व्यंग्य | बनाम लार्ड कर्ज़न

माई लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भंगड़ को बुलबुलका बड़ा चाव था. गांव में कितने ही शौक़ीन बुलबुलबाज़ थे. वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशम्भु शर्मा बुलबुलें लड़ाने का चाव नहीं रखता था. केवल एक बुलबुल को हाथ पर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था. पर ब्राह्मण कुमार को बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालक को बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी. अथवा उसके हाथ से बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा. बहुत अनुरोध से यदि पिता ने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रहने पाती थी. वह भी पिता की निगरानी में.

सराय के भटियारे बुलबुलें पकड़ा करते थे. गांव के लड़के उनसे दो-दो तीन-तीन पैसे में ख़रीद लाते थे. पर बालक शिवशम्भु तो ऐसा नहीं कर सकता था. पिता की आज्ञा बिना वह बुलबुल कैसे लावे और कहां रखे? उधर मन में अपार इच्छा थी कि बुलबुल ज़रूर हाथ पर हो. इसी से जंगल में उड़ती बुलबुल को देखकर जी फड़क उठता था. बुलबुल की बोली सुनकर आनन्द से हृदय नृत्य करने लगता था. कैसी-कैसी कल्पनाएं हृदय में उठती थीं. उन सब बातों का अनुभव दूसरों को नहीं हो सकता. दूसरों को क्या होगा? आज यह वही शिवशम्भु है, स्वयं इसी को उस बालकाल के अनिर्वचनीय चाव और आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता.

बुलबुल पकड़ने की नाना प्रकार की कल्पनाएं मन ही मन में करता हुआ बालक शिवशम्भु सो गया. उसने देखा कि संसार बुलबुलमय है. सारे गांव में बुलबुलें उड़ रही है. अपने घर के सामने खेलने का जो मैदान है, उसमें सैकड़ों बुलबुल उड़ती फिरती है. फिर वह सब ऊंची नहीं उड़तीं. बहुत नीची-नीची उड़ती है. उनके बैठने के अड्डे भी नीचे- नीचे है. वह कभी उड़ कर इधर जाती हैं और कभी उधर, कभी यहां बैठती है और कभी वहां, कभी स्वयं उड़कर बालक शिवशम्भु के हाथ की उंगलियों पर आ बैठती है. शिवशम्भु आनन्द में मस्त होकर इधर-उधर दौड़ रहा है. उसके दो तीन साथी भी उसी प्रकार बुलबुलें पकड़ते और छोड़ते इधर-उधर कूदते फिरते है.

आज शिवशम्भु की मनोवाञ्छा पूर्ण हुई. आज उसे बुलबुलों की कमी नहीं है. आज उसके खेलने का मैदान बुलबुलिस्तान बन रहा है. आज शिवशम्भु बुलबुलों का राजा ही नहीं, महाराजा है. आनन्द का सिलसिला यहीं नहीं टूट गया. शिवशम्भु ने देखा कि सामने एक सुन्दर बाग है. वहीं से सब बुलबुलें उड़कर आती हैं. बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुंचा. देखा, सोने के पेड़ पत्ते और सोने ही के नाना रंग के फूल हैं. उन पर सोने की बुलबुलें बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं. वहीं एक सोने का महल है. उस पर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं. उन पर भी बुलबुलें बैठी हैं. बालक दो-तीन साथियों सहित महल पर चढ़ गया. उस समय वह सोने का बागीचा सोने के महल और बुलबुलों सहित एक बार उड़ा. सब कुछ आनन्द से उड़ता था, बालक शिवशम्भु भी दूसरे बालकों सहित उड़ रहा था. पर यह आमोद बहुत देर तक सुखदायी न हुआ. बुलबुलों का ख्याल अब बालक के मस्तिष्कसे हटने लगा. उसने सोचा – हैं! मैं कहां उड़ा जाता हूं? माता-पिता कहां? मेरा घर कहां? इस विचार के आते ही सुखस्वप्न भंग हुआ. बालक कुलबुलाकर उठ बैठा. देखा और कुछ नहीं, अपना ही घर और अपनी ही चारपाई है. मनोराज्य समाप्त हो गया.

