व्यंग्य | का जी, क़यास लगाइएगा!!

  • 11:44 am
  • 1 November 2020

पता तो चल सकता था लेकिन अर्नब गोस्वामी अभी पूछ नहीं पा रहे हैं. काहे कि उनसे ख़ुद ही पूछताछ चल रही है. दूसरे चैनल अभी सुशांत सिंह राजपूत के केस में अल्ल-बल्ल बक देने की माफ़ी माँगने में व्यस्त हैं.

बचपन में रामचरितमानस पढ़ते हुए और उस से पहले पापा से कहानी सुनते हुए पता चला था कि समुद्र पर सेतु बनाने का काम नल-नील के नेतृत्व में वानरों आदि ने मिलकर किया था. ख़ैर वो त्रेता युग था जब वानर तक श्री राम की महिमा से पुल बना ले रहे थे. वो भी समुद्र पर. बताइए, आजकल तो पढ़े-लिखे इंजीनियर-ठेकेदारों का पुल महीने-दो महीने में ज़मीन सूँघने लगता है. कई बार तो सुनील शेट्टी की तरह ‘ऐ!” ये धरती मेरी माँ है!’ बोलता हुआ ज़मीन से ही चिपटा रहता है, खड़ा ही नहीं होता. जैसा कि प्रधानमंत्री बताते हैं, कहीं पर पुल का गिरना वहाँ की सरकार के पापों का परिणाम होता है, बशर्ते वहाँ उनकी सरकार न हो.

फ़िलहाल, त्रेता युग से 2020 में लौटते हैं. 2020, जैसा कि नाम से ही ध्वनित होता है, क्रिकेट के 20-20 मैच की तरह ही साँय से आया और साँय से जा रहा है. आते हुए 2020 अपने साथ विश्वव्यापी महामारी ले आया. अरे, कोरोना वाली बीमारी की बात कर रहा हूँ भई! आप लोग बात तुरंत दुनिया भर के पॉलिटिशियंस से जोड़ लेते हैं. मैं उस वाली महामारी की बात कर रहा हूँ, जिस से दुनिया हलकान है, कितनों की जानें गईं, कितनों की रोज़ी और कितने ही दर-बदर हुए. अपने ही मुल्क में दर-बदर भटकते हुए प्रवासी कहलाए. हैं जी? हाँ वो बात भी ठीक है कि इराक़, सीरिया, लेबनान वग़ैरह में इस कोरोना से पहले भी एक दूसरी महामारी अपना पूर्व ट्रंप कार्ड खेल चुकी थी, निवर्तमान जारी है. भला है भारत में वैसे हालात नहीं है. यहाँ अगर लाखों लोग सैकड़ों मील भूखे-प्यासे पैदल भटकते तो कितना बुरा लगता न! थैंक गॉड! अपने यहाँ निज़ाम मेहरबान है. तो मैं उस महामारी की नहीं, कोविड-19 की बात कर रहा हूँ. तो 2020 इस फागुन ये महामारी लिए-लिए आया और अभी देखिए दीपावाली के बाद जो दलिद्दर भगाया जाता है, यूपी-बिहार में, उसके साथ इस महामारी से पिंड छूटता है कि नहीं.

इसी महामारी से बचाव के इरादे से आरोग्य सेतु ऐप लाया गया था सरकार की ओर से. सरकार के कहने पर ही डाउनलोड करवाया गया सबके मोबाइल में. यहाँ तक तो सब ठीक था. अभी हाल ही में किंकर्तव्यविमूढ़ वाला मोड इसलिए ऑन हो गया सरकारी अमले का क्योंकि किसी ने आरटीआई के मार्फ़त पूछ लिया कि ये आरोग्य सेतु बनाया किसने है? आदि-इत्यादि. इस आदि-इत्यादि ने ही फच्चर फँसा दिया क्योंकि सरकार को ख़ुद नहीं पता कि ये ऐप किसने बनाया!

हालांकि पता तो चल सकता था लेकिन अर्नब गोस्वामी अभी पूछ नहीं पा रहे हैं. काहे कि उनसे ख़ुद ही पूछताछ चल रही है. दूसरे चैनल अभी सुशांत सिंह राजपूत के केस में अल्ल-बल्ल बक देने की माफ़ी माँगने में व्यस्त हैं. फ़्री होते ही फ़्रांस में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के चिन्ह भारतीय मुसलमानों में ढूँढने का असाइनमेंट ले लिया गया है. अभी और तेज़ी लानी है उसमें. तो ऐसे में हम सब देशवासियों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि हम ही पता करें कि ये आरोग्य सेतु किसने बनाया. पता नहीं कर सकते तो कम से कम क़यास ही लगाएं कि किसने बनाया?

क़यास लगाने में तो हमारा कोई सानी नहीं है. भारत के उस छोर पर किसी पान, चाय की दुकान पर बैठा या फ़ेसबुक पर जमा आदमी, इस छोर के हालात के बारे में अमूमन क़यास लगता ही रहता है. यूपी-बिहार वाला पूरे नार्थ ईस्ट के लड़के-लड़कियों के बारे में, महाराष्ट्र वाला यूपी-बिहार के बारे में, हिंदी वाला तमिल और मलयाली के बारे में, लगभग पूरा देश कश्मीर के बारे में, प्रायः हर पुरुष दूसरे घर की स्त्रियों के चरित्र के बारे में और दिल्ली में देश भर से आकर बस कर दिल्ली वाले हो गये लोग अखिल ब्रह्मांड के बारे में. वो भी एकदम एक्सपर्ट कमेंट की तरह. मुझे लगता है कि क़यास लगाने के खेल को अगर ओलंपिक में शामिल कर लिया जाय तो गोल्ड से लेकर कांसा, एल्मुनियम अत्तर-पत्तर सब हम भारतीय ही उठा लाएं. जैसे ट्रेनों आदि से सार्वजनिक संपत्ति वग़ैरह उठा लाते हैं न, वैसे ही.

ख़ैर, तो मैं भी क़यास लगा रहा हूँ. देखिये, नल तो आजकल कोई नाम रखता नहीं है बच्चों का और नील नितिन मुकेश के बस का काम ये लग नहीं रहा. तो हो न हो आरोग्य सेतु बनाने का काम किसी आम वानर का है. वानर इसलिए कि अगर ये इंसान का काम होता तो सरकार के पास आधार-वाधार समेत कितना डाटा होता न उसका! ये भी हो सकता है कि किसी ने निःस्वार्थ भाव से गुप्तदान कर दिया हो ऐप के रूप में. निष्काम-निःस्वार्थ भाव से किए काम की धूम तो हमेशा से रही है, आजकल तो निष्काम कवरेज़ भी ख़ूब मिलती है. आप ने सुना ही होगा, नेकी कर दरिया में डाल. ऐसी ही किसी ने नेकी की होगी और दरिया में डालने से ऐन पहले ख़्याल आया होगा कि हे मन, दरिया में डालने से अच्छा है, मंत्रालय में डाल दें. तो बस डाल दिया होगा. सिंपल. ये तो रहा मेरा क़यास. अब आपकी बारी. आइए, क़यास के इस महोत्सव में भागीदारी करें क्योंकि ऊपर से जवाब तो आने से रहा.

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