आपबीती | हंसता हुआ राशिद लगा कि रो देगा
महामारी के इस दौर में इंसानी रिश्तों का किस क़दर क्षरण हुआ हैं, राशिद पर भारी गुज़रे तीन हफ़्ते उसी की एक मिसाल हैं. ख़ता कुछ भी नहीं और 21 दिन की जेल. हालांकि उसकी रोजी है मगर आइंदा फेरी पर जाने से उसने तौबा कर ली है. उसका कहना है – आप फेरी की बात करते हो, मैं तो उस मरहम का नाम ही भूल गया, जो कभी बेचता था.
राशिद बहेड़ी में रहते हैं. गांवों में लगने वाले बाज़ारों में मरहम वगैरह बेचकर गुज़र-बसर वाले आम आदमी. लॉक डाउन में हाट लगना बन्द हो गईं, तो वह भी बेरोज़गार हुए. लॉकडाउन ख़त्म हुए भी जब कई रोज़ गुज़र गए, तो राशिद ने गांव-गांव फेरी लगाकर मरहम की डिब्बियां बेचने और कुछ पैसा कमा लाने का इरादा किया. 9 जुलाई को अपनी टुटही बाइक लेकर फेरी पर निकले. शाम तक घर नहीं लौटे, तो घर वालों को फ़िक्र हुई. बीमार मां रात भर बेटे के लौटने के इंतज़ार में जागती रहीं. रात बीती मगर राशिद घर नहीं लौटे. अब घर वालों की फ़िक्र बढ़ गई. रिश्ते-नाते वालों के यहां फ़ोन किए, लेकिन राशिद का कहीं कुछ पता न चला. रिश्तेदारों को भी फ़िक्र हुई. राशिद की ख़ुशमिज़ाजी और अख़लाक़ के चलते उसके यूं गायब होने की बात फैली तो और लोग भी परेशान हो उठे.
शनिवार का दिन आया तो बेचैन घर वालों ने पुलिस को फोटो देकर उसकी गुमशुदगी की ख़बर दी. पुलिस ने, ‘तलाश करो’, कहकर घर वालों को विदा कर दिया. पुलिस की ज़िम्मेदारी तो दरख़्वास्त लेने के बाद पूरी हो गई, लेकिन घर वाले तो हाथ पर हाथ रखकर बैठ नहीं सकते थे. गांव-गांव खेतों और पगडंडियों पर तलाश करते घूमे. दिन गुज़रने लगे और राशिद के घर वालों की बेचैनी बढ़ती गई. किसी अनहोनी का अंदेशा उनको सताने लगा. सोशल मीडिया और अख़बार, हर तरह से मुनादी कराई, मगर कुछ काम न आया. दस दिन इसी तरह ही गुज़र गए.
ग्याहरवें दिन अचानक घर पर मोबाइल की घण्टी बजी. फ़ोन पर दूसरी तरफ से राशिद की आवाज़ सुनाई दी. घर में शोर मच गया – राशिद का फ़ोन आया है. राशिद ने बताया – वह बरेली जेल में बंद है. शीशगढ़ थाने से उसे जेल भेजा गया है. वह बस इतना ही बता सके और फ़ोन कट गया. दरअसल दस रोज़ तक ज़मानत की अर्ज़ी न लगने पर जेल प्रशासन कैदी को अपने घर फ़ोन करने की सहूलियत देता है, और उसी के चलते राशिद को अपने घर अपनी मौजूदगी का संदेश देने का मौक़ा मिला. महामारी के चलते जेल में कैदियों से मिलाई बन्द है, इसलिए घर वाले राशिद से मिलने जेल नहीं जा पाए. ज़मानत की कोशिशों में जुट गए, और ज़मानत मिलने में भी दस दिन लग गए.
घर से फेरी के लिए निकले राशिद के जेल पहुंचने और वहां 21 रोज़ काटने का वाक़या किसी कहानी से कम नहीं. इस कहानी में वह सब कुछ है, जो किसी भी बाशऊर इंसान को झकझोर देगा. समाज में फैली विकृतियों के साथ पुलिस के सलूक और जेल की ज़िंदगी का आईना भी है.