आपने माई लार्ड! जब से भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलों का स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करने के योग्य काम भी किया है? ख़ाली अपना ख़याल ही पूरा किया है या यहां की प्रजा के लिए भी कुछ कर्तव्य पालन किया? एक बार यह बातें बड़ी धीरता से मन में विचारिये. आपकी भारत में स्थिति की अवधि के पांच वर्ष पूरे हो गए अब यदि आप कुछ दिन रहेंगे तो सूद में, मूलधन समाप्त हो चुका. हिसाब कीजिये नुमायशी कामों के सिवा काम की बात आप कौन सी कर चले हैं और भड़कबाजी के सिवा ड्यूटी और कर्तव्य की ओर आपका इस देश में आकर कब ध्यान रहा है? इस बार के बजट की वक्तृता ही आपके कर्तव्यकाल की अन्तिम वक्तृता थी. ज़रा उसे पढ़ तो जाइये फिर उसमें आपकी पांच साल की किस अच्छी करतूत का वर्णन है. आप बारम्बार अपने दो अति तुमतराक से भरे कामों का वर्णन करते हैं. एक विक्टोरिया मिमोरियल हाल और दूसरा दिल्ली-दरबार. पर जरा विचारिये तो यह दोनों काम “शो” हुए या “ड्यूटी”? विक्टोरिया मिमोरियल हाल चन्द पेट भरे अमीरों के एक-दो बार देख आने की चीज़ होगा. उससे दरिद्रों का कुछ दु:ख घट जावेगा या भारतीय प्रजा की कुछ दशा उन्नत हो जावेगी, ऐसा तो आप भी न समझते होंगे.

अब दरबार की बात सुनिये कि क्या था? आपके ख़याल से वह बहुत बड़ी चीज़ था. पर भारतवासियों की दृष्टि में वह बुलबुलों के स्वप्न से बढ़कर कुछ न था. जहां-जहां से वह जुलूस के हाथी आये, वहीं-वहीं सब लौट गये. जिस हाथी पर आप सुनहरी झूलें और सोने का हौदा लगवाकर छत्र-धारण-पूर्वक सवार हुए थे, वह अपने क़ीमती असबाब सहित जिसका था, उसके पास चला गया. आप भी जानते थे कि वह आपका नहीं और दर्शक भी जानते थे कि आपका नहीं. दरबार में जिस सुनहरी सिंहासन पर विराजमान होकर आपने भारत के सब राजा महाराजाओं की सलामी ली थी, वह भी वहीं तक था और आप स्वयं भली-भांति जानते हैं कि वह आपका न था. वह भी जहां से आया था वहीं चला गया. यह सब चीज़ें ख़ाली नुमायशी थीं. भारतवर्ष में वह पहले ही से मौजूद थीं. क्या इन सबसे आपका कुछ गुण प्रकट हुआ? लोग विक्रम को याद करते हैं या उसके सिंहासन को, अकबर को या उसके तख़्त को? शाहजहां की इज्जत उसके गुणों से थी या तख़्तेताऊस से? आप जैसे बुद्धिमान पुरुष के लिये यह सब बातें विचारने की हैं.

चीज वह बनना चाहिये जिसका कुछ देर क़याम हो. माता-पिताकी याद आते ही बालक शिवशम्भु का सुखस्वप्न भंग हो गया. दरबार समाप्त होते ही वह दरबार-भवन, वह एम्फीथियेटर तोड़कर रख देने की वस्तु हो गया. उधर बनाना, इधर उखाड़ना पड़ा. नुमायशी चीज़ों का यही परिणाम है. उनका तितलियों का सा जीवन होता है. माई माई लार्ड! आपने कछाड़ के चाय वाले साहबों की दावत खाकर कहा था कि यह लोग यहां नित्य हैं और हम लोग कुछ दिन के लिये. आपके वह “कुछ दिन” बीत गये. अवधि पूरी हो गई. अब यदि कुछ दिन और मिलें तो वह किसी पुराने पुण्य के बल से समझिये. उन्हीं की आशा पर शिवशम्भु शर्मा यह चिट्ठा आपके नाम भेज रहा है, जिससे इन माँगे दिनों में तो एक बार आपको अपने कर्तव्य ख़्याल हो.

