व्यंग्य | धोबी

अलीगढ़ में नौकर को आक़ा ही नहीं “आक़ा-ए-नामदार” भी कहते हैं और वो लोग कहते हैं जो आज कल ख़ुद आक़ा कहलाते हैं ब-मानी तलबा! इससे आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि नौकर का क्या दर्जा है. फिर ऐसे आक़ा का क्या कहना “जो सपेद-पोश” वाक़े हों. सपेद पोश का एक लतीफ़ा भी सुन लीजिए. आपसे दूर और मेरी आपकी जान से भी दूर एक ज़माने में पुलिस का बड़ा दौर दौरा था, उसी ज़माने में पुलिस ने एक शख़्स का बदमाशी में चालान कर दिया, कलेक्टर साहब के यहां मुक़द्दमा पेश हुआ. मुल्ज़िम हाज़िर हुआ तो कलेक्टर साहब दंग रह गए. निहायत साफ़ सुथरे कपड़े पहने हुए सूरत शक्ल से मर्द-ए-माक़ूल, बातचीत निहायत नस्तअलीक़. कलेक्टर साहब ने तअज्जुब से पेशकार से दरयाफ़्त किया कि इस शख़्स का बदमाशी में कैसे चालान किया गया, देखने में तो ये बिल्कुल बदमाश नहीं मालूम होता! पेशकार ने जवाब दिया, “हुज़ूर! ताम्मुल न फ़रमाइए. ये सफ़ेदपोश बदमाश है!”

लेकिन मैंने यहां सफ़ेदपोश का लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया है कि मैंने आज तक किसी धोबी को मैले कपड़े पहने नहीं देखा. और न उसको ख़ुद अपने कपड़े पहने देखा. अलबत्ता अपना कपड़ा पहने हुए अक्सर देखा है, बाज़ों को इस पर ग़ुस्सा आया होगा कि उनका कपड़ा धोबी पहने हो. कुछ इस पर भी जिज़-बीज़ हुए होंगे कि ख़ुद उनको धोबी के कपड़े पहनने का मौक़ा न मिला. मैं अपने कपड़े धोबी को पहने देखकर बहुत मुतास्सिर हुआ हूं कि देखिए ज़माना ऐसा आ गया कि ये ग़रीब मेरे कपड़े पहनने पर उतर आया गो उसके साथ ये भी है कि अपनी क़मीस धोबी को पहने देखकर मैंने दिल ही दिल में इफ़्तिख़ार भी महसूस किया है. अपनी तरफ़ से नहीं तो क़मीस की तरफ़ से. इसलिए कि मेरे दिल में ये वस्वसा है कि उस क़मीस को पहने देखकर मुझे दर पर्दा किसी ने अच्छी नज़र से न देखा होगा. मुम्किन है ख़ुद क़मीस ने भी अच्छी नज़र से न देखा हो.
धोबियों से हाफ़िज़ और इक़बाल भी कुछ बहुत ज़्यादा मुतमइन न थे. मुझे अशआर याद नहीं रहते और जो याद आते हैं वह शेर नहीं रह जाते, सहल-ए-मुम्तना बन जाते हैं. कभी सहल ज़्यादा और मुम्तना कम और अक्सर मुम्तना ज़्यादा और सहल बिल्कुल नहीं. इक़बाल ने मेरे ख़याल में (जिसमें उस वक़्त धोबी बसा हुआ है) शायद कभी कहा था,
आह बेचारों के आसाब पे धोबी है सवार!
या हाफ़िज़ ने कहा हो,
फुग़ां कीन गा ज़रान शोख़-व-क़ाबिल-ए-दार शह्र-ए-आशोब

