कहानी | कांट वी लव समवन मॉम?
मधुकरी की-सी उस मीठी-अद्भुत गुंजार ने पेन का तो चल पाना ही दूभर कर दिया. सजग हुए कानों को लगा कि किसी की चूड़ियों ने धीमे से एक गीत गाकर चुपके-चुपके कुछ कहना चाहा है. देखने की बेताबी में नज़र घूमी तो दिखा कि अचानक एक देवदार ठीक बाज़ू में आ उगा है. या फिर गमकता-महकता-सा पूरा का पूरा एक बग़ीचा कमरे में लम्बवत आ खड़ा हुआ है. एक क्षण को लगा कि लम्बी-उन्मुक्त-सी एक काया श्रद्धा की तरह मेरी आँखों के सामने आ खड़ी हुई है—और मैं मनु वाली हैरान, उत्सुक, जिज्ञासु दृष्टि से उसे निरखे जा रहा हूँ. पर अगले ही पल लगा कि तुम्हारे तलवों के ठीक नीचे भूकम्प का कोई केन्द्र बन गया है. कमरे की हर चीज़ डाँवाडोल होती नज़र आई. दिल की धड़कन एकदम से बढ़ गईं. मन था कि उसमें सुनामी जितनी ताक़त से तरंगें उमड़े-घुमड़े जा रही थीं. ठीक है कि पिछले कुछ दिनों में तुम्हारे फ़ोन का आना अचानक काफ़ी बढ़ा था. हर बार इन दिनों की मेरी गतिविधियों के बारे में तुमने कुरेद-कुरेद कर पूछा भी था. पर अपने इस अचानक आने के बारे में तो एक शब्द भी नहीं बोला था—ज़रा भी भनक नहीं लगने दी थी.
अपने आसपास ख़ुशबू और रोशनी फैलाती तुम ठीक मेरे सामने खड़ी थीं. ‘हम कहाँ बैठें…?’ जैसे नींद से जागा था मैं. इधर-उधर बिखरे फैले काग़ज़ों की ओर ध्यान गया. घबराहट भरी हड़बड़ी में बैठने को जल्दी से जगह बनाई. ‘अचानक इस आने पर आप भी यह तो नहीं पूछेंगे कि किस अधिकार से मैं यहाँ आई?’ आप भी…अधिकार…आने के साथ ही कहे गए इन शब्दों की तब न कोई तुक मेरी समझ में आई, न उनका मंतव्य. यह ज़रूर लगा कि तुम्हारे आने भर से छुट्टी के उस दिन विभाग में बैठकर काम करने के मेरे उस एकान्त का अर्थ ही बदल गया है. तब वहां सिर्फ़ मैं था, तुम थीं, चुप-चुप, एक-दूसरे को देर तक देखतीं हम दोनों की बेसब्र आँखें थीं. निपट अबोले उन क्षणों ने यह अहसास कराया कि सिर्फ़ आँखों से भी किसी अपने को हम छू सकते हैं, पा सकते हैं, जी सकते हैं…. उतने लम्बे उस अबोले से जैसे तुम आजिज़ आ चुकी थीं—‘कुछ बोलना नहीं है क्या?…ग्यारह बजे हैं अब…और दो बजे मुझे यह शहर छोड़ देना है…’ चाहा कि कुछ कहूँ, पर समझ ही नहीं आया कि क्याे! मेरी ख़ामोशी में से पता नहीं क्याा सुन लिया था तुमने—‘लगा था कि आ नहीं पाऊँगी-पर मन माना ही नहीं. जबसे इनके यहाँ आने का तय हुआ, तभी से ज़िद कर रही थी इनसे. कहीं साथ चलने की कहूँ तो ये ख़ुश होते हैं. तैयार हो चुकी तो सुबह मालूम हुआ कि कुछ और लोगों को भी साथ चलना है. इरादा बदलना भी चाहा-पर मिसेज सिन्हा ज़िद कर गईं. उनके साथ कहीं आना-उफ…! फिर सोचा-चली चला! पता नहीं फिर कब आना हो, कैसे आना हो?’ मैं तुम्हें सुनते हुए देखे जा रहा था! न कोई हाँ, न कोई हूँ. इस बीच देखती तो शायद तुम भी रही थीं मुझे. पर तुम्हारा वह देखना मेरा अनदेखा ही रहा. देखने के एक क्षण में दिखा कि तुमने कन्धे पर से खिसकी अपनी साड़ी को दूसरे कन्धे त्तक पहुँचाकर गले तक को ढँक लिया है.
