढ़ते सूरज वाली हो गई थी. तरक्क़ी पसंदों पर बहुत से मजामीन लिखे गए. कुछ अच्छे, कुछ बुरे ! तरक्क़ी पसंदों पर सबसे पहले बाक़ायदा अज़ीज़ अहमद की किताब (जो मज्मून की सूरत में 1942 में रिसाला ‘उर्दू’ में छपी थी.) ‘तरक्क़ीपसंद अदब’ छपी थी, जिसमें बक़ौल खलील उर्रहमान आजमी, ‘‘अज़ीज़ अहमद ने अल्लामा इक़बाल, हसरत मोहानी, जोश और काज़ी अब्दुल गफ्फ़ार का ही जायजा लिया था. क्योंकि तब तक कुछ चीज़ें ही सामने आईं थीं.’’ अज़ीज़ अहमद के बाद साल 1951 में अली सरदार ज़ाफ़री की ‘तरक्क़ी पसंद अदब’ नामी किताब मंज़रे आम पर आई, जो एक तरह से अज़ीज़ अहमद की ही किताब का विस्तार थी. अली सरदार ज़ाफ़री की किताब के दूसरे एडीशन के साथ ही खलील उर्रहमान का मकाला (शोध) किताबी सूरत में ‘उर्दू में तरक्क़ी पसंद अदबी तहरीक’ आया. खलील की किताब चूंकि इन दोनों किताब के बाद आई थी, इसलिए दोनों किताबों के तज्किरे (उल्लेख) और अक्स की मौजूदगी के बावजूद यह किताब उन दोनों किताबों से सामग्री और मालूमात के एतबार से ज्यादा अच्छी है.

ज़ाहिद ख़ान की किताब इन किताबों की तरह हमें तरक्क़ी पसंद तहरीक के बारे में तफ़्सील से तो नहीं बताती, मगर तरक्क़ी पसंद लिखने वालों के ज़ेहनी ख़ाकों को रचते हुए, अक्स के तौर पर तरक्क़ी पसंदी पर भी रौशनी डालती है. उनकी किताब हमीद अख़्तर की उस किताब जैसी मालूमात पहुंचाती है, जो ‘रुदादे अंजुमन’ के नाम से साल 2000 में लाहौर और 2006 में ‘तख़लीक़कार’, दिल्ली से उर्दू में छपी थी और जिसमें उन महफ़िलों-नशिस्तों के तज्किरे और बहसें बंद हैं, जो तरक्क़ी पसंदी पर बंबई की शामों को रंगीन और संगीन करती रही हैं. ज़ाहिद ख़ान ने इन मजामीन में ख़ाका निगारी के फ़न से ख़ूब फ़ायदा उठाया है. जिसमें उन्होंने लिखने वालों के जिस्मानी और ज़ेहनी ख़ाके लिखते वक्त अपने कलम की ख़ूब जलवानिगारी दिखलाई है. मसलन ‘‘सज्जाद ज़हीर की ये क्रांतिकारी सोच अचानक नहीं बनी थी, बल्कि इसके पीछे भी उस दौर की हंगामाख़ेज पृष्ठभूमि थी. लंदन में ज़हीर की तालीम के साल, दुनियावी एतबार से बदलाव के साल थे. साल 1930 से 1935 तक का दौर परिवर्तन का दौर था.’’ (‘सज्जाद जहीर : तरक्क़ीपसंद तहरीक के रूहेरवां’, पेज-7), ‘‘रशीद जहां ने तालीम के साथ-साथ महज चौदह साल की उम्र से ही मुल्क की आज़ादी के लिए चल रही तहरीकों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी थी……रशीद जहां की जिंदगी में एक नया बदलाव, मोड़ तब आया जब उनकी मुलाक़ात सज्जाद ज़हीर, महमूदुज्फर और अहमद अली से हुई.’’ (‘रशीद जहां का अदबी और समाजी जहां’, पेज-19, 20) (इत्तेफ़ाक़ से ‘अंगारे’ नाम के बदनाम, मगर अब मशहूर अफ़सानवी मजमुएं के तख़लीक़कार यह चारों थे), ‘‘मंटो की तरह राजिंदर सिंह बेदी पर भी चेखव, गोर्की, वर्जीनिया वुल्फ और ज्यांपाल का गहरा असर था. उनसे मुतास्सिर होकर उन्होंने कई अच्छी कहानियां लिखीं. मसलन उनकी कहानी ‘दस मिनिट बारिश में’ पर चेखव की ‘स्लिप’ कहानी का, ‘दिवाला’ में कहानीकार मोपासां और ‘पानी शॉप’ में वर्जीनिया वुल्फ की कहानियों का साफ प्रभाव देखा जा सकता है. एक साक्षात्कार में उन्होंने यह बात ख़ुद कबूली थी.’’ (‘राजिंदर सिंह बेदी : थोड़े में बहुत कुछ कहने वाला अफ़सानानिगार’, पेज-36, 37) इन सतरों को पढ़ने के बाद किताब के चाल-चलन का अंदाजा पढ़ने वालों को हो ही गया होगा. किताब 192 सफ्हों की है, जिसे उर्फ आम में मुख़्तसर कह सकते हैं, लेकिन किताब की हर सतर में एक किताब बराबर मालूमात छिपी है.