उन दोनों का साबिक़ा धोबियों से यक़ीनन रहा था. लेकिन मैं धोबियों के साथ ना-इंसाफ़ी न करूंगा. हाफ़िज़ और इक़बाल को तो मैंने तसव्वुफ़ और क़ौमियात की वजह से कुछ नहीं कहा. लेकिन मैंने बहुत से ऐसे शोरा देखे हैं, जिनके कपड़े कभी इस क़ाबिल नहीं होते कि दुनिया का कोई धोबी सिवा हिंदोस्तान के धोबी के धोने के लिए क़ुबूल कर ले. अगर उन कपड़ों को कोई जगह मिल सकती है तो सिर्फ़ उन शोरा के जिस्म पर. मैं समझता हूं कि लड़ाई के बाद जब हर चीज़ की दरोबस्त नए सिरे की जाएगी उस वक़्त आम लोगों का ये हक़ बैन-उल-अक़वामी पुलिस माने और मनवाएगी कि जिस शायर के कपड़े कोई धोबी धोता हो बशर्ते कि धोबी ख़ुद शायर न हो, उससे कपड़े धुलाने वालों को ये हक़ पहुंचता है कि धुलाई का नर्ख़ कम करा लें. ये शोरा और उनके बाज़ कद्रदान भी धोबी के सुपुर्द अपने कपड़े उस वक़्त करते हैं. जब उनमें और कपड़े में कूड़ा और कूड़ा गाड़ी का रिश्ता पैदा हो जाता है.

धोबी कपड़े चुराते हैं, बेचते हैं, किराए पर चलाते हैं, गुम करते हैं, कपड़े की शक्ल मस्ख़ कर देते हैं, फाड़ डालते हैं, यह सब मैं मानता हूँ और आप भी मानते होंगे लेकिन इसमें भी शक नहीं कि हमारे आपके कपड़े अक्सर ऐसी हालत में उतरते हैं कि धोबी क्या कोई देवता भी धोए तो उनको कपड़े की हैयत-व-हैसियत में वापस नहीं कर सकता. मसलन ग़रीब धोबी ने हमारे आपके उन कपड़ों को पानी में डाला हो, मैल पानी में मिल गया, अल्लाह-अल्लाह ख़ैर-सल्ला जैसे ख़ाक आग का पुतला ख़ाक में मिल जाता है, ख़ाक ख़ाक में, आग आग में, पानी पानी में और हवा हवा में. अलबत्ता उन कपड़े पहनने वालों का ये कमाल है कि उन्होंने कपड़े को तो अपनी शख़्सियत में जज़्ब कर लिया और शख़्सियत को कसाफ़त में मुंतक़िल कर दिया. मसला लताफ़त बे-कसाफ़त जलवा पैदा कर नहीं सकती! और यही कसाफ़त हम दुनियादारों को क़मीस पगड़ी और शलवार में नज़र आती हो. ये बात मैंने कुछ यूं ही नहीं कह दी है. ऊंचे क़िस्म के फ़लसफ़े में आया है कि अर्ज़ बग़ैर जौहर के क़ायम रह सकता है और न भी आया हो तो फ़लसफ़ियों को देखते ये बात कभी न कभी माननी पड़ेगी.

धोबी के साथ ज़ेह्न में और बहुत सी बातें आती हैं, मसलन गधा, रस्सी, डंडा, धोबी का कुत्ता, धोबन (मेरी मुराद परिंद से है), इस्त्री (इससे भी मेरी मुराद वो नहीं है, जो आप समझते हैं), मैले-साबित-फटे-पुराने कपड़े वग़ैरा. मुम्किन है आपकी जेब में भूले से कोई ऐसा ख़तरा गया हो जिसको आप सीने से लगा रखते हों लेकिन किसी शरीफ़ आदमी को न दिखा सकते हों और धोबी ने उसे धो पछाड़ कर आपका आंसू ख़ुश्क करने के लिए ब्लॉटिंग पेपर बना दिया हो या कोई यूनानी नुस्ख़ा आप जेब में रख कर भूल गए हों और धोबी उसे बिल्कुल “साफ़ नमूदा” कर के लाया हो.

लड़ाई के ज़माने में जहां और बहुत सी दुश्वारियां हैं, वहां ये आफ़त भी कम नहीं कि बच्चे कपड़े फाड़ते हैं, औरतें कपड़े समेटती हैं. धोबी कपड़े चुराते हैं, दुकानदार क़ीमतें बढ़ाते हैं और हम सबके दाम भुगतते हैं. लड़ाई के बाद ज़िंदगी की अज़-सर-ए-नौ तंज़ीम हो या न हो कोई तदबीर ऐसी निकालनी पड़ेगी कि कपड़े और धोबी की मुसीबतों से नौ-ए-इंसानी को कुल्लीयतन निजात न भी मिले तो बहुत कुछ सहूलत मयस्सर आ जाए.

