कहानी | मशीनी रूहों के रिश्ते

(आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का लफ़्ज़ आप सब ने सुना होगा. अब ये कोई नई ख़बर नहीं है. हर रोज़ इसके किसी नए अजूबे नए कारनामे से आप वाक़िफ़ होते हैं, कुछ नई हैरतअंगेज़ चीज़ सुनते हैं. एक तरफ आम इंसान इसके आने वाले ख़तरों से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ़ कुछ लोग इस से अपने काम आसान करने में लगे हैं. लेखक कहानियाँ लिखवा रहे हैं तो आर्टिस्ट लोग कला को नए रूप दे रहे हैं. कंप्यूटर वाले आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से प्रोग्राम बनवा रहे हैं तो डॉक्टर लोग इस से बीमारियों का इलाज करने की सहूलियत ढूंढ रहे हैं, पर मेरा एक दोस्त है जिसकी ज़िन्दगी में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस ने एक गेम, एक खेल, के ज़रिये पहले तो उसकी मुश्किलें आसान कर दीं पर फिर ज़िन्दगी-मौत के संगीन सवाल खड़े कर दिए, मुश्किलें बढ़ा दीं. यह कहानी उसी दोस्त और उसी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से बनी गेम की है. असल कहानी पंजाबी में है, जिसका नाम है- ‘घड़ी सियाण’ यानी मशीनी बुद्धिमत्ता. -अनुवादक)

उसे बच्चे अच्छे लगते थे, वो चाहता था कि उसके भी अपने बच्चे हों. वो बच्चे पालना भी चाहता था, भले ही उसका अपना कोई बच्चा न था, उसका कोई भाई भी नहीं था, केवल तीन बहनें थीं. जब वो छोटा था तो उसने स्कूल के एक दोस्त को छोटा भाई मान लिया था और आठवीं जमात तक उसे भाई ही मानता आया पर एक दिन किसी ग़लतफ़हमी की वजह से दोनों में लड़ाई हो गई और उनका आपसी भाईचारा ख़त्म हो गया.

फिर उसने बड़ी जमात के किसी लड़के को अपना बड़ा भाई बना लिया. इस तरह भाई बदलते-बदलते पढ़ाई भी ख़त्म हो गई और भाई-भाइयों के बीच की बातों का भी अंत हो गया. उसने कॉलेज के बाद नौकरी के लिए बहुत धक्के खाए, बहुत कुछ सहा और दोस्ती भी ख़त्म होती देखी. वो ज़िन्दगी से नाख़ुश ही रहा. आख़िर नौकरी लग ही गई और उसके पैर जमने लगे थे पर रोज़ी-रोटी का मसला ख़त्म हुआ तो और दूसरी मुश्किलें आईं.

रिश्तेदारों और दोस्तों ने उसका कोई साथ न दिया. वो अकेला पड़ता गया. घर-बार और परिवार-कुटुंब नाम की चीज़ से उसका विश्वास ही उठ गया. उसके माँ-बाप ये ज़ोर लगाते रहे कि किसी तरह उसका अपना घर बस जाए, शादी हो जाये, बहू आ जाये और उसका अपना परिवार बने पर वो रिश्तों को लेकर इतना उदास था कि कुछ बना ही नहीं पाया .

उम्र के साथ माँ-बाप गुज़र गए, बहनें की शादी हो गई, वो भी परायी हो गईं. दो-चार बचे रिश्तेदारों ने कहा, ‘किसी को भी ला के शादी कर ले’ पर कुछ सबब न बना. परदेसी होकर बहनों के अपने घर बसा लिए और धीरे-धीरे उन्होंने भी किनारा कर लिया. जब कोई उसे शादी करने को कहता तो उसका एक ही जवाब था—‘मैं शादी नहीं कराऊंगा’. पर क्यों? उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था. अब घर के अंदर-बाहर इस सवाल की ही मौत हो गई थी.

मन ही मन वो अपने आप को कोसता, गली-मोहल्ले में खेलते बच्चों को देख वो सोचता कि काश उसका भी कोई बच्चा होता जिसके साथ वो अपनी ख़ुशियां और मन की बातें बांटता. उसे जीवन साथी या पत्नी की कमी उतनी नहीं खलती थी, जितनी एक बच्चे की, एक बेटे की. पर अब शादी के बिना वो बच्चा कहाँ से लाए. बच्चे तो इस दुनिया में बहुत थे जिन्हे वो गोद लेने की सोचता पर कुछ देर बाद वो हताश हो बैठता, कौन देगा उसे कोई बच्चा. उसके साथ के जवान लोग अब उसके साथ कम ही बैठने लगे थे. मजबूरियों के चलते उसके साथ अपने पिता की उम्र के लोग रह गए थे.