‘आप भी कुछ बोलेंगे कि मैं ही…’ इन शब्दों और कहे जाने के अन्दाज़ ने बीस वर्षों की दूरी एक पल में पाट दी थी. मेरी इस आदत पर तुम तब भी ख़ूब खीझती-कुढ़ा करती थीं. घर पर पढ़ाने के दौरान उस दिन कुछ अधिक ही कुढ़ी-चिढ़ी-सी दिखी थीं. कारण पूछा तो तुम्हारा वह लाल सुर्ख़ चेहरा, तपे-तचे-से वे वाक्य- ‘आप अपनी तरफ़ से कभी कुछ क्यों नहीं कहते… कभी पहल करके कुछ बताते-सुनाते क्यों नहीं हो…’ सब कुछ मेरे सामने जीवित हो उठा था. तुम्हारा आग-आग गुस्सा उबाल पर था, उफान पर था. मैंने तुम्हें मनाना, शान्त करना चाहा था- ‘इन्दु, सहज-सहज अपने आप चलकर आए सुख को अनायास पाने का अनुभव बहुत अलग और ख़ास हाता है. और फिर अब मैं अपना स्वभाव कैसे बदलूँ? वो मिट्टी, वो पानी, वो हवा, वो आग, अपना वो आकाश जिन सबने मिलकर हमें गढ़ा है—हमारा संग कहां छोड़ता है? मरते दम तक साथ रहते हैं इन्दु!’ शब्दों के छींटों ने जैसे तुम्हारे उफान को एकदम शान्त कर दिया था—तुम्हारे चहरे पर के सारे मल-मलाल को धो-पोंछकर साफ़ कर दिया था. उसके बाद तो तुम मेरे सीने पर सिर टिकाए देर तक सुबकती रही थीं.
‘देखिए—मुझ पर समय बहुत कम है और करने के लिए बातें बहुत हैं. आप चुप रह आएंगे तो अकेले मैं बातें कैसे कर पाऊंगी?…अच्छा पहले आज का अपना प्रोग्राम बता दूँ. यहाँ से अभी घर जाना है. इतने दिनों से बंद पड़ा है घर कि…. पिछली बार भाई-भाभी, दीदी-बच्चे आए थे, तब भी धूल-धक्कड़, जाले साफ़ करने में तीन दिन लग गए थे. वैसे तो आज ताली ही साथ नहीं है…होती भी तो मेरे अकेले के बस का तो कुछ था नहीं. निशा भाभी का तो आपको भी पता है कि कैसे चिपकती हैं बुरी तरह! चाय को ज़िद कर गईं तो गया पूरा एक घंटा ….सोचा तो ये भी है कि कुंजीलाल के यहाँ से नमकीन लेनी है, ख्यालीराम की दुकान की कुछ मिठाइयाँ भी…. बहुत याद आती है यहाँ की एक-एक चीज़. बच्चों को बताती हूँ तो ख़ूब हँसी उड़ाते हैं—मम्मी के शहर का तो सब अच्छा ही अच्छा है बस! ज़रा-ज़रा से ये बच्चे कभी-कभी तो अचानक इतने बड़े लगने लगते हैं कि… दो बजे का उन से कह दिया है कि मैं ख़ुद से पहुँच जाऊँगी लायंस क्लब… उन सबको घर बुलाती भी तो कैसे? कहाँ बिठाती सबको? क्या दिखाती…?’ तुम चुप हुईं तो देखा कि रीते-रीते-से बादलों की रुई-रुई पर्तें तुम्हारे चेहरे पर आ लिपटी हैं. वह चेहरा कह रहा था कि उस समय तुम किसी बड़े-से एक अभाव के अहसास की पीड़ा को महसूस करने के दौर से गुज़र रही थीं.
‘आपने तो एक बार भी कभी ये नहीं कहा कि घर आ जाना, वहाँ रुक लेना, वह भी तो तुम्हारा ही…’ में कुछ कहता कि उससे पहले ही तुम्हारे पर्स में बन्द मोबाइल बज उठा. तुम असहज दिखीं. चेहरे पर चिन्ता का-सा भाव आया. सीधे पैर को बाएँ घुटने पर लिटाए तुम फ़ोन पर व्यस्त थीं- ‘हलो, हाँ, बिटूटू…क्यों ? क्या हुआ…हाँ…’ जल्दी-जल्दी अपना रूप और आकार बदलते तुम्हारे होठों की ओर मेरा ध्यान गया-अरे-लिपिस्टिक? ये, इतनी गहरी और लाल! हँसती-चहकती-सी तुम उन बातों में खोई थीं. तुम्हारी सीधी तर्जनी गले में पड़ी चेन से खेल-खेल में उलझे जा रही थी. चेन ने उँगली की गिरफ़्त से छूट-भागना चाहा है. चमकता बड़ा गोल-सा एक पत्थर धम्म-से वक्ष के मध्य आ गिरा है. जहाँ था, वहाँ वह हीरा-सा हो गया. लगा कि कोई और चमक वहाँ आकर हीरे की चमक से. उलझने लगी है. उस चमक के साथ-साथ दृष्टि ऊपर गई-दिखा कि तुम्हारे ईअर रिंग्स सिर की हर जुंबिश, हर हरकत के साथ नृत्य-सा कर रहे थे. हीरे जड़ी मछलियों की तरह की वे आकृतियाँ घड़ी के पेंडुलम की तरह लगातार हिले जा रही थीं. पता नहीं वे दोनों मछलियाँ समय की किस नदी को पार कर लेने की कोशिश में अपने हाथ-पैर मारे जा रही थीं.