कपड़े का मसरफ़ फाड़ने के अलावा हिफ़ाज़त, नुमाइश और सतर पोशी है. मेरा ख़याल है कि ये बातें इतनी हक़ीक़ी नहीं हैं, जितनी ज़ेह्नी या रस्मी. सर्दी से बचने की तरकीब तो यूनानी ईतबा और हिंदोस्तानी साधू जानते हैं, एक कुश्ता खाता है, दूसरा जिस्म पर मल लेता है. नुमाइश में सतर पोशी और सतर नुमाई दोनों शामिल हैं. मेरा ख़्याल है कि अगर सतर के रक़बे पर कंट्रोल आइद कर दिया जाए तो कपड़ा यक़ीनन कम ख़र्च होगा और देखभाल में भी सहूलत होगी. जंग के दौरान में ये मराहिल तय हो जाते तो सुलह का ज़माना आफ़ियत से गुज़रता.

लेकिन अगर ऐसा न हो सके तो फिर दुनिया की हुकूमतों को चाहिए कि वो तमाम साइंसदानों और कारीगरों को जमा करके क़ौम की इस मुसीबत को उनके सामने पेश करें कि आइन्दा से लिबास के बजाय एंटी धोबी टैंक क्यों-कर बनाए और ओढ़े पहने जा सकते हैं. अगर ये नामुमकिन है और धोबियों के फाड़ने-पछाड़ने और चुराने के पैदाइशी हुक़ूक़ मजरूह होने का अंदेशा हो, जिसको दुनिया की ख़ुदा-तरस हुकूमतें गवारा नहीं कर सकतीं या बाज़ बैन-उल-अक़वामी पेचीदगियों के पेश आने का अंदेशा है तो फिर राय-ए-आम्मा को ऐसी तर्बियत दी जाए कि लिबास पहनना ही यक क़लम मौक़ूफ़ कर दिया जाए और तमाम धोबियों को कपड़ा धोने के बजाए बैन-उल-अक़वामी मुआहिदों और हिंदोस्तान की तारीख़ों को धोने-पछाड़ने और फाड़ने पर मामूर कर दिया जाए.

ब-फ़र्ज़-ए-मुहाल सतर पोशी पर कंट्रोल नामुमकिन हो या तर्क-ए-लिबास की स्कीम पर बुज़ुर्गान-ए-क़ौम जामे से बाहर हो जाएं और धोबी एजिटेशन की नौबत आए तो फिर मुल्क के तूल-व-अर्ज़ में “भारत भभूत भंडार” खोल दिए जाएं. उस वक़्त हम सब सर जोड़कर और एक दूसरे के कान पकड़ कर ऐसे भभूत ईजाद करने की कोशिश करेंगे जिनमें चाय के ख़वास होंगे यानी गर्मी में ठंडक और सर्दी में गर्मी पैदा करेंगे.

सतर पोशी से चश्म पोशी करना पड़ेगी. अगर हम उतनी तरक़्क़ी नहीं कर सकते हैं और क़ौम-व-मुल्क की नाज़ुक और न गुफ़्ता ब हालत देखते हुए भी सतर को क़ुर्बान नहीं कर सकते तो भारत भभूत भंडार के ज़रिए ऐसे इंजीनियर और आर्टिस्ट पैदा किये जाएंगे जो सतर को कुछ का कुछ कर दिखाएंगे. जैसे आजकल लड़ने वाली हुकूमतें दुश्मन को धोका देने के लिए धोके की टट्टी क़ाएम कर दिया करते हैं, जिसको अंग्रेज़ी में ‘स्मोक स्क्रीन’ कहते हैं और जिसके तसर्रुफ़ से दीवार दर्द-व-दीवार नज़र आने लगते हैं.
मैं तफ़सील में नहीं पड़ना चाहता. सिर्फ़ इतना अर्ज कर देना काफ़ी समझता हूं कि इस भभूतियाई आर्ट के ज़रिए हम किसी हिस्सा-ए-जिस्म को या इनमें से हर एक को इस तरह मस्ख़ या मुज़य्यन कर सकेंगे कि वो कुछ का कुछ नज़र आए. बक़ौल एक शायर के जो इस आर्ट के रम्ज़ से ग़ालिबन वाक़िफ़ थे यानी,
वह्शत में हर एक नक़्शा उल्टा नज़र आता है
मजनूं नज़र आती है लैला नज़र आता है