उसे मां, पिता, संगिनी, दोस्त, भाई, बहिन और नज़दीकी रिश्तेदार न होने का कोई मलाल नहीं था, बस एक बेटा न होने का बहुत दुःख था. उसकी हर सोच किसी बेटे का बाप बन जाने पे ख़त्म होती थी. वो बेटे को प्यार करना चाहता था, उसे ख़ुशियाँ देना चाहता था, पढ़ाना-लिखाना और एक नेक इंसान बनाना चाहता था लेकिन घर में अकेले पड़े रहने पर हर बार यह बात उसको साँप के डंक-सी चुभती थी कि उसका अपना बेटा नहीं है. उसका ग़म जब सब हदें पार कर लेता तो वो अपने-आप को झूठी तसल्ली देता, ‘न सही, तो फिर क्या हुआ? अपने बेटे भी कौन इतनी इज़्ज़त करते हैं, जिनके बेटे होते हैं वो कहाँ माँ-बाप को प्यार देते हैं या हमेशा ख़ुशियां ही देते हैं.’ ख़ुद को सफ़ाई देने के बाद वो अपनी सफ़ाई पर ख़ुद ही शर्मिंदा होकर ठंडा होके भरने लगता.

एक दिन जब वो दफ़्तर में मायूस बैठा था तो उसके साथी ने बताया कि दुनिया बदलने से मसले भी बदल गए हैं. किसी को जवान और अकेला होने का दुख है तो कोई शादी से नाख़ुश है. किसी के पास बच्चे न होने का ग़म है तो किसी को बदतमीज़ औलाद का. कुछ को अपने माँ या पिता का न होना भी खलता रहता है. उसके दोस्त ने बताया कि ये सब देखते हुए एक वीडियो गेम बनाई गई है, जिससे ऐसे मायूस लोगों को बहुत सहारा मिलता है. तुम उसे क्यों नहीं ट्राई करते? उसके साथी ने कहा.

भला वीडियो गेम भी लोगों को ज़ेहनी सहारा दे सकती है यह सोच उसने गहरी सांस लेकर ठंडी हवा फेफड़ों में भर ली और विचारने लगा. उसने इस बारे में पढ़ा, जापान में लोग अब इसी गेम के सहारे प्यार बाँट और बटोर रहे हैं. कोई बच्चा पैदा करना ही नहीं चाहता, कोई प्यार में बांधना ही नहीं चाहता. उसने पाया कि वो वीडियो गेम किसी इंसान को, कहीं पर भी, चाहे वो शादी शुदा हो या फिर कुंवारा एक बच्चा या बच्ची दे सकती थी.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर बने उस गेम का बच्चा बिलकुल असल बच्चों जैसा दिखता था, उन्हीं की तरह बात करता, माँ या बाप से प्यार करता और ज़िन्दगी के हर उस पड़ाव से गुज़रता है जैसे कि एक असल बच्चा गुज़रता है. उस बच्चे को पालने-पोसने वाले माँ या बाप को भी वो सब फ़र्ज़ पूरे करने होते हैं जो असल बच्चे के लिए ज़रूरी होते हैं, मसलन, उसको खाना देना, प्यार करना, उससे बातें करना और उसकी सेहत का ख़्याल रखना, वग़ैरह.

दोस्त ने उसे बताया, ‘जापान में अब ज़्यादा लोग गेम्स के साथ ही जीते हैं. कुछ ने तो गेम में बनी लड़की से शादी भी कर ली, वो उसे ही अपनी पत्नी मान कर ख़ुश रहते हैं. तू भी क्यों नहीं कर लेता एक ऐसी शादी या फिर ले ले गेम से एक बच्चा. ऐसे रोज़ मन मसोसने से क्या होगा. सोचा तुझे सलाह दे दूं, बाक़ी तेरी मर्ज़ी है.’