‘हाँ, बिटूटू पूछ रहा था कि हम लोग कब तक लौट पाएँगे. दरअसल वह अपने चाचा की लड़की के बर्थडे की पार्टी में जाने के लिए पूछ रहा था. पहले उसके नाम से ही बिदकता था. हम कहते भी थे, पर उसे नहीं जाना तो नहीं ही जाना! ये पहनती है, वो पहनती है, ऐसे चलती है, वैसे रहती हे…पर अब आप देखिए-हो क्या गया है इस पीढ़ी को?…पिछले कुछ महीनों में चार-पाँच बार यह हो आया है उसके घर. तीन-चार बार वह भी घूम गई है इसके पास! शुरू में तो इन्हें भी अच्छा लगा, मुझे भी. चलो, बच्चों में यह समझ तो पैदा हुई कि हम चचा-ताऊ के हैं, एक ही परिवार के हैं… और आठ-दस दिन पहले यह हुआ कि… आपको क्या बताऊँ? सुनकर कितना अजीब लगता है… आप देखिए—एक वो हमारा ज़माना था-पता नहीं आपको बताया था या नहीं…’ मैं क्या, कितना सुन रहा हूँ, सुन भी रहा हूँ या नहीं-इस सबकी तुम्हें ख़बर ही नहीं थी. शायद चिन्ता भी नहीं थी. बैठने की तुम्हारी मुद्रा में एक परिवर्तन आया था. देह ने जैसे ख़ुद को थोड़ा समेट लेना चाहा था. पीठ कुर्सी की पुश्त पर जा लेटी थी. सिर ने झटक कर खुले-बिखरे उन लम्बे बालों को पूरी लम्बाई में फैला-छितरा दिया था. सीधे हाथ की तर्जनी ने कन्धे पर आ लेटे कुछ बालों से ऐसी एक छेड़छाड़ की थी कि वे उसके इर्द-गिर्द आ लिपटे थे. ख़ुद से आ लिपटे उन बालों को उँगली ने इशारों-इशारों में एक लट का-सा रूप दे दिया था. और वो लट पहले तो किसी लालची की तरह गर्दन के इस-उस ओर हिलती-मंडराती रही और फिर जल्दी ही हारी-थकी-सी बेसुध होकर वक्ष के दाहिनी ओर लेट कर रह गई.
‘पता नहीं आपको याद है या नहीं. आपकी तब नौकरी लगी ही लगी थी. आप मिठाई वाली गली में डॉ.सुशांत जी के साथ रहते थे. रिसर्च के सिलसिले में तब मैंने यूनिवर्सिटी जाना शुरू ही किया था. हमारे पड़ोस में एक लड़का रहता था. वह भी वहाँ मैथ्स में पी एच.डी. कर रहा था. वह कभी-कभी हमारे घर भी आता रहता था. पिताजी-माताजी की बहुत इज्जत करता था. पर जब वह घर आता, मैं देखती कि माँ उतनी देर के लिए असहज हो जातीं. उनकी कोशिश होती कि वह जल्दी चला जाए घर से. तो हाँ, एक दिन क्या हुआ कि वह यूनिवर्सिटी में मिल गया. आप देखिए-कितनी दूर है यूनिवर्सिटी हमारे घर से. पर हम लोग हमेशा पैदल आते-जाते थे. धूप हो, ठंड हो, बरसात हो—मैं और अंजना बातें करते-कराते, बाज़ार के भी काम निपटाते हुए यूँ ही आराम से चले आते. और आज हाल ये है— बिट्टू को पांचवी करते ही स्कूटी दिलानी पड़ी थी और अब छुटकू जी का कब्जा है उस पर. बिट्टू को पल्सर दिलानी पड़ी है इस साल. बिट्टू का स्कूल तो दूर भी नहीं है-पर क्या मजाल है कि पैदल चले जाएँ. साइकिल से जाने में बेइज्जती होती है-मम्मी वो उस गाड़ी में आता है, वो उसमें…. आख़िर मां-बाप भी क्या् करें…? तो क्या हुआ-उस दिन अंजना नहीं गई थी मेरे साथ. मैं अकेली लौट रही थी यूनिवर्सिटी से ख़रामा-ख़रामा. तेज़ धूप, भयंकर गर्मी. स्टाफ़ क्लब वाले चौराहे से आगे बढ़ी ही थी…एक साइकिल बिल्कुल मेरे पास आकर रुकी. मेरा तो दम ही निकल गया. ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे. देखा तो पड़ोस वाला वही लड़का. जान में जान आई. साथ चलते सुना कि झिझकता-सा वह कुछ कह रहा है-बहुत गर्मी है. घंटाघर तक मैं साइकिल से छोड़ दूँगा-सुना तो लगा कि अब साँस रुकी, कि अब जान निकली. ऐसी तेज़ धुकधुकी कि सारा बदन पसीने से तरबतर. जितनी दूर वह साथ चला कँपती ही रही मैं. अजीब घबराहट-किसी ने देख लिया तो? घर जाकर कह दिया तो? घंटाघर के बाद वह चला गया तब जान में जान आई…’ तुम्हारी आवाज़ में उस समय की वह धुकधुकी भी उपस्थित थी और कंपन भी. उस दिन वाली वह तीव्रता और आक्रामकता तो उतनी नहीं थी, पर हाँ उस आवाज़ में गर्वित होने जैसा एक भाव ज़रूर था! चेहरे पर का वह फीका-फीका-सा सूनापन यह ज़रूर बता रहा था कि गर्वित होने के उस भाव में अच्छे से कुछ के निकल-फिसल जाने का थोड़ा-सा मलाल भी ज़रूर आ मिला था.