शोरा ने हमारे आपके अज़ा-व-जवारेह के बारे में तशबीह इस्तिआरा या जुनून में जो कुछ कहा है, भारत भभूत के आर्टिस्ट इसी क़िस्म की चीज़ हमारे आपके जिस्म पर बनाकर ग़ज़ल को नज़्म-ए-मुअर्रा कर दिखाएंगे. उस वक़्त आर्ट बराए आर्ट और आर्ट बराए ज़िंदगी का तनाज़ा भी ख़त्म हो जाएगा. बहुत मुम्किन है, भभूत भंडार में ऐसे सुरमे भी तैयार किए जा सकें जिनकी एक सलाई फेरने से छोटी चीज़ें बड़ी और बड़ी छोटी नज़र आने लगें या दूर की चीज़ क़रीब और क़रीब की दूर नज़र आए. उस तौर पर शोरा आर्ट और तसव्वुफ़ को एक दूसरे से मरबूत कर सकेंगे. दूसरी तरफ़ सतर दोस्तों या सतर दुश्मनों की भी अश्क शूई हो जाएगी. उस वक़्त धोबियों को मालूम होगा कि डिक्टेटर का अंजाम क्या होता है.

अलीगढ़ में मेरे ज़माना-ए-तालिब-ए-इल्मी के एक धोबी का हाल सुनिए, जो अब बहुत मुअम्मर हो गया है वो अपने गांव में बहुत मुअज्ज़िज़ माना जाता है. दो मंज़िला वसीअ पुख़्ता मकान में रहता है. काश्तकारी का कारोबार भी अच्छे पैमाने पर फैला हुआ है. गांव में कॉलेज के क़िस्से इस तौर पर बयान करता है, जैसे पुराने ज़माने में सूरमाओं की बहादुरी-व-फ़य्याज़ी और हुस्न-व-इश्क़ के अफ़साने और नज़्में भाट सुनाया करते थे. कहने लगा, मियां वो भी क्या दिन थे और कैसे-कैसे अशराफ़ कॉलेज में आया करते थे. क़ीमती ख़ूबसूरत नर्म-व-नाज़ुक कपड़े पहनते थे, जल्द उतारते थे, देर में मंगाते थे, हर महीना दो-चार कपड़े इधर-उधर कर दिए, वहां ख़बर भी न हुई, यहां माला-माल हो गए. उनके उतारे कपड़ों में भी मेरे बच्चे और रिश्तेदार ऐसे मालूम होते थे जैसे अलीगढ़ की नुमाइश. आजकल जैसे कपड़े नहीं होते थे गोया बोरी और छोलदारी लटकाए फिर रहे हैं. एक कपड़ा धोना पच्चास हाथ मुगदर हिलाने की ताक़त लेता है. कैसा ही धोओ बनाओ आब नहीं चढ़ता. उस पर ये कि आज ले जाओ, कल दे जाओ. कोई कपड़ा भूल-चूक में आ जाए तो उम्र भर की आबरू ख़ाक में मिला दें.

मियां उन रईसों के कपड़े धोने में मज़ा आता था, जैसे दूध-मलाई का कारोबार. धोने में मज़ा, इस्त्री करने में मज़ा, देखने में मज़ा, दिखाने में मज़ा, कुएं के पास कपड़े धोते थे कि कोतवाली करते थे. पास-पड़ोस दूर से खड़े तमाशा देखते. पुलिस का सिपाही भी सलाम ही करके गुज़रता. मजाल थी जो कोई पास आ जाए. बिरादरी में रिश्ता-नाता ऊंचा लगता कि सय्यद साहब के कॉलेज का धोबी है. पंचायत चुकाने दूर-दूर से बुलावा आता. ऐसे-ऐसे कपड़े पहनकर जाता कि गांव के मुखिया और पटवारी देखने आते. जो बात कहता सब हाथ जोड़कर मानते कोई चीं-चपड़ करता तो कह देता, बच्चा हेकड़ी दिखाया तो सय्यद साहब के हां ले चलकर वो गत बनवाई हो कि छट्टी का दूध याद आ जाएगा, फिर कोई न मंगता!