अपने दोस्त की यह बात सुन कर उसने अपने स्कूटर की चाबी मेज़ से उठाई और घर की ओर चल पड़ा. रात को देर तक तक अकेले पड़े-पड़े उसने गेम को डाउनलोड कर ही लिया. गेम क्या था, एक नन्हा बच्चा पालना था. या फिर आप इस गेम में कुछ भी पाल सकते थे, किसी कुत्ते, बिल्ली, बछिया, खरगोश से लेकर इंसानी बच्चे तक.

उसने इंसानी बच्चा चुन लिया. उसे गेम को समझने में कुछ देर तो लगी पर जैसे ही समझ आया उसको बस चस्का लग गया. गेम के चक्कर में पूरी रात सो न पाने की वजह से उसने अगले दिन दफ़्तर से छुट्टी भी ले ली. पूरी रात वो गेम को अपने बारे, अपने हालत, मुल्क़, मोहल्ले, परिवार और अपने माली हालत और अपने बारे में पूरी जानकारी देता रहा. उसे अपनी चाहत के बच्चे के बारे में भी जानकारी देनी पड़ी. उसे मालूम हुआ कि वह अपने बच्चे को अपनी मर्ज़ी का नाम दे सकता है. उसने सोच लिया उसके बेटे का नाम रहमत होगा. उसे ख़ुशी थी कि वो अपने बच्चे के रंग से लेकर आंख, नाक, कान उसका डील-डौल, हर चीज़ अपनी मर्ज़ी से चुन सकता था. वह उसके बालों को एक ख़ास स्टाइल दे सकता था, आँखों में काजल लगा सकता है, यहाँ तक कि नज़र न लगने का तावीज़ भी बाँध सकता था.

वो खेल जब बना था तो नए जमाने की मांओं को बच्चे पालने की ट्रेनिंग देने के लिए बनाया गया था. मोबाइल फ़ोन पे वो खेल 24 घंटे चल सकता था, जिसमें बच्चा हर समय कुछ न कुछ करता रहता, हाथ-पैर मारता, उल्टा पुल्टा होता, गिरता, फिर रोने लगता और मोबाइल पर उसके चीख़ने की आवाज़ आने लगती. जब उसे भूख लगती तो उसे उठकर दूध पिलाना पड़ता था, जो कि कोई मुश्किल काम नहीं था, बस कुछ बटन दबाकर दूध की बोतल उसके मुँह से लग जाती. इसी तरह खेल में सूसू या पॉटी करने पर हर बार बच्चे के डायपर भी बदलने पड़ते थे, कभी आधी रात को और कभी हर घंटे बाद. सुबह उसको नहला कर साफ़ कपडे पहनाना.

गेम से हट कर बीच बीच में वो सोचने लगता मेरा अपना बेटा होता तो क्या वह मेरे साथ ऐसे ही प्यार करता, ऐसे ही बात मानता जैसे यह मानता है और क्या मुझे उसके साथ किसी और तरह का लगाव या प्यार होता? अगर वह मेरा असल ख़ून होता तो क्या मैं उसके साथ किसी और तरह से पेश आता? क्या मैं इसके साथ वैसा सुलूक़ नहीं करता? ख़ैर, ऐसे ख़्यालों को झोली में भर वो दिन-रात मशगूल रहने लगा है. एक दिन उसने ग़ुस्से में गेम वालों को अपने बच्चे के बारे में कुछ ग़लत मैसेज लिख दिया और फिर जवाब का इंतज़ार करने लगा. अंधेरे हो चला था, वो सो गया. सुबह उठकर सबसे पहले उसने मोबाइल देखा कि उसके बच्चे की तरफ़ से या गेम का कोई मैसेज आया. पर ख़ाली इनबॉक्स देखकर वह और रूठ गया. जाने क्या विश्वास दिलाना चाहता था वो अपने आप को.

गेम और मोबाइल अब उसे जगाए रखता था, लेकिन अब उसे ऐसा महसूस होने लगा कि वह बाप भी है और माँ भी. सारी तकलीफ़ें जो उसके माता-पिता ने उसे पालने-पोसने में झेली थीं, उन्हें ख़ुद सहते-सहते उसे बहुत सुकून मिलने लगा. वह किसी से एक बच्चा गोद भी ले सकता था, लेकिन उसे लगा कि इस खेल में किसी इंसानी जान के साथ कोई अन्याय नहीं हो रहा जो कि असल ज़िन्दगी में हो सकता था. वो ये साफ़ तरीके से सोच नहीं पा रहा था कि वह असल बच्चे का ध्यान ऐसे ही रख सकेगा या नहीं. दफ़्तर में बैठकर भी उसका ध्यान काम में कम और मोबाइल में पल रहे बच्चे की ओर ज्यादा रहता था. उसके साथी हंसते हुए उसके पास से गुज़र जाते पर उसे डिस्टर्ब नहीं करते. वीडियो गेम वाला बच्चा बड़ा होने लगा था. गेम इस तरह बनाया गया था कि आप अपना बच्चा आंखों के सामने जवान होता देख सकते थे.