मोबाइल के बजने ने हड़बड़ा दिया है तुम्हें—’हाँ, हलो…’ तुम्हारे माथे पर की बिन्दी ने ध्यान खींचा. इतनी बड़ी-इतनी गहरी नीली! ज़रा ऊपर मस्तक के सीमान्त पर – बित्ते भर की वह सिन्दूरी माँग! और ये हाथों में हिलती-बजती काँच की चूड़ियाँ, सोने के मोटे-से कड़े-निगाह भर देखा वह सब! पर नहीं-तब तो तुम… ? एकदम अनसजे, अनसँवरे, लापरवाह-सी रहने की आदी थी तुम. वह सादगी आकर्षक भी थी, सम्मोहक भी. तब तो तुम्हें किसी का भी बनना-सँवरना बड़ा ऊल-जलूल लगता था. कैसी-कैसी हँसी उड़ाती थीं तुम सबकी! तो फिर तुममें आया यह बदलाव? क्याो आज यहाँ आने भर के लिए यह सब इस तरह? पर-उम्र के इस मोड़ पर अचानक से एकदम नया या बदला हुआ कुछ कर पाना इतना आसान तो नहीं होता. ‘इनका है….कह रहे हैं कि कार्यक्रम में इन्हें अध्यक्ष बनाकर बिठा दिया गया है. इनसे पहले तीन-चार वक्ता और हैं-फिर चाय-वाय! क़रीब दो घंटे लगेंगे अभी वहाँ. तो मुझे ठीक दो बजे बस स्टैण्ड पर जा खड़ा होना है. वे वहीं से ले लेंगे मुझे…!…अब क्या बजा है?-बारह पाँच…अभी घर पर भी देर लगेगी….यानी मैं वहाँ से डेढ़ बजे निकलूँ…यानी यहाँ से साढ़े बारह चल दूँ. यानी अब केवल पच्चीस मिनट और बैठ सकते हैं हम लोग… . कमाल है-जबसे इनके आने की डेट तय हुई दिन-रात एक ही धुन, एक ही सनक चलना है, बहुत सारी बातें करनी हैं, बहुत कुछ पूछना है….याद है, तब मेरी हर उलझन आपके ही पास आकर सुलझती थी. ज्यादा नहीं, दो-एक सवालों का हल ढूँढ़ने में तो अब भी मदद कर सकते हैं न आप? सोचा तो था कि आपको घर बुला लूँगी-दो-चार घंटे मिल जाएँगे. पर क्या करें, इस बार घर की चाबी भी साथ नहीं है. पहली बार लग रहा है कि जैसे इस शहर से अपना नाता टूट रहा है… आवाज़ जैसे दर्द के किसी घने, काँटेदार जंगल में से लहूलुहान होकर आई है. थकी-टूटी साँसों तुम कहे जा रही हो, थमी-थमी-सी साँसों मैं सुने जा रहा हूँ.
‘पता है इस बार क्या हुआ? फ़ोन पर तो वह सब कहा नहीं जा सकता. माताजी तो अब हम लोगों के बीच फ़ुटबॉल हो गई हैं. कुछ दिनों पहले तक बड़ी दीदी के यहाँ थीं. वहाँ रहना उन्हें भी अच्छा लगता है. भाई साहब का फ़ोन आया कि मैं माता जी को अपने पास ले आऊँ. वे किसी दिन आकर मेरे यहाँ से उन्हें अपने साथ ले जाएँगे. उनका कुछ समझ नहीं आता-माताजी जब उनके पास होती हैं-तो हर तीसरे दिन फ़ोन कि माँ का बेटियों को देखने का मन कर रहा है और जब हम लोगों के पास होती हैं तो मैं अब लेने आ रहा हूँ, कि तब लेने आऊँगा. माता जी तो ख़ुद भी उनके पास रहना नहीं चाहतीं. भाभी जी तो मान बैठी हैं कि उनका तो कभी बुढ़ापा आना ही नहीं है. भाई साहब को मैं यह कैसे बताऊँ कि माँ को ज्यादा दिन तो मैं भी इस घर में नहीं रख सकती. यूँ ये बेचारे इस बारे में कभी कुछ नहीं कहते. पर मुझे मालूम है कि माँ के यहाँ रहते ये कभी सहज नहीं रह पाते. ठीक है कि मुझे कुछ भी करने से रोकते-टोकते नहीं हैं, पर मुझे यह भी तो अच्छा नहीं लगता कि ये माँ से बचें, उनके पास जाएँ-बैठें नहीं. उधर बड़ी दीदी भी क्या करें? उनकी अपनी बीमारियाँ, बेटी की नौकरी, इतनी छोटी धेवती-और दामाद-वह बेचारा अपने काम देखे या इन सबकी हारी-बीमारी, दिक्क़त-परेशानी देखे. दो कमरे का मकान-उसमें कौन-कहाँ बैठे, कौन कहाँ सोए? आपने तो उन्हें बहुत दिनों से नहीं देखा! अब उनका हाल यह है कि न ढंग से चल पाएँ, न ज्यादा देर बैठ पाएँ. ऊपर से भूलने का हाल यह कि अभी कुछ कह दें, अभी कह दें कि मैंने यह कब कहा? आवाज में से छिटक कर उड़ आई भीगी-सर्द-सी एक लहर ने मेरे अन्दर भी सिहरन भरे कंपन पैदा कर दिए. तुम्हारी डबडबाई उन आँखों में से दर्द का एक दरिया उमड़-उफन कर बाहर आने की बेचैन-सा दिखाई दिया. लगा कि उसने सारे बंध-उनकी सारी मजबूती-अब दरकाई, कि अब तोड़ी.
