पद्माकर शिवालकार | समय की चाल से हारा हुनर

सुनील गावस्कर ने अपनी किताब ‘आइडॅल्स’ में अपने पसंदीदा क्रिकेटर्स के बारे में लिखा है. इनमें से 22वें नंबर पर पद्माकर शिवालकार और 23वें नंबर पर राजेंद्र गोयल हैं. इन दोनों को ही उन्होंने बहुत ही शिद्दत से याद किया है. राष्ट्रीय फलक पर अपने हुनर से चमक बिखेरने वाले ये दोनों ऐसे हुनरमंद सितारा स्पिनर्स थे, नियति ने जिनको क्रिकेट के अंतर्राष्ट्रीय फ़लक पर अपनी जवांमर्दी दिखाने से महरूम रखा.

यह वो समय था, जब स्पिन गेंदबाज़ी की कला अपने चरम पर थी. बेदी, प्रसन्ना,चंद्रशेखर और वेंकट राघवन की चौकड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी घुमावदार और उड़ान वाली गेंदों से स्पिन गेंदबाज़ी की वेस्टइंडीज़, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया की ख़ौफ़नाक तेज़ गेंदबाज़ी के बरक्स एक अलहदा छवि बना रही थी. वे चारों ख़ौफ़ के बजाए ललचा-ललचा कर बल्लेबाज़ों को छका रहे थे.

और जिस समय यह चौकड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह कारनामा अंजाम दे रही थी, ठीक उसी समय भारत के दो और गेंदबाज़ पद्माकर शिवालकर और राजिंदर गोयल का युग्म राष्ट्रीय स्तर पर वैसे ही काम को अंजाम दे रहे थे. दरअसल उस महान चौकड़ी के समानांतर स्पिन गेंदबाज़ी के एक प्रतिसंसार की निर्मिति कर रहे थे. इस युग्म द्वारा रचा जा रहा संसार योग्यता और स्पिन कला कौशल में चौकड़ी द्वारा निर्मित दुनिया की आभा से ज़रा भी कम न था. बस, कुछ कम था तो नियति के साथ का अभाव भर था. योग्यता और प्रतिभा की आभा दोनों जगहों पर एक-सी थी. पर एक में ख़ुशक़िस्मती की चमक थी दूसरे में बदक़िस्मती की छाया. एक प्रसिद्धि से गमक-गमक जाता था. दूसरा कुछ न मिल पाने की उदास छाया से आच्छादित रहता.

उन दोनों को देखकर समझा जा सकता है कि एक मौक़ा मिलने और न मिलने भर से जीवन में कितना बड़ा अंतर आ जाता है या आ सकता है. कई बार होता है कि आप ग़लत समय पर पदार्पण करते है. शायद उन दोनों की ये बदक़िस्मती थी कि वे बिशन सिंह बेदी के समकालीन थे. अगर नियति उन दोनों पर मेहरबान हुई होती तो हम एक दूसरा इतिहास पढ़ रहे होते. प्रभूत क्षमता और प्रतिभा होने के बाद भी भारत की ओर से खेलने का मौक़ा नहीं मिला. दोनों की नियति एक थी. दोनों की त्रासदी एक थी. दोनों यूं ही बीत गए, रीत गए, ज़ाया हो गए.

पर वे दोनों घरेलू क्रिकेट के उस्ताद खिलाड़ी थे. दोनों वामहस्त धीमी गति के ऑर्थोडॉक्स लेग स्पिनर. ये उन चार खिलाड़ियों में से थे, जिन्हें बिना टेस्ट खेले बीसीसीआई के सी.के. नायडू लाइफ़ टाइम पुरस्कार से नवाजा गया. दो ऐसे खिलाड़ी जिन्हें बिना भारत की ओर से खेले गावस्कर की किताब ‘आइडॅल्स’ में जगह मिली.

राजिंदर गोयल का निधन 2020 में हुआ और अब 03 मार्च 2025 को 84 साल की उम्र में शिवालकर ने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा.

पद्माकर शिवालकर क्या ही प्रतिभाशाली रहे होंगे कि जब पहली बार उन्होंने ट्रायल दिया तो उन्होंने क्रिकेट की गेंद को छुआ भी नहीं था. वो उस समय तक केवल टेनिस बॉल से खेला करते थे. उन दिनों उन्हें काम की ज़रूरत थी और बीनू मांकड़ को अपनी फैक्ट्री टीम के लिए खिलाड़ियों ज़रूरत थी. उन्होंने शिवालकर को चुना और कहा ‘मेरी या किसी और की शैली की नकल न करना.’ उस युवा ने इस बात की गांठ बांध ली. अपनी ख़ुद की बॉलिंग शैली ईजाद की और पीछे मुड़कर नहीं देखा.

उन्होंने 1961-62 में पहली बार प्रथम श्रेणी मैच खेला और 1987-88 तक 48 वर्ष की उम्र तक खेलते रहे. उन्होंने इस दौरान कुछ 124 मैचों में 19.69 के औसत से 589 विकेट और 16 विकेट लिस्ट ए मैचों में लिए.

एक गेंदबाज़ के रूप में पलक झपकते विपक्षी टीम को ध्वस्त करने की अद्भुत क्षमता थी उनमें. उनकी सबसे शानदार गेंदबाज़ी का उदाहरण 1973 का रणजी फ़ाइनल है. ये फ़ाइनल मैच चेन्नई के चेपॉक स्टेडियम में बंबई (मुंबई) और तमिलनाडु के बीच खेल गया था. पिच वेंकटराघवन और वी वी कुमार के अनुकूल थी. बंबई की पहली पारी 151 रन पर सिमट गई और तमिलनाडु ने पहले दिन के खेल की समाप्ति पर दो विकेट पर 62 रन बना लिए थे और बड़ी बढ़त लेने के लिए तैयार दिख रहा था. उस समय माइकल दलवी और अब्दुल जब्बार की साझेदारी ने 56 रन बनाए थे.

