आज़ादी के दिन गूँज उठी थी ‘शहनाई’

  • 11:39 am
  • 15 August 2020

हिंदुस्तान की आज़ादी और उसका विभाजन दोनों सहोदर हैं. एक ने वर्षों का इंतजार ख़त्म करके ख़ुशियां बिखेरी थीं तो दूसरे ने चारों तरफ हिंसा और मातम का माहौल पैदा किया था. हमने एक देश का राजनीतिक बंटवारा ही नहीं किया था, बल्कि यह बंटवारा सांस्कृतिक भी था. इन दिनों सियासी हलके में इंसानी जज़्बात बड़े तंग हो चले थे, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच तलवारें खींची हुईं थी, देश उथल-पुथल से गुज़र रहा था. सालों बाद पूरी हुई आज़ादी की हसरत से मन तो ख़ुश था लेकिन बदन थक चुका था और चहुँओर हिंसा से घायल भी हो चुका था.

ऐसे में हिन्दी सिनेमा ने अपनी कलात्मक मौजूदगी दर्ज कराई, लोगों को आज़ादी की ख़ुशी को मनाने और विभाजन से उपजी जड़ता को तोड़ने का अवसर एक साथ दिया. सिनेमाई मरहम लेकर हाज़िर हुए प्यारेलाल संतोषी. आज ही के दिन 15 अगस्त 1947 को प्यारेलाल संतोषी (पी.एल. संतोषी नाम से मशहूर) की फ़िल्म ‘शहनाई’ रिलीज़ हुई. यानी हिन्दी सिनेमा ने आज़ादी के दिन का स्वागत ‘शहनाई’ की गूँज से किया था, आज ही के दिन आज के तिहत्तर साल पहले हिंदुस्तान के सिनेमाघरों में गीत-संगीत और नृत्य से भरपूर ‘नौटंकी’ जैसी लोकविधा को केंद्र में रखकर फ़िल्म ‘शहनाई’ दर्शकों के बीच आई.

अपने समय से संवाद करती पी.एल.संतोषी की फ़िल्में

पी.एल.संतोषी ने, जिनका इसी महीने की सात तारीख़ को 105वां जन्मदिन था, अपनी फ़िल्मों की विषयवस्तु का चुनाव बहुत सोच-समझकर किया था. फ़िल्म ‘शहनाई’ के साल भर पहले ही जब वे अपनी फ़िल्म ‘हम एक हैं’ (1946) लेकर आए थे तो उसके केंद्र में मज़हबी एकता थी. उस समय हमारा मुल्क धार्मिक आधार पर टूटने के कगार पर खड़ा था, चारों तरफ नफ़रत और शक का जाल बिछा हुआ था, इंसान उसी जाल में फंसता चला जा रहा था, ज़मीन पर सरहदों के खिंचने के पहले लोगों के दिलोदिमाग़ में फ़ासले आ गए थे. ऐसे में फ़िल्म ‘हम एक हैं’ धार्मिक आधार पर समाज को जोड़े रखने का पैग़ाम लेकर आती है.

उधर फ़िल्म ‘शहनाई’ ने तो मानो कमाल ही कर दिया. देश के बाशिंदों के लबों पर जब मुस्कुराहट लाने की सबसे अधिक ज़रूरत थी तब पी.एल.संतोषी ने यह फ़िल्म बनाई. जिसमें प्रेम, हास्य, दुःख, गीत, संगीत, नृत्य सब कुछ भरपूर था. फ़िल्म की पटकथा से लेकर गीत तक में संतोषी ने नवीनतम प्रयोग किए थे. फ़िल्म के गीतों और संवाद की भाषा में देशजता थी तो अंग्रेज़ियत भी, खड़ी बोली हिन्दी के शब्द थे, तो उत्तर भारत की स्थानीय लोक भाषाओं के भी, अंग्रेज़ी के शब्दों से भी संवाद रचना हुई थी. यह सब मिलकर दर्शकों को सुखद अनुभूति दे रहा था.