शहर में कहीं शादी-ब्याह होता तो मुझे सबसे पहले बुलाया जाता, लड़की-लड़के का बुज़ुर्ग कहता, भैया अंगनू लड़की की शादी है इज़्ज़त का मुआमला है, बिरादरी का सामना है, मदद का वक़्त है, मैं कहता निश्चिंत रहो. तुम्हारी नहीं मेरी बेटी. कॉलेज फले-फूले फ़िक्र मत करो, परमात्मा का दिया सब कुछ मौजूद है. मियां मानव कॉलेज आता लड़कों से कहता हुज़ूर लड़की की शादी है अब के जुमा को कपरे न आएंगे. सब कहते अंगनू कुछ पर्वा नहीं, हमको भी बुलाना. जो चीज़ चाहो, ले जाओ, दब के काम न करना. मियां फिर क्या था गज़ भर की छाती हो जाती!

एक बारी के कपड़े, दरी, फ़र्श, चांदनी, तौलिए, दस्तरख़्वान सब दे देता. महफ़िल चमाचम हो जाती, ऐसा मालूम होता जैसे कॉलेज का कोई जलसा है. बराती दंग रह जाते, मियां हेरा-फेरी और हड़गम में एक आध गुम हो जाता कुछ रख लेता या इधर-उधर दे डालता. दूसरे-तीसरे जुमा को कॉलेज आता, हर लड़का बजाए इसके कि कपड़े पर टूट पड़ता दूर ही से पुकारता, क्यों अंगनू अकेले-अकेले लड़की की शादी कर डाली, हमको नहीं बुलाया. सबको सलाम करता, कहता, मियां तुम्हारा लिखने-पढ़ने का हर्ज होता, कहां जाते. तुम्हारे इक़बाल से सब काम ठीक हो गया.

मियां लोग नवाब थे. कहते, अंगनू हमको फुर्सत नहीं, मैले कपड़े ले लेना. धुले कपड़े बक्स में रख देना. चाबी तकिए के नीचे होगी. बक्स बंद करके मुझे दे जाना. उनको क्या ख़बर कौन से कपड़े ले गया था, क्या वापस कर गया. कभी कुछ याद आ गया तो पूछ बैठे, अंगनू फ़लां कपड़ा नज़र नहीं आया, मैं कह देता सरकार वो लड़की की शादी न थी. कहते हां-हां ठीक कहा याद नहीं रहा और क्यों तुमने हमको नहीं बुलाया. मेरा ये बहाना और उनका ये कहना चलता रहता और फिर ख़त्म हो जाता.
कॉलेज में क्रिकेट की बड़ी धूम थी, एक दफ़ा कप्तान साहब ने घाट पर से बुलवा भेजा. कहने लगे अंगनू दिल्ली से कुछ खेलने वाले आ गए हैं. हम लोगों को खेलने की फ़ुर्सत नहीं लेकिन उनको बग़ैर मैच खिलाए वापस भी नहीं किया जा सकता. चुनांचे ये मैच कॉलेज के बैरर खेलेंगे.

तुम मुमताज़ के यहां चले जाओ, वो बतलाएगा कि कितने कोट-पतलून और क़मीस मफ़लर वग़ैरा दरकार होंगे. बैरों की पूरी टीम को क्रिकेट का यूनीफार्म मुहय्या कर दो, कल ग्यारह बजे दिन को मैं सब चीज़ें ठीक देखूं, मियां कप्तान साहब का ये जनडैली आर्डर पूरा किया गया. टीम खेली और जीत गई. कप्तान साहब ने सबको दावत दी और भरे मजमे में कहा, “अंगनू का शुक्रिया!”

अक्सर सोचता हूं कि धोबी और लीडर में इतनी मुमासलत क्यों है. धोबी लीडर की तरक़्क़ी याफ़्ता सूरत है या लीडर धोबी की! दोनों धोते-पछाड़ते हैं. धोबी गंदे चीकट कपड़े अलाहिदा ले जाकर धोता है और साफ़ और सजल करके दुबारा पहनने के क़ाबिल बना देता है. लीडर बर-सर-ए-आम गंदे कपड़े धोता है और गंदगी उछालता है, ‘वॉशिंग डर्टी लिनेन इन पब्लिक’ का यही तो मफ़हूम है. लीडर का मक़सद नजासत को दूर करने का उतना नहीं होता जितना नजासत फैलाने का. धोबियों के लिए कपड़े धोने के घाट मुक़र्रर हैं. लीडर के लिए प्लेटफार्म हाज़िर हैं. इसमें शक नहीं धोबी कपड़े फाड़ता है, ग़ायब कर देता है और उनका आब-व-रंग बिगाड़ देता है. लेकिन लीडर की तरह वो गंदगी को पायदार या रंगीन नहीं बनाता न मुतअद्दी करता है.