बक़ौल राशिद – उस रोज़ मरहम की डिब्बियां फ़रोख़्त करने वह मानपुर के पास मनकरा गांव गया था. गांव में पांच-छह लोगों ने उसे रोककर उसका नाम पूछा. और नाम बताने पर कहने लगे – कोरोना फैला रहे हो. फिर वो लोग कहने लगे – मुसलमान ऐसे ही कोरोना फैलाते घूम रहे हैं. राशिद ने इसका प्रतिवाद किया और यही प्रतिवाद भारी पड़ गया. उन सब ने मिलकर पहले उसे ख़ूब पीटा, और फिर पुलिस बुला ली. पुलिस मुझे शीशगढ़ थाने ले गई, और वहां एक अदद चाकू की बरामदगी बताकर मुझे बन्द कर दिया गया. पुलिस ने उसकी सफ़ाई पर कोई ग़ौर नहीं किया और जेल भेज दिया.
जेल की ज़िंदगी पर राशिद का तबसरा भी कम हैरानकुन नहीं. रोटी और दाल, दाल मतलब गरम पानी भर. पानी से रोटी कोई कैसे खाता है, यह जेल जाकर ही पता चला. पहली बार तो लुक़मा मुंह में रखते ही उबकाई आ गई. राशिद ने बताया – वहां कोई आठ तो कोई दस बरस से क़ैद था. ये लोग इतना लम्बा वक़्त यहां कैसे गुज़ार रहे हैं, यह सोचकर मुझे कंपकंपी छूट जाती. मेरी हालत पर वहां कुछ कैदियों को तरस आ गया. प्रधान जी के नाम से पहचाने जाने वाले एक कैदी ने दो सौ रुपये दिए. मेरे खाने का कुछ इंतज़ाम कराया. अपने घर से मेरे लिए कपड़े मंगाए. जेल का नाम सुना था, वहां जाकर जो कुछ देखा और महसूस किया, उससे तो दिल से एक ही बात निकलती है कि ख़ुदा दुश्मन को भी जेल न ले जाए. राशिद जेल में मिले हमदर्दों को याद करते हुए कहता है, अगर वे लोग नहीं मिलते तो इतने दिन जेल में गुज़ार नहीं पाता. कई बार रोया, तो उन सब ने ही दिलासा दी.
परसों देर शाम जेल में राशिद की रिहाई का परवाना पहुंचा. हालांकि राशिद के भाई लोग उसे लेने जेल के बाहर खड़े थे, मगर राशिद पर उनकी नज़र नहीं पड़ पाई. राशिद बताता है – जेल से निकला तो बहुत घबराया हुआ था. मुझे लगता था कि मैं जल्दी यहां से निकलूं, कहीं फिर मुझे रोक न लिया जाए. वहां खड़े एक टैम्पू में जल्दी से बैठ गया. टैम्पू वाले ने रोडवेज़ बस स्टैंड के सौ रुपये तलब किए. मैंने टैम्पू वाले से कहा कि भाई मैं रेस्टोरेंट से नहीं, जेल से निकला हूँ. इसके बाद उसने 50 रुपये लेने की बात कही. मैं सीधे रोडवेज़ बस स्टैंड पहुंचा और वहां से बस से बहेड़ी. रोडवेज़ बस में राशिद को पैसे नहीं देने पड़े, जेल से रिहाई के वक़्त हाथ पर लगाई गई मोहर काम आ गई और जेल में मिले पैसे जो अंटी में छिपाए हुए थे, वही उसने टैम्पू वाले को दे दिए.
जैसे-तैसे राशिद घर पहुंच गया. जेल के बारे में उसका तजुर्बा है कि जेल क्या, जीते-जी दोज़ख देख ली. यों राशिद को जानने वालों ने बात-बात पर उसे ख़ूब हंसते हुए देखा है. अभी अपनी आपबीती सुनाते समय भी वह हंस तो खूब रहा था, हाथ मार-मार कर, लेकिन हंसी के साथ उसकी आँखों में नमी भी थी, और चेहरे पर रो देने जैसा भाव.
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