शकील बदायूंनी | दर्दे-इश्क को अज़्मत बख़्शने वाला शायर

  • 9:26 pm
  • 3 August 2020

‘‘मैं ‘शकील’ दिल का हूं तर्जुमा, कि मुहब्बतों का हूं राज़दां/ मुझे फ़ख़्र है मेरी शायरी, मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं’’ शकील बदायूंनी की ग़ज़ल का यह शे’र वाकई उनकी पूरी ज़िंदगी और फ़लसफ़े की तर्जुमानी करता है. उन्होने अपनी ग़ज़लों, गीतों में हमेशा दिल की बात की, मुहब्बत के दिलफ़रेब अफ़साने लिखे. मुहब्बत के दर्द को अज़्मत बख़्शी. उनके गीतों के बिना हिन्दी फ़िल्मी दुनिया की महफ़िल मानो अधूरी है.

उनकी गजलों के बारें में अली सरदार जाफ़री की राय थी, ‘‘शकील ग़ज़ल कहना भी जानते हैं और गाना भी. मैं अपनी अदबी ज़िंन्दगी में उनसे दूर रहा हूं, लेकिन उनकी ग़ज़ल से हमेशा कुर्बत महसूस की है.’’ साहिर लुधियानवी की नज़र में, ‘‘जिगर मुरादाबादी और फ़िराक गोरखपुरी के बाद आने वाली पीढ़ी में शकील एक अदद शायर हैं, जिन्होंने अपनी कला के लिए ग़ज़ल का क्षेत्र चुना है.’’ यह बात जुदा है कि साहिर के इस ख़्याल से शायद ही सभी इत्तेफ़ाक रखें. क्योंकि शकील बदायूंनी के समकालीन मजरूह सुल्तानपुरी भी ग़ज़ल के लिए ही पहचाने जाते हैं और उन्होंने न के बराबर नज़्में लिखीं हैं.

शकील साहब को कम उम्र से ही शायरी का शौक था. तेरह साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी, जो उस वक्त के नामी अख़बार ’शाने-हिंद’ में शाया हुई. यों उनका असली नाम गफ़्फ़ार अहमद था. उन्होंने ’सबा’ और ’फ़रोग़’ जैसे तख़ल्लुस से ग़ज़लें लिखीं, लेकिन पहचान बनी शकील बदायूंनी के नाम से. शुरूआती तालीम बदायूं में ही हुई. अरबी, उर्दू और फ़ारसी ज़बान उन्होंने घर में ही सीखी. 1936 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी पढ़ने गए. इस दौरान वे मुशायरों में बराबर शिरकत करते रहे. जल्दी ही उनकी एक अलहदा पहचान बन गई.

निदा फ़ाजली ने अपनी किताब ‘चेहरे’ में शकील बदायूंनी का ख़ाका खींचते हुए लिखा है,‘‘शकील की शोहरत में उनके तरन्नुम का बहुत बड़ा हाथ था. वे जिस दौर में शेर कह रहे थे वह ‘यगाना’, ‘फ़िराक’ और ‘शाद आरिफी’ का नई ग़ज़ल तथा जोश, फैज़ और अख़्तर-उल-ईमान की नज़्म में नए बदलाव का दौर था. नई काव्य-भाषा रची जा रही थी, नए जीवन-अनुभवों और नए दर्शनों से वातावरण जगमगा रहा था. प्रगतिशील तहरीक अपने यौवन का उत्सव मना रही थी. साथ में, ‘हलक-ए-अरबाब-ए-जौक़’ (पंजाब में) शायरी में नए तेवर दिखा रही थी, लेकिन इस समय शकील की शायरी इसी काव्य परंपरा का साथ निभा रही थी, वे दाग़ के बाद पीढ़ी-दर-पीढ़ी दोहराई जा रही थी और मुशायरों में धूम मचा रही थी.’’