बड़े होते बच्चे की अपनी ज़रूरतें भी होती हैं, कभी उसे खांसी और बुख़ार है तो कभी पेट ख़राब, कभी उसे डॉक्टर के पास ले जाना होता, कभी पार्क में घूमने, कभी उसके लिए सामान ख़रीदना होता है तो कभी खिलौने और कभी बाल कटवाने, बिलकुल वैसे ही जैसे असली बाल कटवाने के लिए नाई के पास जाना होता. गेम वाला बच्चा अब बातें भी करने लगा था, हंसता भी था, रोता भी था, लाड़ भी करता था और ग़ुस्सा भी. वो बच्चा अपने दोस्तों के साथ घूमने जाने के लिए उससे पैसे भी मांगता था और हर रोज़ किसी नई चीज़ की फ़रमाइश भी करता. वो सब ले के देने के लिए उसे गेम वाली कंपनी को पैसे देने पड़ते – पर वो ख़ुश था, असल बच्चे पर भी तो ख़र्चा होता ही है, फिर क्या.

हमने ही मशीनों को सब कुछ सिखा दिया था. ऐसा कहते हैं न ‘जिनके घर दाने उनके बुद्धू भी सयाने’. नई दुनिया के बाशिंदो ने अपनी मशीनें भी समझदार बना लीं, इंटेलीजेंट. असल नहीं आर्टिफ़ीशियल ही सही पर इंटेलीजेंट. मोबाइल के माथे पर लगे कैमरे और उसके अंदर छुपे माईक से वीडियो गेम पता लगा लेती कि खेल खेलने वाला हंस रहा है या उसका मुँह लटक रहा है, वो ग़ुस्सा है या परेशान. अगर खिलाड़ी उदास होता तो खेल वाला बच्चा उसे हँसाने लगता. अगर खिलाड़ी पहले से हंस रहा होता तो बच्चा रोने लगता.

गेम का सिस्टम ऐसा था कि वह खेलने वाले की हर बात को रिकॉर्ड कर याद कर लेता जो कि उस ख़ुद-ब-ख़ुद सीखने वाली मशीन को और अच्छा बनाने में मदद करता. मशीन या गेम से मिले अजीबो-गरीब जवाबों से खेलने वाले इस सोच में पड़ जाता कि इसे मेरे दिल की हालत इसे कैसे पता चल गई. बिलकुल वैसे ही जैसे कोई अपना जन्मा बच्चा अपने पिता के दिल की हालत जान ले.

बेटे के लालन-पालन में वो अब ख़ुश रहने लगा था. उसकी अपने ज़रूरतें तो कुछ थीं नहीं सो अपना सब कमाया वो बेटे पर लगाने लगा. एक से एक नई जीन्स, जूते, कपड़े, चश्मा, किताबें, यहाँ तक की मोबाइल फ़ोन मोटर साइकिल और वीडियो गेम का सेट भी बेटे के लिए ख़रीद लिया गया. वो दफ़्तर से लौटते समय भी उस से बातें करता आता.

धीरे-धीरे गेम में ही बच्चे का स्कूल से कॉलेज तक का सफ़र पूरा हो गया. गेम खेलते-खेलते उसे अब दो साल हो चुके थे. गेम में सुकून था, कोई टेंशन नहीं थी. वीडियो गेम से बाहर वाली असल दुनिया को अब उसने कम वक़्त देना शुरू कर दिया.
पर बीच-बीच में उसे अपने आप पर शक होने लगता. उसे लगने लगता कि जैसे उसने कई बार कबूतरों को पाल कर उड़ाया था, यह भी उनमें से एक होने वाला था. वो डरता था और नहीं चाहता था कि कुछ ऐसा घटे. ‘ये मशीन है, गेम कंपनी को अपना धंधा चलना है, वो मुझे दुःख क्यों देंगे?’ ये सब कह वो अपने आप को तसल्ली देता.