पर अगले दिन शिवालकर जब गेंदबाज़ी करने आये और पहली गेंद तेज़ी से घूमी और उछली. उस टीम के सदस्य कल्याण सुंदरम बताते हैं कि उस गेंद को देखते ही टीम को आभास हो गया था कि जल्द ही सभी का बैटिंग नंबर आने वाला है. और ये आशंका सही साबित हुई. बाक़ी के आठ विकेट केवल 18 रन जोड़ सके और तमिलनाडु की टीम 80 रन पर ऑल आउट हो गई. उस इनिंग में शिवालकर ने 16 रन पर 08 विकेट लिए और दूसरी पारी में 18 रन देकर 05 विकेट. पांच दिन का मैच दो दिन में ख़त्म हो गया.

एक स्पिन गेंदबाज़ की दो प्रमुख विशेषता होती हैं. एक, हवा में उड़ान और लूप. दूसरी, पिच से गेंद का घुमाव. वे फ्लाइट और लूप के मास्टर गेंदबाज़ थे. वे एक और तो हवा में गेंद की उड़ान से बल्लेबाज़ को भरमाते तो दूसरी और वे अपनी गेंद की गति और लंबाई से बल्लेबाज़ों को परेशान करते. बल्लेबाज़ों को स्टंप आउट कराना उनका सबसे प्रिय शगल था और ख़ासियत भी.

वे एक शानदार और सफल गेंदबाज़ थे. उन्होंने 13 बार दस या दस से अधिक विकेट लिए और 42 बार एक पारी में पांच या पांच से अधिक विकेट लिए. इस सब के बावजूद वे भारतीय टीम के लिए नहीं चुने जा सके. इसका उन्हें हमेशा मलाल रहा. और इसे हमेशा उन्होंने बहुत शिद्दत से महसूस किया.

एक कहावत है कि ‘सफलता से अधिक सफल कुछ नहीं होता’. इस बात को सबसे ज्यादा वही समझ सकता है, सफलता जिसके हिस्से में नहीं आई हो. यह बात शिवालकर से बेहतर और कौन समझ सकता है. उनकी निराशा और उदासी को सबसे अधिक उनके गायन में महसूस किया जा सकता था.

वे एक शानदार प्रोफ़ेशनल गायक भी थे. पक्के गायक. अगर वे क्रिकेटर न होते तो शायद वे एक सफल और शानदार गायक होते. उन्होंने अपने कुछ गीतों में कहा है कि एक व्यक्ति का भाग्य कैसे उसके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. विशेष रूप से ‘हा चेंदु दैवगतिचा……’ गीत. जब वे ये गीत गाते तो अहसास होता है कि मानो वे अपना जीवन गा रहे हों. कितनी शिद्दत से उनका दर्द उस गीत में छलक-छलक जाता है. जब वे गाते तो लगता कि उन्होंने अपनी आत्मा को गाने से मिलाकर एकाकार कर दिया है. गीत है –

    भाग्य का यह चक्र निरंतर घूमता रहता है,
    कभी ऊँचाइयों तक ले जाकर तो
    कभी किसी का जीवन बिखेरकर.
    यह समय की चाल कैसी है,
    इसे कोई नहीं समझ पाया.
    जब भी कुछ होता है,
    लोग बिना सोचे-समझे दोषारोपण करने लगते हैं और हज़ारों ज़ुबानें बड़बड़ाने लगती हैं.
    इस भाग्य के खेल को ज़रा क़रीब से देखो
    जिस तरह समुद्र में नावें छोड़ी जाती हैं
    और लहरों की मार से उनकी परीक्षा होती है,
    वैसे ही जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं.
    जो इन लहरों से लड़ने की ताक़त रखते हैं,
    वे विजयी होते हैं,
    तो कुछ लोग इन्हीं लहरों में समा जाते हैं.
    परंतु यह सब तो जीवन का स्वाभाविक क्रम है, फिर दुखी होने से क्या लाभ?
    जो भी सुख के पल हमारे पास बचे हैं, उन्हें प्रेम और सहेज कर रखो.
    इन्हीं सुखद पलों से जीवन का मधुर संगीत बनता है, जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है.

बाद में उन्होंने ‘हा चेंदु दैवगतिचा’ (समय का ये चक्र) नाम से किताब भी लिखी. सच में वे समय के चक्र में फंसे थे और नियति का शिकार थे. वे इसे जानते-समझते थे और इसको शिद्दत से महसूस करते थे. एक उदास संगीत हमेशा उनके जीवन के पार्श्व में बजता था. उसकी लय पर उनका जीवन थिरकता था.

क्या ही विडंबना है कि जिसने गेंद को साध किया हो, जो गेंद की उड़ान का जादूगर हो, उसका साधक हो, नियति ने उसे उड़ने न दिया. उसे उन ऊंचाइयों से महरूम कर दिया जिन ऊंचाइयों का वो हक़दार था और जिन ऊंचाइयों को वो छूना चाहता था.

पर कुछ जीवन अपूर्ण इच्छाओं को लिए ही पूर्ण हो जाते हैं. पद्माकर शिवालकर भी ऐसे ही गेंदबाज़ थे जिनकी बहुत सी इच्छाएं अपूर्ण ही रहनी थी. शायद उनकी महानता इस अपूर्णता से ही बनती है और वे इसी लिए याद किए जाते रहेंगे.

अलविदा प्रिय पैडी.


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