चाहा कि कुछ कहूँ. न कहा गया तो उंगलियों ने आगे बढ़कर उस दरिया में से कुछ बूंद लेकर आचमन करना चाहा. यकायक भीतर सोया एक भय खाँसा-उसने करवट बदली-जैसे सावधान करना चाहा हो-माना कि छुट्टी का दिन है, फिर भी कोई आ तो सकता ही है. बूँदों से भरी तुम्हारी अंजुलि को किसी ने देख लिया तो? दो-चार कदम चलकर ही इस चाहत ने दम तोड़ दिया. तभी मलबे में दबे किसी भूकंप पीड़ित की तरह एक पुरानी स्मृति कसमसाई-कराही—तब तुम्हारे पिताजी की मृत्यु हुई थी. दो दिन तक मैं तुम्हारे घर जाने का साहस नहीं जुटा पाया था. सबके सामने यदि तुम रो दीं तो? मुझ पता था कि पिता तुम्हें कितना चाहते थे, तुम उन पर कितनी निर्भर थीं. और फिर तीसरे दिन तो तुम घर से चलकर ख़ुद मेरे उस कमरे के दरवाज़ो पर आ खड़ी हुई थीं. तबका तुम्हारा वह वेश, वह मुद्रा, आँखों का वह हाल-मन किया कि खूब रोऊँ. पर तुम्हारे रो पड़ने के डर ने मेरे रोने को रोके रखा. दीवार से पीठ टिकाए, ज़मीन की ओर देखती, फ़र्श पर देर तक तुम चुप ही बैठी रही थीं. गले ने कई बार कुछ गटकने जैसी आवाज़ निकाली, नाक ने जुकाम होने जैसी ध्वनियाँ पैदा कीं. पता नहीं, वह तुम्हारी बात को बाहर न आने देने की कोशिश थी-या फिर कुछ कह पाने के लिए तुम शक्ति जुटा रही थीं. शाम थी कि अधिक अंधियारी होती जा रही थी. ख़ामोशी पूरे कमरे में काबिज़ हो गई थी. तुमने गर्दन ज़रा ऊँची की-आँखों ने अपने पट कसकर बन्द कर लिए – ‘पता है, मरने से ज़रा पहले पिताजी ने माँ से क्या कहा था? बिब्बो की शादी हो जाती तो मैं चैन से जाता… यानी बिब्बो के कारण वे चैन से नहीं जा पाए…’ देर तक आवाज़ का न कोई एक रेशा, न कोई एक क़तरा! फिर लगा कि कोर्ई किसी सुबकी का गला भींच रहा है. और फिर सुन पड़ा-‘लगता है अब मेरा अपना कोई नहीं रहा…’फिर तो सुबकियाँ, सिसकियाँ-और रोदन…! ख़ूब हिम्मत जुटाई कि एक वाक्य कहूँ-ऐसा कुछ कहूँ कि मेरे होते…पर एक भी बोल नहीं फूटा. हाथ ने हिम्मत की-बढ़कर सिर सहला देना चाहा. पर रोने से घबराकर अधबीच लौट आया. उसके बाद तो-उस अँधरे में यह भी पता नहीं चला कि हम दोनों में कौन कितना रोया, कितनी देर तक रोया. ‘अब चलूँ…’ सुना तो बत्ती जलाने का ध्यान आया. रोशनी हुई तो दोनों की आँखों ने एक-दूसरे को देखा. वहाँ ऐसा कुछ दिखा उन्हें कि दोनों की उँगलियाँ एक-दूसरे की आँखों की तरफ दौड़ीं. पलकों तक पहुँची. जरा ठिठकीं-और फिर पलकों पर आ टिकी. पोरों से पलकों को इतना और इस तरह से सहलाया कि ख़ुद ख़ूब भीगीं-पर उनके मन का सारा मल-मलाल धुल गया, पुंछ गया. इस स्मृति ने जैसे अन्दर के खाँसते डर को जगाकर बिठा दिया-उस दिन जैसा यहाँ आज फिर हुआ तो? इतने साल पहले तब-हम दोनों की न ये उम्र थी, न ये पद थे-प्रतिष्ठा थी…और न ही हम विवाहित और बाल-बच्चेदार थे….
