व्यंग्य | आधुनिक भारत की इससे सुंदर तस्वीर और क्या होगी भला

एक मित्र ने अभी दो दिन पहले सेना (भारतीय नहीं) में पद भार सम्भाला है, और दूसरे ने आर्मी (इंडियन नहीं) जॉइन की है. एक मित्र तो सीधे किसी यूथ ब्रिगेड का ब्रिगेडियर बन गया है. मैंने तीनों मित्रों का संघर्ष देखा है. इन पदों को प्राप्त करने के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिया, तब जाकर यह गौरवपूर्ण क्षण आया है. मन आह्लादित है. तीनों को हृदय से शुभकामनाएँ.

चारों ओर नज़र घुमाकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि लोग सफलता के नवीन आयाम स्थापित कर रहे हैं. बस मैं ही पीछे छूट गया हूँ.

पड़ोसी, सनाढ्य ब्राह्मण सभा का ज़िला उपाध्यक्ष बन गया है और सहकर्मी, कान्यकुब्ज ब्राह्मण सभा का. एक मित्र, इन दोनों से आगे निकलकर सर्वब्राह्मण सभा का नगर प्रमुख बन गया है. सभी एक से एक इलीट संस्थाओं की फ़ेलोशिप प्राप्त कर रहे हैं.

बचपन का सहपाठी, क्षत्रिय महासभा की युवा विंग का महामंत्री है और दूसरा मित्र किरार क्षत्रिय महासभा की प्रांतीय कार्यकारिणी को सुशोभित कर रहा है. उपलब्धियों की इस सूची में मातृशक्ति भी पीछे नहीं है.

भाभीजी जैन समाज तेरापंथ की महिला विंग की राष्ट्रीय पदाधिकारी बन गईं. कल पुष्प मालाओं से लदी उनकी फोटू देखकर हृदय गौरव से भर गया. एक बहन भी हरियाली तीज पर अपने गोत्र की बहनों के साथ झूला झूलते दिखी. और कई प्रतिभाशाली नगीने तो छुपे हुए हैं.

एक लँगोटिया मित्र ने बहुत ही हल्के-फुल्के अंदाज़ में बताया कि वह सेन समाज का महामंत्री है. इतनी विनम्रता! उपलब्धि का कोई घमंड नहीं. मैंने कहा, “आपने (हाँ, आप ही कहा) कभी बताया नहीं!” वह विनम्र ही बना रहा, “अरे इसमें बताने जैसा क्या है, समाज के लोग आए और महामंत्री बनाकर चले गए.” फिर मित्र के मोबाइल पर थानेदारजी का फ़ोन आ गया. मित्र, समाज के किसी व्यक्ति की कोई समस्या सुलटाने के लिए कटिबद्ध था.

रोजगार के इतने प्रतिष्ठित और सुनहरे अवसर पहले कहाँ उपलब्ध थे? जाट महासभा, कायस्थ संघ, गुर्जर महासभा, यादव महासभा, लोधी महासभा, धाकड़ महासभा, माथुर वैश्य संघ, माथुर चतुर्वेदी, कान्यकुब्ज, सनाढ्य, भार्गव, मैथिल, सरयूपारी, सेन, विश्वकर्मा, बाल्मीकि, जायसवाल, कुर्मी, पाल-बघेल जैसे अनेक संगठन प्लेसमेंट कर रहे हैं. बस आवश्यकता कड़ी मेहनत, लगन और पक्के इरादे की है. बेरोज़गारी दूर करने का उत्तरदायित्व सरकारों ने अब जातियों को सौंप दिया है.

युवाओं में समाज के उत्थान के प्रति जो जोश है, वैसा पहले कभी नहीं था.पहले आदमी बुढ़ापे में जातिवादी होता था. आज का युवा बचपन से जातिवादी हो रहा है. यह एक शुभ संकेत है. शायद राष्ट्र के उत्थान में यह भी एक बाधा रही, जो अब दूर हो रही है. साम्प्रदायिकता के लक्ष्य को तो हमने सन् सैंतालीस में ही प्राप्त कर लिया था. पर जातिवाद का लक्ष्य अधूरा था. हम इसे जल्द ही प्राप्त कर लेंगे. इस प्रकार हम वास्तव में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के लक्ष्य को प्राप्त कर रहे हैं.

हम स्वतंत्र हैं क्योंकि जो चाहे कर सकते हैं, हम समान है क्योंकि हम सब अपनी-अपनी बिरादरी के समान रूप से सदस्य हैं, और बंधुत्व तो हमारी बिरादरी में पहले से ही है, हम उसे और बढ़ा रहे हैं. समान तो हम इतने हो चुके हैं कि यदि गाड़ी पर यह न लिखा हो कि वह किस जाति के बॉयज़ की है, तो हमें पता ही न चले कि उसके अंदर किस जाति के बॉयज़ हैं. सब एक जैसे दिखते हैं. और उन बॉयज़ में भी मारपीट-तोड़फोड़ की स्वतंत्रता हेतु अद्भुत बंधुत्व दिखाई देता है.