इस किताब की अच्छाई का अंदाज़ा यूं भी लगाया जा सकता है कि यह महज उर्दू अफ़सानानिगारों, शायरों तक महदूद नहीं, इसमें इप्टा का इंक़लाबी इतिहास, गीतकार शैलेन्द्र, ड्रामानिगार हबीब तनवीर, विजय तेंदुलकर, नेमिचंद जैन, ए.के. हंगल, नाग बोडस और फ़िल्म ‘गर्म हवा’, ‘पिंजर’ पर लेख होने के साथ-साथ हिन्दी के बाब (अध्याय) में मुंशी प्रेमचंद, भीष्म साहनी, डॉ. कमला प्रसाद, राही मासूम रज़ा, कमलेश्वर, शानी और राजेन्द्र यादव को भी लिया गया है. हालांकि, पसंद अपनी-अपनी लेकिन इस हकीक़त से कोई इंकार नहीं कर सकता कि मुंशी प्रेमचंद ने जब लिखना शुरू किया, तो वे उर्दू के तख़लीक़कार थे. यह सब जानते हैं कि उन्होंने किन वजूहात की वजह से अपने उर्दू नॉवलों की लिपि बदली. इसी तरह यह भी सच है कि राही मासूम रज़ा का नॉवेल ‘आधा गांव’ को कुंवर पाल सिंह ने लिपि बदल किया था. इन दोनों को हिन्दी के पाले में ले जाना ठीक नहीं है. फ़नकार हमेशा उसी ज़बान में तख़लीक़ करता है, जिस पर उसे पूरी दस्तरस (सामर्थ्य) होती है और वह लिखते समय सहूलियत महसूस करता है. यह किसी भी लिखने वाले का अदब पढ़कर, उसमें इस्तेमाल की गई ज़बान से समझा जा सकता है.

ख़ैर, किताब ‘तरक्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ ख़ुद को पढ़वाने लायक़ माद्दा अपने अंदर रखती है. जो लोग उर्दू-हिन्दी के तरक्क़ी पसंद अदब के बारे में जानना-समझना चाहते हैं, वे इस किताब को संजो कर रखेंगे कि यह अहम दस्तावेज़ है, जिसमें तरक्क़ीपसंद अदब की तारीख़ मय सबूत के मौजूद है. ज़ाहिद ख़ान की तहरीर यकसां रफ़्तार ही नहीं रखती, उनका अल्फ़ाज़ का इंतेख़ाब भी उम्दा है. हां कहीं-कहीं आम चलन में बह गए हैं. जिससे उन जैसे ज़िम्मेदार लिखारी को बचना चाहिए था. क्योंकि, आप जिस ज़बान का लफ़्ज़ इस्तेमाल कर रहे हैं, तो आपको पूरी ज़िम्मेदारी से लफ़्ज़ को समझ लेना चाहिए. क्योंकि जब वह छप जाते हैं, तब वो अगर मशहूर होंगे, तो तारीफ़ आपको मिलेगी और मातूब (पीड़ित) होंगे, तो आप समझ सकते हैं कि……

किताब की कीमत बहुत कम है. इतने अच्छे काग़ज़ और छपाई के साथ सिर्फ़ सौ रुपए में ‘उद्भावना प्रकाशन’, दिल्ली से हासिल की जा सकती है. ज़ाहिद ख़ान को बहुत मुबारक!


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