‘उफ़, देखिए-बारह चालीस हो गए. आप ऐसा कुछ क्यों नहीं कर सकते कि वक्त ज़रा थम जाए…. न थमे तो अपनी चाल थोड़ी धीमी कर ले…’ कहने का अन्दाज़ ही ऐसा था कि हँसी आने को हुई. अचानक लगा कि तुम्हारा शरीर अपने ऊपरी आधे हिस्से से आगे की ओर झुका है. उसके उस तरह झुकने ने कुर्सियों पर बैठे हम दोनों के बीच की दूरी कम कर दी थी. दिखा कि तुम्हारी दृष्टि मेरे होठों पर आ बैठी है – ‘याद है कुछ? आपके होठों पर इस हँसी को देखने के लिए हमें कितने-कितने पापड़ बेलने पड़े हैं? महीनों-महीनों कितना कुछ सहना-झेलना पड़ा है? अंजना कहती थी-तुम्हारे ये सर चेहरे को हर समय इतना तना-खिंचा कैसे रख लेते हैं? इन्हें तू समझा कि कभी हँसेंगे नहीं तो इनकी हँसी मर जाएगी. चेहरा फिर श्मशान होकर रह जाएगा इनका.’ रोज़ आते, आपकी क्लासों के इर्द-गिर्द घूम-भटककर लौट आते. पढ़ाते सुनने को मन करता, आवाज़ कानों में पड़ते ही डर कर भाग आते-घंटा बज गया था? आमना-सामना हो गया तो? अंजना झुझलाती-‘अब कभी नहीं आऊँगी तेरे साथ! सुबह से ही कान खाना शुरू होगा-ये ज़रूरी काम, वो ज़रूरी काम! ऐसा भी मरा क्याो डर कि जाओ भी-और बिना मिले-कुछ कहे लौट आओ?’
बोलना रुका तो ध्यान आया-अरे, अभी तक तुमने न चाय की पूछी, न पानी की. इस ध्यान ने तुरन्त छुट्टी का ध्यान दिलाया-आज तो आस-पास न चाय की कोई दुकान खुली है, न कोई चाय लाने वाला ही इस समय मिलेगा. पानी के जग की ओर इशारा किया-पानी ही पी लो…चाय तो आज…
चहक कर ऐसे हँसी कि बिल्कुल बच्ची जैसी लगीं—‘चलो आज पहली बार चाय पानी की पूछी तो! कुछ ख़याल तो किया…अंजना हमेशा इस बात पर मुझे ख़ूब सुनाती थी कि हम धूप, गर्मी, जाड़े, बरसात में कभी जाएँ…पर तुम्हारे ये सर कभी पानी तक की नहीं पूछते. और तुम कहती हो कि…’
मोबाइल में समय देखा है—‘अरे, बारह पचपन! क्या करूँ? निशा भाभी को फ़ोन कर दिया था कि किराएदारों से एक बजे मिलने के लिए कह दें? वो ख़ुद भी इन्तज़ार कर रही होंगी…! प्यास तो लगी है-पर इस जग का हाल देखकर तो प्यास की प्यास भी मर जाए….कभी धुलता-पुंछता भी है यह जग? हो क्या गया है अब आपको…आपके इस शहर को? गन्दगी इतनी रास कैसे आने लगी है? वैसे तो अब हर शहर का लगभग यही हाल है-पर तब यह शहर ऐसा तो नहीं था. आज शहर में घुसते ही अजीब-सा नज़ारा देखा-ऊबड़-खाबड़ गड्ढेदार सड़कें, धूल धुएँ के उड़ते-घिरते बादल, ऐसे लम्बे-लम्बे जाम…कैसे रह-सह रहे हैं ये सब सारे शहर के लोग? और हाँ, कमाल है-कैसी-कैसी बिल्डिंगें उग आई हैं हर तरफ़! ये शॉप्स, ये कॉम्प्लेक्स, ये गेस्ट हाउस, ये शोरूम! दुकानें बाज़ार में हुआ करती थीं, अब तो घर-घर में, सड़क-सड़क पर दुकानें ही दुकानें. इन दुकानों में अपने समय के लोगों को कोई ढ़ूँढ़े भी तो कैसे ढ़ूँढ़े? कोई यदि मिल भी जाएगा तो वह भी दुकानदार ही हो गया होगा. कभी अकेले आना पड़ा तो शायद रास्ता भी पहचान में न आए. गाड़ी के अन्दर से पहचानने की कोशिश करती रही-पहचान ही नहीं पाई कि यह कौन-सा इलाक़ा है, कौन-सा मोहल्ला है? और तब यह हाल था कि अंजना और हम कभी भी, किसी भी ओर सड़क नापने निकल पड़ते थे. गली-मोहल्ले इतने अपने लगते थे कि सोचा नहीं जा सकता था कि कभी ये इतने पराये से हो जाएँगे. आखिर कैसे बदल जाता है इतना सब कुछ? कितने नामालूम ढंग से, आहिस्ता-आहिस्ता बदलता रहता है सब. दिनों बाद देखो तो दिमाग़ ही चकरा जाए…’
तुम्हारी हथेली चुप-चुप चलकर मेरे हाथ के पास तक आई-और आकर मेरी उँगलियों पर एक ख़ास मुद्रा में बैठ गई. बिल्कुल ऐसे जैसे कोई मुर्गी अपने अंडों पर आ बैठी हो. शिराओं में तरल गर्म से कुछ के बहने का अहसास हुआ. तुम्हें कुछ सोचते से चुप बैठे देखा तो पूछा- ‘क्या चल रहा है तुम्हारे मन में?’ तुम चुहल के-से मूड में आ गई थीं शायद-‘पहले तो ये कि तब अगर हम दोनों में से किसी एक की भी उँगली भूल से दूसरे को छू भर देती थी तो… ….और फिर ये भी चल रहा है दिमाग़ में-कि आख़िर ये आदमी बना किस मिट्टी का है?’