हमारे मुअल्लिम भी धोबी से कम नहीं. वो शागिर्द को उसी तरह धोते-पछाड़ते-मरोड़ते और उस पर इस्त्री करते हैं, जैसे धोबी करता है. आपने बाज़ धोबियों को देखा होगा जो धुलाई की ज़हमत से बचने और मालिक को धोका देने के लिए सफ़ेद कपड़े पर नील का हल्का सा रंग दे देते हैं. धोबी को उसकी मुतलक़ पर्वा नहीं कि सर पर से घुमा-घुमाकर कपड़े को पत्थर पर पटकना, ऐंठना और निचोड़ना और उसका लिहाज़ न करना कि कपड़े के तार-व-पौद का रंग का क्या हस्र होगा, बटन कहां जाएंगे, लिबास की वज़ा-क़ता क्या से क्या हो जाएगी, इस्त्री ठीक गर्म है या नहीं ठंडी, इस्त्री करना चाहिए या गर्म बिल्कुल इसी तरह मुअल्लिम को इसकी पर्वा नहीं कि तालिब-ए-इल्म किस क़ुमाश का है, उस पर क्या रंग चढ़ा हुआ है, और उसके दिल-व-दिमाग़ का क्या आलम है. वो उसे दे-दे मारता है और भरकस निकाल देता है. वो तालिब-ए-इल्म की इस्तेदाद उसके मैलानात और उसकी उलझनों को समझने की कोशिश नहीं करता. सिर्फ़ अपना रंग चढ़ाने की कोशिश करता रहता है, चुनांचे गाज़ुरी के सारे मराहिल तय करने के बाद जब तालिब-ए-इल्म दुनिया के बाज़ार या गाहक के हाथ में आता है तो उसका जिस्म ज़ेह्न-व-दिमाग़ सब जवाब दे चुके होते हैं. उस पर रंग भी न पाएदार होता है. कलफ़ देकर उस पर जो बे-तुकी और बे-तकान इस्त्री की होती है वो हवादिस-ए-रोज़गार के एक ही छींटे या झोंके से बद-रंग और कावाक हो जाती है. धोबी की ये रिवायात मुअल्लिमी में पूरे तौर पर सरायत कर चुकी हैं.

हिंदोस्तानी धोबी के बारे में आपने एक मशहूर सितम ज़रीफ़ का फ़िक़रा सुना होगा, जिसने उसको कपड़े पछाड़ते देखकर कहा था कि दुनिया में अक़ीदा भी क्या चीज़ है, उस शख़्स को देखिए कपड़े से पत्थर तोड़ डालने के दरपे है. अगर सितम ज़रीफ़ ने हिंदोस्तानी शोरा या उश्शाक का मुताला किया होता जो नंग-ए-सजदा से महबूब का संग-ए-आस्तां घिस कर ग़ायब कर देते हैं तो उस पर मालूम नहीं क्या गुज़र जाती. ये तो पुराने शोरा का वतीरा था, हाल के शोरा का रंग कुछ और है. उन्होंने सोसाइटी के मैले गंदे शारा-ए-आम पर धोने-पछाड़ने का नया फ़न ईजाद किया है. इस क़बील के शोरा सोसाइटी की ख़राबियों को दूर करने के इतने क़ाईल और शायद क़ाबिल भी नहीं रहे, जितना उन ख़राबियों का शिकार हो चुके हैं या उसकी सलाहियत रखते हैं. वो उन ख़राबियों की नुमाइश करने और इसको एक फ़न का दर्जा देने के दरपे हैं. कमज़ोरियों को तस्लीम करना और उनको दूर करने की कोशिश करना और मुस्तहसिन आसार हैं लेकिन उनको आर्ट या इलहाम का दर्जा देना कमज़ोरी और बद तौफीक़ी है. शायरी में धोबी का कारोबार बुरा नहीं लेकिन धोबी और धोबी के गधे में तो फ़र्क़ करना ही पड़ेगा!