बदायूं से अलीगढ़ तक के सफ़र में शकील बदायूंनी की पहचान मंच के ऐसे शायर के तौर पर बन चुकी थी, जिसे उस वक़्त के नामी शायर भी नज़रअंदाज नहीं कर पाए. शकील शुरुआत से ही अपने दौर के शायरों से बिल्कुल जुदा थे. उनके समकालीन शायर जहां समाजी, मआशी और सियासी मसलों पर लिख रहे थे, शकील की शायरी का मौजू सिर्फ इश्क-मोहब्बत और उससे हासिल दर्द-जुदाई था. फ़िल्मी गीतों के लेखन में भी शकील की यही ख़ासियत नज़र आती है. फ़िराक गोरखपुरी ने उनकी उस वक़्त की शायरी को ‘लाजवाब पूंजी’ कहा, तो जिगर मुरादाबादी ने उनके सुनहरे मुस्तक़बिल की दुआ करते हुए कहा था,‘‘अगर शकील इसी तरह पड़ाव तय करते रहे, तो भविष्य में अदब के इतिहास में वह अमर हो जाएंगे.’’ इतिहास गवाह है, हुआ भी यही.

अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने के बाद शकील ने आपूर्ति विभाग में नौकरी कर ली. भले ही नौकरी लग गई, मगर शेर-ओ-शायरी से लगाव-मोहब्बत नहीं छूटी. नौकरी चलती रही और मुशायरों में भी हिस्सा लेते रहे. मुशायरों से उन्हें मुल्क भर में शोहरत मिली. उनकी ग़ज़लें ख़ास तौर पर नौजवानों में बहुत मकबूल थीं. शकील की शायरी उन्हें अपने दिल की आवाज़ लगती. यक़ीन नहीं हो, तो उनकी चंद मकबूल गजलों के कुछ शे’रों पर नज़र डालिए, ‘‘मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा (ज़ाहिर)/ तेरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िन्दगी से प्यारा/ कोई ऐ शकील देखे, ये जुनूं नहीं तो क्या है/ कि उसी के हो गए, हम जो न हो सका हमारा.’’, ‘‘ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बेकार की बातें करते हैं/ पायल के ग़मों का इल्म नहीं, झंकार की बातें करते हैं.’’, ‘‘नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है/ ये सहर भी रफ़्ता-रफ़्ता कहीं शाम तक न पंहुचे.’’, ‘‘क्या कीजिये शिकवा दूरी का मिलना भी गज़ब हो जाता है /जब सामने वो आ जाते हैं अहसासे-अदब हो जाता है.’’, मेरी बर्बादी को चश्मे मोतबर से देखिये/ मीर का दीवान ग़ालिब की नज़र से देखिये.’’

शकील बदायूंनी की ग़ज़ल के पहले मजमुए ‘रानाईयां’ में कुछ ऐसे ही शे’रों की बुनियाद पर ‘जिगर’ मुरादाबादी’ ने अपनी भूमिका में शकील की तारीफ़ में लिखा था,‘‘इस तरह के कुछ शेर भी अगर कोई शख़्स अपनी ज़िंदगानी में कह दे, तो मैं उसे सही मायनों में शायर तस्लीम करने को तैयार हूं.’’ जिस शायर की शायरी के बड़े-बड़े शायर जिगर मुरादाबादी, फ़िराक गोरखपुरी, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, निदा फाजली वगैरह मद्दाह (प्रशंसक) हों, अवाम का तो वो प्यारा होगा ही.

उस दौर में अदब के बाद सिनेमा अवाम में सबसे ज्यादा मकबूल था. बड़े से बड़े अदीब और फ़नकार को सिनेमा अपनी ओर खींचता था. सिनेमा एक बड़ा माध्यम भी था, लोगों तक पहुंचने का. अपनी बात उन तक पहुंचाने का. लिहाज़ा शकील बदायूंनी ने भी फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आजमाने के लिए नौकरी छोड़ दी और 1946 में दिल्ली छोड़कर बंबई चले गए. वहाँ उन्होंने फिल्म निर्माता ए.आर. कारदार और मौसिकार नौशाद से मुलाक़ात की. तजुर्बेकार नौशाद ने उन्हें एक सिच्युएशन बतलाई और उस पर कुछ लिखने को कहा. शकील ने फ़ौरन ही उस सिच्युएशन को नग़मे में ढाल दिया, ‘‘हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे.’’ यह नग़मा नौशाद को ख़ूब पसंद आया.