साल की सबसे बड़ी हिट फ़िल्मों में थी शामिल

फ़िल्म ‘शहनाई’ ने उस साल बड़ी व्यावसायिक कामयाबी भी हासिल की थी. सन् 1947 की सबसे अधिक कमाई करने वाली फ़िल्मों में पांचवें स्थान पर रही ‘शहनाई’ ने कुल 32 लाख रुपये की कमाई की थी. उस साल सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म ‘जुगनू’ ने 50 लाख का आंकड़ा छुआ था, लेकिन लागत के लिहाज़ से फ़िल्म ‘शहनाई’ को मिली सफ़लता फ़िल्मिस्तान के लिए एक उपलब्धि की तरह थी. उस ज़माने की बड़ी फ़िल्म निर्माता कंपनी ‘फिल्मिस्तान’ ने इसे बनाया था.

इस फ़िल्म से पी. एल. संतोषी का क़द काफ़ी बढ़ गया, वे एक सफल और प्रतिष्ठित फ़िल्मकार मान जाने लगे. कहा जाता है कि संतोषी ने यह फ़िल्म अपनी पसंदीदा अदाकारा ‘रेहाना’ के लिए बनाई थी, जिनसे वो मोहब्बत करते थे और उनके लिए अपना काफी कुछ गवां भी बैठे थे, फिर भी यह फ़िल्म बहुत कुछ दे देती है, जिसके सहारे वे न केवल अपने आगे का फ़िल्मी सफर तय करते हैं बल्कि इसे उस मुक़ाम तक ले जाते हैं कि उसकी विरासत उनके बेटे राजकुमार संतोषी को संभालनी पड़ती है.

फ़िल्म के क़िरदार और कहानी
फ़िल्म उत्तर भारत के ऐसे ग्रामीणांचल में फ़िल्माई गई है, जहां एक ओर गांव के गरीब कलाकार लोग हैं, दूसरी ओर ज़मींदार है तो सबसे ऊपर उस क्षेत्र के राजा हैं. गांव में ज़मींदार की हेकड़ी के आगे मज़ाल नहीं है कि कोई अपने मन की कर सके. लेकिन उसी गांव में एक परिवार के मुखिया ( जिसकी भूमिका वी एच देसाई ने निभाई थी) उनकी पत्नी (लीला मिश्रा ने पत्नी और माँ की यादगार भूमिका का निर्वहन किया है) और चार बेटियां भी हैं, जो ‘नौटंकी’ जैसी लोकविधा के ज़रिए अपनी रोजी रोटी चलाते हैं. यह भी बड़े साहस की बात है कि उस दौर में जब महिलाओं को अपेक्षित रूप में कम आज़ादी थी, तब एक गांव की नौटंकी की टीम में पिता के साथ उसकी चार बेटियाँ लोकलाज की परवाह किए बिना सक्रिय थीं.

जब ज़मींदार ने नाराज़ होकर गांव में नौटंकी पर प्रतिबंध लगा दिया तो बेटियों ने गांव के बाहर जाकर नौटंकी की प्रस्तुतियां करने की ठान ली, पिता से ज़िरह करने लगीं कि किस समाज की दुहाई दे रहे हैं वे, उस समाज की जो कभी ग़ुरबत और दुःख के दिनों में सामने नहीं आता. लड़कियों ने ‘नौटंकी’ को अपने मुक्ति का ज़रिया बनाया था. हुज़ूम के बीच वे बड़े साहस के साथ हंसी-ठिठोली से भरपूर प्रस्तुतियां देती थी.

