व्यंग्य | तीसरी पूँछ
कैसा तो समय आ गया है, मुहावरे तक उल्टे होते जा रहे हैं. अब यह मुहावरा ही ले लीजिए, ‘दूर के ढोल सुहाने’. सब जानते ही हैं इसका मतलब. लेकिन अब ये मुहावरा उलट गया है! अब दूर वाले ढोल में भले मीन-मेख निकाल ले कोई, पास बजते फटे ढोल भी सुहाने लगने लगे हैं.हर थाप पर अहा! क्या बात है! अहो! कमाल! शामिलबाजा वालों के करतब तो निराले ही होते हैं, पर असली देखने लायक़ मुंह उनका होता है, जिनकी कभी अपनी अलग ढपली हुआ करती थी, अलग राग हुआ करता था. क्या कहा? पापी पेट जो न कराये?
अजी नहीं! पेट तो नाहक बदनाम है बेचारा. असली कमाल पूँछ का है!
जी हां, वही पूँछ जिससे बारे में विज्ञान ने बताया कि बंदर से इंसान बनने की प्रक्रिया में, इंसान ने गंवा दी और जो अब मेरु दंड (माने रीढ़ की हड्डी) के सबसे निचले किनारे बस इशारे भर को महसूस होती दिखती है.
विज्ञान अपनी जगह पर सही है लेकिन इंसानी रायता विज्ञान की थाली में नहीं सिमटता. वो फैलता है. फैलता ही जाता है, वरना रायता काहे का? इसी फैलते रायते के बीच समाज में जीते-जीते एक इंसान पाता है कि दरअसल इंसानी पूँछ शरीर से भले ही गायब हो गई हो, मगर बहुतों में गायब हो कर भी अपनी जगह बनी रहती है. हल्की-सी पुच्च-पुच्च हुई नहीं कि हिलने लगती है. कुछ की स्वाभाविक रूप से परंपरा-प्रेरित हिलती रहती है, कुछ देखा-देखी सायास हिलाने लगते हैं.
इस पर मज़े की बात ये कि हर वो पूँछ, जो किसी की देखा-देखी हिलती है, वो पहले वाले की बनिस्पत ज़्यादा ही लहराती है, बल खाती है….पूरी अदा के साथ. गोया कहना चाहती हो, मुझे देखिए…मुझे देखिए… मैं नई हूं तो क्या हुआ, मैं ज़्यादा देर तक लहरा सकती हूं. दूसरी चार हड्डी पर लहराती हैं, मैं तो एक हड्डी पर ही काफ़ी देर तक झूमती रह सकती हूं. माइलेज तो देखिए हुज़ूर हमारा!
और कौन सी थिरकन है, जो मैं न पैदा कर सकूं ख़ुद में? …कथक, कुचिपुड़ी, कैबरे, कुडियाट्टम, गिद्दा, घूमर, गरबा, भांगड़ा, भवई, हिपहॉप! जो कहें सो कर के दिखाऊं, इसी इत्तू-सी पूँछ से!
मानव स्वभाव का बहुत नज़दीक से अध्ययन करने पर ऋषि-मुनियों ने पाया कि (एक्चुअली ऋषि-मुनियों का हवाला दे देने से बात प्रामाणिक मान लेने का ट्रेंड है, और ऐसा अभी नहीं, बहुत पहले से होता आया है. सो मैंने भी दे दिया). ख़ैर, तो मानव स्वभाव का बहुत नज़दीक से अध्ययन करने पर ऋषि-मुनियों ने पाया कि ग़ायब होकर भी हाज़िर रहने वाली पूँछ सिर्फ़ लहराती ही नहीं, प्रतिकूल समय देखकर टांगों के बीच शरण भी ले लेती है, कभी-कभी तो बस एक घुड़की में ही. और ऐसा करके साफ़ घोषणा करती है, “का गज़ब कर्रे ओ सरकार! हम तो डरे हैं आप से! घिग्गी बंधती है हमारी आपको देखकर, चाहो तो सूंघ कर देख लो, आपके ही नमक की ख़ुशबू आवेगी मालक, हमारे छूटते पसीने से!”
ये टांगों की शरणागत हुई पूँछ आम तौर पर सबको नज़र आती है.
लेकिन सबसे मार्मिक, अनिर्वचनीय, अनसेड पीड़ा उस पूँछ की होती है, जो एक अरसा फुसफुसे से गर्व से उठी-उठी झूमा करती है, लेकिन अपनी करनी से एक दिन किसी ताक़तवर के पांव के नीचे आ जाती है, अईईईईईईई! मन ही मन ऐसा चीत्कार गूंजता होगा, मगर किसी से कह नहीं पाती. पूँछ कहे भी तो आख़िर किस मुंह से! फिर तो सबको पता चल जाएगा गोरखधंधा! तो अब ऐसे में ये पूँछ बेचारी न तो टांगों की शरणागत होकर खुलकर लाभ आदि ही उठा पाती है, न तनी ही रह पाती है. बेचारी किसी पल किसी के सामने तनने को होती ही है कि याद आ जाता है, अईईईईई! मैं तो दबी हुई हूं. न खुल के कूं-कूं हो पाती है न कांय-कांय. अकेले में भले कर लेती हो.
इस वाली पूंछ के बारे में सज्जन, स्वच्छ हृदय वाले मनुष्य अंदाज़ा नहीं लगा पाते, कि भई ये पूँछ गई कहां? न उठी हुई है, न लहरा रही है, न ही टांगों के बीच दिख रही! कमबख़्त गई तो गई कहां?
पर कुछ दिव्य दृष्टि वाले मनुष्य, जिन्हें सज्जन-समुदाय घामड़ भी कह सकता है, चुटकी बजाते ही ताड़ जाते हैं कि किस जहांपनाह की पूँछ कहां दबी हुई अपनी बेअदबी पर टेंसुए बहा रही है.
बहरहाल, बात पास के फटे ढोल के सुहाने लगने की हो रही थी. तो हे सज्जन समुदाय, तीनों प्रकार की पूंछों में से, उस पास वाले फटे ढोल की हर थाप पर सबसे ऊंचा और सुरीला, तक़रीबन गगनभेदी ‘अहा! क्या बात है! अहो! कमाल!’ इसी वाली पूंछ के कंठ से फूटता है. नहीं मानते? तो अपनी दिव्य दृष्टि जगाइए, आस-पास नज़र दौड़ाइए और ख़ुद देख लीजिए. ऐसी पूँछें सार्वभौमिक होती हैं, एकदम कालातीत.
( डिस्क्लेमर: इस प्रकरण का संबध केवल राजनीति से नहीं है. साहित्य और कला जगत के स्वनामधन्यों से लेकर आस-पास के जीव-जंतुओं पर भी नज़र डालें, ग़ायब होकर भी हाज़िर रहने वाली ये पूँछ हर जगह दिखने की प्रबल संभावना है. कोई अपने ही ऊपर ले ले तो आन-मान-दोस! अंटी-बंटी-संटी!)
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