-‘क्यों? क्या हुआ जो…?’
-‘आप देखिए-ये सुनामी, ये कैटरीना, ये रीटा, ये विल्मा…ऐसे ऐेसे भयानक भूकम्प-कुछ तो अर्थ होगा इस सबका? अनसुना कर देने से किसी का कहा व्यर्थ तो नहीं हो जाता-मर तो नहीं जाता? और फिर ये प्रकृति आपके सामने खड़ी होकर सीधे-सीधे तो यह नहीं कहेगी कि ये करो, ये मत करो…! उसकी भी अपनी एक भाषा है, लहज़ा है, तहज़ीब है…’ तुम आवेश में आती दिख रही थीं- ‘इसीलिए पूछ रही हूँ आपसे कि आख़िर ये आदमी बना किस मिट्टी का है.’
तुम्हें सहज करने करने के लिए ही मज़ाकिया-से अन्दाज़ में कह दिया था मैंने – ‘जिसकी औरत बनी है…’
‘ग़लत-बिल्कुल ग़लत. अनेक समानताओं के बावजूद मिट्टी-मिट्टी के बीच के अंतर का नकार तो नहीं सकते आप.’
तुम्हारी उस गंभीरता पर ज़ोर से हँस पड़ने का मन हुआ- ‘हाँ, कोई काली, कोई पीली, लाल, भूरी, भुरभुरी, चिकनी या…’
‘चलो, अन्तर तो माना. पर बस इतना ही-उसके उर्वर-अनुर्वर होने का अन्तर, उसकी मज़बूती-कमज़ोरी का अन्तर, उसके जज़्ब कर सकने का अन्तर, उसके सहेज-सम्भाल सकने, न सकने का अन्तर…’ गहरे-से आक्रोश का एक भाव दिखाई दिया था तुम्हारे चेहरे पर. समझ ही नहीं पाया कि ज़रा-सी बात ने वह मोड़, वह गम्भीरता कहाँ से पा ली थी. कुछ तो था जो तुम्हें अन्दर-अन्दर मथ रहा था और जिसकी तेज़ी और तपिश तुम्हारी आवाज़ में आ मिली थी-‘किसी से भी तो नहीं कह सकती…. किससे करूँ अब इन विषयों पर बात? सोचा नहीं था कि पिता जी के बाद इतना कुछ बदल-छूट जाएगा. माँ के रहते हमारा म्रायका ख़त्म हो जाएगा. पति-बच्चों से भी तो नहीं बाँटा जा सकता ये सब. ये सुनेंगे तो इन रिश्तों के अर्थ ही बदल जाएँगे. दीदी की अपनी उलझनें ही क्या कम हैं. और फिर क्या भरोसा कि क्या सोचें, क्या समझें? भाभी जी तो हमेशा से ऐसी थीं, पर भाई साहब…? पता है, अभी तीन दिन पहले फ़ोन पर क्या बात हुई-महीनों बाद आया था फ़ोन. न हाल-चाल पूछा, न किसी दुख-दर्द की कोई बात! शुरूआत ही इस बात से हुई कि ‘मकान बेचना है. तुम लोग माँ की राज़ी करो.’ बड़ा गुस्सा आया-माँ को हर बार नाराज़ करने को वो-और राज़ी करने को हम. ‘माँ के बाद भी तो बिकेगा ही… अब के और माँ के बाद के बिकने के अन्तर पर कुछ कहना चाहा तो फट पड़े-‘तुम बहनों ने ही माँ की बह़का रखा है. उन्हें बरगलाती हो-वे यहाँ टिकती ही नहीं हैं. दुनिया तो यही समझगी कि बहू-बेटे ढंग से नहीं रखते उन्हें.’ अपनी तरफ़ से सफ़ाई देनी चाही तो आग-बबूला होने लगे. इतना तक बोल गए कि… काश, वह सब मुझे कमी याद ही न आए.,,. पर-‘हम जैसे रखें, उन्हें रहना होगा. तुम्हारा क्या अधिकार है हमें यह सब,,,?’ गला रूँध चला था तुम्हारा. लगा कि रो ही पड़ोगी.