पर एक रोज़ शाम 4 बजे उसे गेम वाले बेटे की तरफ से मैसेज आया — ‘गेट रेडी टु से गुडबाय, पापा’ ; हाय उसका दिल बैठ गया. ये क्या कह रहा है बेवक़ूफ़. उसने मोबाइल से अपनी नज़रें हटा ली. वो नहीं जानता था कि इस नक़ली ज़िन्दगी में भी वो सब होगा या बीतेगा जो असल ज़िन्दगी में होता है. जैसे दुनिया के बहुत सारे बच्चे अपने माँ-बाप को छोड़कर चले जाते हैं उसके अपने साथ भी ये सब होने वाला था. उसे इस बात का रती भर भी इल्म नहीं था. उसका ध्यान असल ज़िन्दगी से हट चुका था.

उसकी आँखों के सामने की असल दुनिया से उसका अब कम ही वास्ता था. उस दुनिया को छोड़कर उसने एक मशीन वाले बच्चे से अपने चाव पूरे करने में सब कुछ भुला दिया था. अब दर्द तो होना ही था. उसने मोबाइल खोला और फिर डर के मारे उसे बंद कर दिया. एक तेज़ बीप लगातार बजने लगी. उसने जब स्क्रीन पर देखा तो सामने उसका 18 साल का जवान बेटा उसका इंतज़ार कर रहा था. इस मशीनी बेटे ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, ‘गुड बाय पापा, यह वक़्त है जुदा होने का, बिछड़ने का, मुझे आपको छोड़ने का. मैं जीवन में आगे बढ़ना चाहता हूँ, अपने भविष्य के लिए मुझे अपनी नई दुनिया चुननी होगी, मुझे जाना होगा और अपना रास्ता ख़ुद बनाना होगा, पापा.’

उसने अगले बटन को दबाते हुए कहा, ‘नहीं बेटा, मैं तुम्हें जाते हुए नहीं देख सकता, बेटा, मत जाओ, प्लीज़ मेरे साथ रहो, बेटा.’ पर स्क्रीन एकदम बंद हो गई और दूसरी तरफ़ से संदेश आया: ‘सॉरी, यह गेम का आख़िरी हिस्सा है. इसके साथ गेम ख़त्म है. क्यूंकि आप एक इंसान हैं इस नाते आपके लिए यह झेलना मुश्किल होगा पर आपको यह अनुभव करना ही होगा. आपके बेटे ने जो कहना था, कह दिया. अब वो जा चुका है. आपको उस बच्चे को जाने देना होगा, उसे अपना भविष्य बनाना और संवारना है. समझ लीजिये वो बच्चा अब पीछे छूट गया, इतिहास-सा.’ उसकी आँखों से लगातार बिना रुके आँसू बह रहे थे. वो समझ नहीं पा रहा था कि अपने बेटे को कैसे रोके, कैसे अपने पास वापस बुलाए. उसे दुःख हो रहा था, वो अपना सब कुछ दे कर भी उसे रखना चाहता था या अपनी जान दे देना चाहता था.

उसे अपना बचपन याद आ रहा था, जब उसने अपने चचा को बेज़ार रोते देखा था. उसके चचा फ़ाख्ता पाला करते थे, उन सुन्दर सफ़ेद और सलेटी कबूतरों को सीटी बजा-बजा कर रोज़ सिखाते थे कि कैसे उड़ाना है और कैसे घर वापस आना है. एक रोज़ उनका पसंदीदा फ़ाख़्ता घर की छत से उड़ा पर वापस नहीं आया. उस रोज़ चाचा ने रो-रो कर आसमान सर पे उठा लिया था. उसे याद था अपने चचा का ग़म. आज वो ख़ुद वो ही ग़म महसूस कर रहा था.

स्क्रीन पर उसका बेटा एक बड़ा-सा बैग हाथ में पकड़े मुस्कुरा रहा था. उसकी आँखों में आँसू आ गए थे और उसने लिखा, ‘आई आल्सो डोंट वांट टू लीव यू पापा, थैंक यू पापा, मैं जल्द आऊंगा, मैं वापस आऊंगा, अलविदा – अपना ख्याल रखना.’ उस मशीनी बेटे ने अपने हाड-माँस वाले मानव पिता के आँसू नहीं देखे और ये सब हँसते हुए वैसे की कहा जैसे कि मशीन को बताया गया था. स्क्रीन पर उस समय पटाख़े फूट रहे थे और सामने ‘कांग्रैचुलेशन्स’ छप गया.