फ़िल्म की कहानी इन्हीं चार लड़कियों, ज़मींदार की बेटी, राजा साहब के बेटे और एक डाकू के इर्द-गिर्द घूमती है. फ़िल्म में पांच महिला क़िरदारों के शादी का सवाल प्रमुख है, लेकिन वह भी पूरी नाटकीयता के साथ फ़िल्माया गया है. ज़मींदार की बेटी प्रमिला (इंदुमती ने यह भूमिका की है) और गांव की लड़कियों विशेषकर कमला (रेहाना) में टशन फ़िल्म के अंत तक जारी रहता है. अंततः राजा के बेटे राजेश ( नासिर ख़ान अभिनीत) और कमला की शादी हो जाती है. फ़िल्म में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में किशोर कुमार भी हैं, जो उन दिनों मशहूर पार्श्व गायक के रूप में नहीं बल्कि कोरस में गायन करने वाले गायक के रूप में जाने जाते थे, हालांकि उन्होंने फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं करनी शुरू कर दी थी.

फ़िल्म का संगीत और उसके गीत हुए मशहूर

यों तो फ़िल्म की पटकथा के अनुरूप गीतों को लिखा था पी.एल.संतोषी ने ही, लेकिन संगीत सी. रामचन्द्र का था. सी. रामचंद्र भारतीय फ़िल्म संगीत की दुनिया में फ़्यूज़न के अगुआ संगीतकारों में जाने जाते हैं. उन्होंने अपनी धुनों में शास्त्रीय संगीत से लेकर तमाम देशज लोकधुनों को पश्चिमी संगीत के साजों के साथ पिरो दिया था. इस फ़िल्म में पहली बार पाश्चात्य संगीत का प्रयोग क़िया था. जैज़ पर आधारित गीत ‘आना मेरी जान मेरी जान संडे के संडे’ काफी लोकप्रिय हुआ. इस गीत को आवाज़ ख़ुद सी. रामचंद्र ने दी, मीना कपूर और शमशाद बेग़म ने भी उनका साथ दिया है. गीत के फ़िल्मांकन में पुरुष कलाकार ने चार्ली चैप्लिन को कॉपी करने की सफल कोशिश भी की थी. उल्लेखनीय यह भी है कि फ़िल्म में तक़रीबन दस गाने हैं, और एक कृष्ण पर आधारित भजन को छोड़कर लगभग सभी नौटंकी के मंचन के समय फ़िल्माए गए हैं. फ़िल्म के कुछ और गीत जो मशहूर हुए थे उनमें ‘जवानी की रेल चली जाय रे..’, ‘अजी आओ मोहब्बत की खा लें क़सम’ और ‘मार कटारी मर जाना, अँखियाँ किसी से मिलाना ना’ आदि थे. फ़िल्म में वीणापाणि मुख़र्जी की आवाज़ में ‘जय कृष्ण श्रीकृष्ण हरे हरे, दुखियों के दुःख दूर करे, जय जय जय कृष्ण हरे’ भजन भी प्रभावशाली था. संयोग यह कि इसी भजन के बाद नौटंकी पर आश्रित परिवार की रुकी हुई गाड़ी आगे बढ़ती है.

हिंदुस्तान की आज़ादी की सालगिरह पर हम आज ही के दिन सन् सैंतालिस में आई फ़िल्म को याद कर रहे हैं, जिसने ‘नौटंकी’ जैसी लोकविधा को स्थापित किया था. सिनेमा और लोककलाओं के बीच पुल की तरह फ़िल्म ‘शहनाई’ हमारे लिए एक नज़ीर है. यह सोचने की ज़रूरत भी है कि हिन्दी सिनेमा के लोक कलाओं के साथ रिश्ते में कितना कुछ हम छोड़ चुके हैं. हिन्दी सिनेमा में लोक कलाएं अपनी जगह खो चुकी हैं, साथ ही लोक कलाओं का स्वतंत्र अस्तित्व भी ख़तरे में ही है.

(‘भारतीय राज्य और हिन्दी सिनेमा’ पर शोध पूरा करने के बाद अंकित फ़िलहाल इलाहाबाद में पढ़ा रहे हैं.)

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