जिस पद पर आप आरूढ़ हुए वह आपका मौरूसी नहीं – नदी-नाव संयोग की भांति है. आगे भी कुछ आशा नहीं कि इस बार छोड़ने के बाद आपका इससे कुछ सम्बन्ध रहे. किन्तु जितने दिन आपके हाथ में शक्ति है, उतने दिन कुछ करने की शक्ति भी है. जो कुछ आपने दिल्ली आदि में कर दिखाया उसमें आपका कुछ भी न था, पर वह सब कर दिखाने की शक्ति आप में थी. उसी प्रकार जाने से पहले, इस देश के लिये कोई असली काम कर जाने की शक्ति आप में है. इस देश की प्रजा के हृदय में कोई स्मृति-मन्दिर बना जाने की शक्ति आप में है. पर यह सब तब हो सकता है, कि वैसी स्मृति की कुछ क़दर आपके हृदय में भी हो. स्मरण रहे धातु की मूर्तियों के स्मृति-चिह्न से एक दिन क़िले का मैदान भर जायगा. महारानी का स्मृति-मन्दिर मैदान की हवा रोकता था या न रोकता था, पर दूसरों की मूर्तियां इतनी हो जावेंगी कि पचास-पचास हाथ पर हवाको टकराकर चलना पड़ेगा. जिस देश में लार्ड लैंसडौन की मूर्ति बन सकती है, उसमें और किस किस की मूर्ति नहीं बन सकती? माई लार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि उसके आसपास आपकी एक वैसी ही मूर्ति खड़ी हो?

यह मूर्तियां किस प्रकार के स्मृति-चिह्न है? इस दरिद्र देश के बहुत-से धन की एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं आ सकती. एक बार जाकर देखने से ही विदित होता है कि वह कुछ विशेष पक्षियों के कुछ देर विश्राम लेने के अड्डे से बढ़कर कुछ नहीं है. माई माई लार्ड! आपकी मूर्ति की वहां क्या शोभा होगी? आइये मूर्तियां दिखावें. वह देखिये एक मूर्ति है, जो क़िले के मैदान में नहीं है, पर भारतवासियों के हृदय में बनी हुई है. पहचानिये, इस वीर पुरुष ने मैदान की मूर्तिसे इस देश के करोड़ों गरीबों के हृदय में मूर्ति बनवाना अच्छा समझा. यह लार्ड रिपन की मूर्ति है. और देखिये एक स्मृति-मन्दिर, यह आपके पचास लाख के संगमर्मर वाले से अधिक मज़बूत और सैकड़ो गुना कीमती है. यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानी का सन् 1858 ई. का घोषणापत्र है. आपकी यादगार भी यहीं बन सकती है, यदि इन दो यादगारों की आपके जी में कुछ इज्ज़त हो.

मतलब समाप्त हो गया. जो लिखना था, वह लिखा गया. अब ख़ुलासा बात यह है कि एक बार ‘शो’ और ड्यूटी का मुक़ाबिला कीजिये. ‘शो’ को ‘शो’ ही समझिये. ‘शो’ ड्यूटी नहीं है! माई लार्ड! आपके दिल्ली दरबार की याद कुछ दिन बाद उतनी ही रह जावेगी जितनी शिवशम्भु शर्मा के सिर में बालकपन के उस सुखस्वप्न की है.

(11 अप्रैल 1903 को ‘भारत मित्र’ में प्रकाशित)

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