मेरा एक धोबी से साबिक़ा रहा है, जिसे बहाने तराशने में वो महारत हासिल है जो उर्दू अख़बारात-व-रसाइल की एडिटर को भी नसीब नहीं. पर्चा के तवक्कुफ़ से शाए होने पर या बिल्कुल न शाए होने पर ये एडिटर जिस-जिस तरह के उज़्र पेश करते हैं और आशिक़ाना शेर पढ़ते हैं और फ़िल्मी गाने सुनाते हैं वो एक मुस्तक़िल दास्तान है और फ़न भी. लेकिन मेरा धोबी और उसकी बीवी जिस क़िस्म के हीले तराशते हैं, वो उन्हीं का हिस्सा है.
मसलन मौसम ख़राब है, इसके ये मानी हैं कि धूप नहीं हुई कि कपड़े सूखते या गर्द-व-ग़ुबार का ये आलम था कि धुले कपड़े बिन धुले हुए हो गए या धूप इतनी सख़्त थी कि धोने के लिए कपड़े का तर करना मुहाल हो गया! सेहत ख़राब है यानी धोबी या धोबन या उसके लड़के बाले या उसके दूर-व-नज़दीक के रिश्तेदार हर तरह की बीमारियों में मुब्तिला रहे. क़िस्मत ख़राब है यानी उनमें से एक वर्ना हर एक मर गया. ज़माना ख़राब है, यानी चोरी हो गई, फ़ौजदारी हो गई या गधा कांजी हाऊस भेज दिया गया. कपड़ा ख़राब है यानी फट गया, बदरंग हो गया या गुम हो गया.

आक़िबत ख़राब है यानी रेडियो पर तरह-तरह की ख़बरें आती हैं और मिट्टी ख़राब है. यानी वो मेरे कपड़े धोता है. मेरे ख़िलाफ़ और ग़ालिबन नाज़रीन में से भी बाज़ हज़रात के ख़िलाफ़ धोबियों को ये शिकायत है कि मैं कपड़े उतारने और धोबी के सपुर्द करने में ज़्यादा देर लगाता हूं, यही नहीं बल्कि धोबी के हवाले करने से पहले वो लोग जो धोबी नहीं हैं या धोबी से भी गए गुज़रे हैं, मेरे उतरे हुए कपड़ों में मैल दूर करने की अपने-अपने तौर पर कोशिश और तजुर्बे करते हैं. कोई चूना रगड़ कर कोई कत्था, प्याली प्लेट और देगची पोंछकर कोई झाड़ू का काम लेकर कोई आलू-टमाटर और कोई लंगोट बांधकर और जब ये तमाम तजुर्बे या मराहिल तय हो लेते हैं तो वो कपड़े धोबी के हवाले किए जाते हैं.
दुनिया को रंग बिरंग के खतरों से साबिक़ा रहा है. मसलन लाल ख़तरा, पीला ख़तरा, सफ़ेद ख़तरा, काला ख़तरा, उनसे किसी न किसी तरह और किसी न किसी हद तक गुलू ख़लासी होती रहती है लेकिन ये धोबी ख़तरा ज़िंदगी में इस तरह ख़ारिश बनकर समाया गया है कि निजात की कोई सूरत नज़र नहीं आती. मुसीबत-व-मायूसी में इंसान तौहम-परस्त हो जाता है और टोने-टोट्के और फ़ाल-व-तावीज़ पर उतर आता है, मैंने धोबी को ज़ेह्न में तौलकर ग़ालिब से रुजू किया तो फ़ाल में ये मिस्रा निकला,
तेरे बे-मेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबां क्यों हो
घबरा गया लेकिन चूंकि ग़ालिब ये भी कह चुके थे कि अगले ज़माने में कोई मीर भी था, इसलिए मीर साहब की ख़िदमत में हाज़िर हुआ. वहां से ये जवाब मिला;
हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
इसी धोबी के सब अमीर हुए

धोबी जिस दिन धुले कपड़े लाता है और मैले कपड़े ले जाता है, मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे घर में बरकतें आईं और बलाएं दूर हुईं, चांदनी, चादरें, ग़िलाफ़, पर्दे, दस्तरख़्वान, मेज़पोश सब बदल गए, नहा-धोकर छोटे-बड़ों ने साफ़-सुथरे कपड़े पहने. तबीयत शगुफ़्ता हो गई और कुछ नहीं तो थोड़ी देर के लिए ये महसूस होने लगा कि ज़िंदगी बहरहाल इतनी पुरमहन नहीं है जितनी कि बताई है.

(मरहूम सिद्दीक़ी साहब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में हुआ करते थे. अपने दौर के मशहूर व्यंग्यकारों में से एक रहे.)

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