कहानी एक लफ़्ज़ की | नव्वाब

  • 12:05 am
  • 28 August 2020


कहानी एक लफ़्ज़ की | एक दौर में शैतान और पढ़ाई से बचने वाले हिन्दुस्तानी बच्चों को नसीहत के तौर पर बुजुर्गों की पसंदीदा कहावत थी – पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब/ खेलोगे-कूदोगे होगे ख़राब.

कभी नवाबी का ठसका इतना असरदार था भी कि हुकूमते बरतानिया के तमाम रईसों को नवाब कहलवाने का चस्का लग गया. इसके लिए अपने तौर-तरीके बदलने में भी उन्होंने गुरेज़ नहीं किया. और देसी नवाबों की शान और शाहख़र्ची के तो कितने ही क्या, बेशुमार क़िस्से हैं. नवाब की उपाधि दरअसल नायब से जन्मी, नायब माने असिस्टेंट. मगर किसका? अगर बादशाह का असिस्टेंट ही है तो फिर उसके रुतबे का भला मुक़ाबला क्या?

और ग़ौर कीजिए कि इमाम आज़म क्या कहते हैं,
राजाओं का दौर गया और साथ ज़मींदारी भी गई
लेकिन गाँव का मुखिया जीता है नवाबी ठाट लिए.

बक़ौल गुलज़ार,
फ़क़ीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू
अगरचे मअनी कम होते हैं उर्दू में


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