कारदार साहब ने नौशाद के कहने पर फिल्म ’दर्द’ के गानों के लिए शकील बदायूंनी को साईन कर लिया. 1947 मे आई फिल्म ’दर्द’ के इस टाईटल गीत के अलावा ‘‘अफ़साना लिख रही हूं दिले बेक़रार का, आंखों में रंग भरके तेरे इंतज़ार का….’’ उमा देवी उर्फ टुनटुन के गाए इस गीत ने पूरे मुल्क में धूम मचा दी. फ़िल्म के गीतों की कामयाबी के साथ ही शकील बदायूंनी फ़िल्मी दुनिया में जम गए. इस फ़िल्म से शुरूआत हुई मौसिकार नौशाद और नग़मानिगार शकील बदायूंनी की जोड़ी की. इस जोड़ी ने आगे चलकर एक के बाद एक कई नए रिकॉर्ड कायम किए.

‘दर्द’ के बाद 1951 में इस जोड़ी की पिक्चर ‘दीदार’ आई. इस फ़िल्म के भी सारे गाने सुपर हिट साबित हुए. ख़ास तौर पर ‘‘बचपन के दिन भुला न देना, आज हंसे कल रुला न देना…’’ जवां दिलों की धड़कन बन गया. नौशाद और शकील बदायूंनी ने एक साथ बीस साल से ज्यादा काम किया. या यूं कहिए शकील ने अपनी जिंदगी के आख़िर तक नौशाद की मौसिक़ी के लिए नग़मे लिखे. और नग़मे भी एक से बढ़कर एक लाजवाब! आलम यह था कि नौशाद और शकील बदायूंनी की जोड़ी किसी भी फ़िल्म की कामयाबी की ज़मानत समझी जाती थी. ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘आदमी’, ‘राम और श्याम’, ‘पालकी’, ‘उड़नखटोला’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुगल-ए-आजम’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘बैजू बावरा’, ‘कोहिनूर’ आदि सदाबहार फिल्मों के गीत-संगीत शकील और नौशाद के ही हैं. शकील बदायूंनी ने हिंदुस्तानी अवाम की बोली-बानी में वे गीत रचे, जो उनके दिल के क़रीब थे, तो कुछ ऐसे गीत भी लिखे, जो उन्हें ख़ूब पसंद आए. मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ और ‘मदर इंडिया’ की स्टोरी की मांग के मुताबिक गीत, लोक धुनों पर रचे जाने थे. जिसमें भी फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ के सारे गीत भोजपुरी में लिखे जाने थे. शकील बदायूंनी ने इस चुनौती को मंज़ूर किया और ऐसे-ऐसे गीत लिखे, जो ऑल इडिया हिट साबित हुए. ‘‘दगाबाज तोरी बतियां..’’, ‘‘ढूंढ़ो-ढ़ूंढ़ो रे साजना’’ और ‘‘नैन लड़ जइहें तो मनवा मा….’’ समेत ‘गंगा जमना’ के सभी गाने आज भी पसंद किए जाते हैं.