मैं तो हम भारतीयों की इस अद्भुत मेधा के आगे नतमस्तक रहता हूँ. विद्वान जातीय अस्मिता की ही बात करते रह जाते हैं, कोई भी कलेक्टिव कास्ट कॉन्शेंस की बात ही नहीं करता. एक बिरादरी के लोगों की अंतरात्मा से एक जैसी आवाज़ आती है. दो जाति के नितांत अपरिचित लोग भी मिलें तो भरत मिलाप जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है.

हमारे संविधान निर्माता इतनी सारी जातियों और उनकी इस सामूहिक अन्तर्रात्मा से घबरा गए और फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम ले आए. पर जातीय बुद्धि ने उसे अपने तरीके से प्रपोशनल रिप्रजेंटेशन बना दिया.

एक समाज की माँग है कि चार विधायक के टिकट हमें दो, हमारी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं होगी. तीन लोकसभा सीटों पर फलाँ जाति का प्रभुत्व है, तो फलाँ जाति ने भी हुँकार भर दी है. ‘उस’ समाज का कहना है कि यदि उनकी बात नहीं सुनी गई, तो वे ईंट से ईंट बजा देंगे. नेताजी मंच से कहते हैं- हम ‘उस’ समाज के ऋणी हैं. ‘उस’ समाज का एक गौरवशाली इतिहास है. हम ‘उस’ समाज के लिये सब कुछ करेंगे. और ऐसा भी नहीं कि ‘उस’ समाज केवल धमकी दे रहा है.

कई बार ‘उस’ समाज, ईंट से ईंट तो नहीं, पटरी उखाड़कर, गिट्टी से गिट्टी बजा देता है. जब कोई जाति गिट्टी से गिट्टी बजाती है, तो राजनीतिज्ञों के लिए कर्णप्रिय संगीत उत्पन्न होता है. नेताजी प्रत्याशियों की सूची का विच्छेदन कर बताते हैं कि ‘उस’ समाज को इतने टिकट दिए हैं, और ‘फलाँ’ को इतने. पत्रकार महोदय सब लिख लेते हैं, दूसरे दिन अख़बार में छापने के लिए.

पत्रकार भी पहले जैसे नहीं है. वे भी देश के विकास के प्रति प्रतिबद्ध हैं. पहले के पत्रकार न तो गम्भीर थे और न ही बोल्ड. वे लिखते थे- उस क्षेत्र में एक जाति विशेष का प्रभुत्व है, या जाति विशेष के वोट अधिक हैं, या अमुक नेता को एक जाति विशेष का समर्थन प्राप्त है. आज के पत्रकारों ने देश के विकास में जातियों के महत्व को पहचाना.

वे अब खुलकर बताते हैं कि उस क्षेत्र में ठाकुर वोट इतने हैं, और ब्राह्मण वोट इतने. बाक़ायदा जातियों का विश्लेषण छापते हैं. बताते हैं कि नेताजी को पाटीदारों के वोट मिल रहे हैं, मेवाड़ा समुदाय के लोग उनसे नाराज़ हैं. मीडिया का आधुनिक भारत के निर्माण में यह योगदान इतिहास में लिखा जाएगा.

आज टहलते हुए एक मित्र के घर जा पहुँचा. मित्र कुछ लिखने में मग्न था. दरियाफ़्त की तो मित्र ने बताया कि अध्यक्षजी ने जाति के लिए एक गीत लिखने को कहा है. शुरुआत की है. पँक्तियाँ हैं-

हम हैं निर्भीक बहादुरगण
हम हैं भारत के ब्राह्मण

“वाह, कितनी सुंदर पँक्तियाँ हैं,” मैंने कहा. एक दिन वो आएगा जब हर जाति का अपना अलग क़ौमी तराना होगा. अपना झण्डा होगा. इतना ही नहीं, पिछले कुछ समय में कुछ ऐसे टूर्नामेंट्स में गया, कि लगता है भारत में भविष्य में ठाकुर ओलम्पिक, जाटव ओलम्पिक, एशियाड की तर्ज पर यादवयाड, पण्डितयाड, सफ़लतापूर्वक आयोजित होने लगेंगे. मैं भविष्य में एक अंतर्जातीय ओलम्पिक की भी सम्भावना देख रहा हूँ. सोचिये कितना गौरवपूर्ण क्षण होगा जब सब अपनी-अपनी जाति का झण्डा लेकर मार्च पास्ट निकालेंगे. अख़बार में लिखा आएगा- भूमिहार पाँच स्वर्ण, तीन रजत और दो कांस्य के साथ पदक तालिका में चौथे स्थान पर हैं.

आख़िर देश के विकास के लिए खेलों का विकास भी तो होना चाहिये. शुभकामनाएँ.

कवर | pixabay.com

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