कुछ समय बाद स्क्रीन बदली और गेम वालों की तरफ से संदेश आया, ‘तुम इस खेल के सबसे बड़े हाई स्कोरर बन गए हो, मुबारक.’

वो गेम, वो खेल फिर से दुबारा शुरू हो गया जहाँ से पहली बार शुरू हुआ था. अब एक बार फिर तुम नए जवान हुए बेटे को चुन सकते थे. उसने मोबाइल बिस्तर पर फेंका और ऐसे रोया जैसे सदियों से यह रोना उसके अन्दर दबा हुआ हो. बहुत देर तक रोते हुए उसका चेहरा आँसुओं से भीग गया था. उस अकेले घर में कोई नहीं था जो उसे चुप कराता और कहता, ‘तुम क्या कर रहे हो? बंद कर बस. ऐसे थोड़े ही रोते हैं.’

उनकी अपनी लाल-लाल सूजी हुई आँखें पोंछीं और अपने आस-पास देखा. ख़ाली कमरे में वह फ़र्श पर बैठा था, अपने ही बिस्तर के पास, जैसे कोई लाश बैठी हो. बिस्तर पर सिर्फ़ उसका मोबाइल पड़ा था. उसने दीवारों को देखा, पर्दों को निहारा और चलते हुए पंखे की ओर भी झाँक भर लिया. पंखे से लटक कर जान दे देने का ख़्याल भी उसके ज़ेहन से गुज़रा था.

उसने फिर तौलिया उठा कर शीशे के सामने खड़ा हो ख़ुद को गौर से देखा. उसका चेहरा लाल-लाल था, आंखें सूजी हुई थीं और नाक से पानी बह रहा था. उसकी आवाज़ फट रही थी. वह और ज्यादा रो नहीं पाया और धीरे-धीरे शांत हो गया. उसने शीशे में ख़ुद को ध्यान से देखना शुरू किया. उसकी हंसी निकल आई, जो धीरे-धीरे बढ़ती गई, वो जैसे पगलाना तरीक़े से रोया था, वैसे ही अब हंसने लगा. उसे ख़ुद पर इतना हँसी आई कि पहले कभी किसी चीज़ पर इतनी हँसी नहीं आई थी. हँस-हँस कर उसकी आंतें दुखने लगीं. इतना हँसा कि जैसे उसकी जान ही निकल गई हो. थक हार कर वो अपने बिस्तर पर गिर पड़ा.

बिस्तर पे लेटे वो घूमते हुए पंखे को देखने लगा. उसने हाथ उठाकर पंखे से झूलने की कोशिश की. वो देखना चाहता था की पंखा कितनी देर तक चलता है. अचानक मोबाइल बजने लगा. उसने अपने हाथ नीचे खींच लिए. हिम्मत करके मोबाइल उठाया.

उसके बेटे का वॉइस नोट आया था. उसका बेटा बहुत डूबती हुई आवाज़ में कह रहा था, ‘हैलो, सुनो, मैं शहर छोड़ कर जा रहा हूँ. मैं इम्तेहान में पास हो गया हूँ, मुझे डिग्री मिल चुकी है. आप कॉन्वोकेशन पर भी नहीं आए. पर कोई बात नहीं, अब मैं आपको तंग नहीं करूंगा. मैं अपना नंबर भी बदल लूंगा. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. बस एक आख़िरी गुज़ारिश है, मुझसे संपर्क करने की कोशिश मत कीजिएगा. अल्लाह आपको ख़ुश रखे. आई लव यू. यू टेक केयर.’

उसे याद आया कि जो फ़ाख़्ता घर छोड़ में चले जातें हैं वो कभी वापिस नहीं लौटते. मोबाइल को चूमते हुए उसने उसने बड़े फ़ख़्र से कहा— मुबारक हो मेरे लाल. जा दुनिया में नाम कमा और अपना नाम रोशन कर, जा अब तेरे लिए मैं कभी दुखी नहीं होऊंगा. उसने अलविदा नहीं कहा और गेम बंद करने से पहले अपना रुआंसा मुँह मोड़ लिया.

(पंजाबी से अनुवादः राजिंदर अरोड़ा)
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