‘मदर इंडिया’ की बड़ी कामयाबी के पीछे भी उसका गीत-संगीत था और इस गीत-संगीत को भी शकील-नौशाद की जोड़ी ने ही सजाया था. ‘‘पी के आज प्यारी दुल्हनिया चली’’, ‘‘ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे’’, ‘‘होली आई रे’’, ‘‘दुख भरे दिन बीते रे भइया’’, ‘‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढ़ूंढ़ू रे सांवरिया’’ जैसे गाने लोक धुनों में होने के बावजूद सुपर हिट रहे. एक तरफ शकील बदायूंनी ने इस तरह के गीत लिखे, तो दूसरी ओर ‘मुग़ल-ए-आज़म’, ‘मेरे महबूब’ और ‘चौदहवीं का चांद’ के गाने हैं. दोनों ही एक-दूसरे से जुदा. एक लोक की आवाज़, तो दूसरे शेर-ओ-शायरी के रंग में डूबे हुए. एक नग़मानिगार की विविधता इन फ़िल्मों के गाने सुनकर समझी जा सकती है. ‘‘प्यार किया तो डरना क्या..’’, ‘‘ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद ए मोहब्बत ज़िंदाबाद…’’(मुग़ल-ए-आज़म) ‘‘ऐ हुस्न ज़रा जाग तुझे इश्क..’’, ‘‘मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की..’’(मेरे महबूब). फ़िल्मों में जब भजन लिखने की बारी आई, तो यहां भी शकील ने अपनी क़ाबलियत का सिक्का जमाया. ‘‘ओ दुनिया के रखववाले…’’, ‘‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज..’’ (बैजू बावरा), ‘‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है…’’ (अमर), ‘‘जय रघुनन्दन जय गोपाला..’’ (घराना).

उन्होंने तकरीबन 89 फिल्मों के लिए गाने लिखे, जिसमें सबसे ज्यादा गीत उन्होंने नौशाद के लिए लिखे. नौशाद के बाद उनकी जोड़ी संगीतकार रवि के साथ बनी और इन दोनों ने भी अपने चाहने वालों को कई बेहतरीन गाने दिए. ‘चौदहवीं का चांद’, ‘दो बदन’, ‘घराना’, ‘नर्तकी’, ‘फूल और पत्थर’ आदि फ़िल्मों में इस जोड़ी ने कमाल कर दिखाया. लोगों को इस बात का तआज्जुब होगा कि शकील बदायूंनी ने सबसे ज्यादा सुपर हिट फ़िल्में नौशाद के साथ कीं, लेकिन उन्हें उन फ़िल्मों के लिए कोई अवार्ड नहीं मिला. उनको तीन बार फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला, जिसमें दो बार ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘घराना’ के संगीतकार रवि थे, तो फिल्म ‘बीस साल बाद’ में संगीतकार हेमंत कुमार थे. ये तीनों ही अवार्ड उन्हें लगातार तीन साल इन गानों ‘‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, जो भी तुम ख़ुदा की क़सम लाजवाब हो..’’ (चौहदवीं का चांद, 1961), ‘‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं…’’ (घराना, 1962) और ‘‘कहीं दीप जले कहीं दिल…’’ (बीस साल बाद, 1963) के लिए मिले.

इश्क-मोहब्बत, दर्द-ग़म-जुदाई के मिले-जुले जज़्बात से शकील बदायूंनी की ग़ज़लें और नग़मे आकार लेते थे. एक शायर और गीतकार के तौर पर अवाम से उनका गहरा ताल्लुक रहा. फ़िल्मी गानों में भाषा, शिल्प और शायरी के मेयार पर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया. अवाम के ज़ौक और शौक को देखते हुए उन्होंने गाने रचे. फ़िल्मों के अलावा उन्होंने कई ऐसी शानदार ग़ज़लें ‘‘मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे’’, ‘‘ऐ मुहब्बत, तेरे अंजाम पे रोना आया..’’ भी लिखीं, जिन्हें ‘मलिका-ए-ग़ज़ल’ बेगम अख़्तर ने गाकर अमर कर दिया. मुल्क में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में उर्दू ज़बान को जिन शायरों ने ग़ज़लों, नज़्मों और फ़िल्मी नग़मों के हवाले से आगे बढ़ाया, उनमें शकील बदायूंनी का नाम हमेशा अव्वल नंबर पर रहेगा. एक दौर ऐसा भी था कि उनकी ग़ज़लों और नग़मों की वजह से उर्दू ज़बान की मकबूलियत बढ़ी. उनके नग़मों को प्यार-पसंद करने वालों ने उर्दू सीखी. उर्दू ज़बान अवाम में मकबूल हुई. मगर अफ़सोस कि उर्दू अदब में वह एजाज-एहतराम और मुकाम नहीं मिला, जिसके वह हक़दार थे.

जन्म | 3 अगस्त, 1916. बदायूं. निधन | 20 अप्रैल, 1970. बंबई.

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