यह तो नहीं समझ आया कि ऐसे में मैं क्या कहूँ, पर आने के साथ ही कहे गए ‘आप भी’ और ‘अधिकार’ जैसे शब्दों का अर्थ ज़रूर समझ आ गया था. तुम ख़ामोश बैठी छत की ओर देखे जा रही थीं. तुम्हारे इस समय के तेज़-तेज़ बोले जाने से हैरान मैं तुम्हारे फ़ोन पर बात करने के अन्दाज़ को याद कर रहा धा. इस समय कितना कुछ एक साथ कह देने की उतावली भरी बेसब्री और फ़ोन पर आवाज़ में मीठी-सुरीली-सी एक अनुगूँज कम से कम शब्द, हर शब्द के बीच एक फ़ासला, बीच-बीच में लम्बी-सी एक ऐसी ख़ामोशी-लगे कि उसका रोम-रोम बोल रहा है, शब्दों को नए अर्थ दे रहा है-और फिर उस दौरान कही जाने वाली काव्य पंक्तियाँ…शेर…. जल्दी-जल्दी कई बार खाँसा है तुमने. साफ़ था कि ख़ुद का साधने-सम्भालने के लिए तुम्हें मशक्कत करनी पड़ रही है.
-‘मिट्टी-मिट्टी के बीच एक यह अन्तर क्यों नहीं दिखा आपको?’
-‘क्या?’
-‘यही कि औरत के मन की मिट्टी में रिश्ते कितनी आसानी से अँकुराते, बढ़ते, फलते-फूलते हैं. आदमी के बंजर मन में यदि कोई बीज अंकुरित हो भी जाए तो क्षार तो उसे होना ही है. अन्ततः उसे जल-मर जाना ही है. उस पर भी तुर्रा ये कि दोष हमारा नहीं, बीज की किसी कमज़ोरी या बीमारी का है… .’ तुम चुप बैठी पंखे को घूरे जा रही थीं. मैं टुकुर-टुकुर-सा तुम्हें ताकता तुम्हारे उस देखने के भीतर के ताप और व्यथा को पढ़ना चाह रहा था. पंखे से हटकर तुम्हारी दृष्टि मुझ पर आ जमी थी-‘भाई साहब से ऐसी उम्मीद तो नहीं थी. काश कि ये भाई, पति, पुत्र, प्रेमी जैसे रिश्ते औरत के सामने केवल आदमी बनकर ही न आया करते…. आदमी ही बनकर आते तो अपने मन की मिट्टी के बंजरपन का कुछ तो अहसास कभी कर लेते….उस दिन माँ को साथ ले जाने के लिए आए थे भाई साहब. सुबह आए और शाम का लौटने का रिज़र्वेशन था. लाख कहा कि रिज़र्वेशन कैंसिल करा लो. माँ का बहुत मन है, उन्हें उनका घर दिखाते हुए ले जाओ. कब से किस-किस से मिन्नहतें कर रही हैं वे. कुछ देर वहाँ रुक लेंगी, पास-पड़ोस के लोगों से बोल-बतिया लेंगी तो उन्हें अच्छा लगेगा…पर…. तब माँ तो डरी, सहमी चुप चारपाई पर लेटी थीं. लेटी क्या थीं चारपाई के ज़रा से हिस्से में उनकी काया सिमटी पड़ी थी. उनकी इस हालत पर ख़ूब रोना आया. लगा कि वर्तमान में तो मेरी मां की यह मुट्ठी भर देह ही जी रही है. उनका मन अतीत में है-और उनके प्राण थके परिंदे की तरह भविष्य के आकाश में बसेरे की तलाश में भटके से अपने पंख भी नहीं फड़फड़ा पा रहे हैं. जाने लगे तो घर की चाबियाँ भी निकलवा लीं. साफ़-सफ़ाई या कभी वहाँ आने के नाम पर चाबियाँ छोड़ जाने को कहा तो और भी अजीब-अजीब सुनने को मिला…आप देखिए-मैं यहाँ हूँ, मेरा घर यहाँ है-वो घर जहाँ मैं जन्मी, पली-बढ़ी…अभी वह बिका भी नहीं है-पर आज मैं उसे खोल तक नहीं सकती…ज़रा देर उसके अन्दर बैठ भी नहीं सकती…! बिना चाबी वहाँ जाने की हिम्मत भी तो नहीं हो रही. मैं जाऊँ…औरों के घर बैठूँ…?’
‘अरे, ये एक तीस! उफ-अब क्याी करूँ मैं?’ घबराई-सी तुम उठ खड़ी हुई थीं. तुम्हें खड़े होते देख मैं भी बैठा नहीं रह सका था. चुप खड़ी तुम मुझे देख रही थीं, मैं तुम्हारी आँखों के अन्दर से झाँकती उस उलझन और बेचैनी को देख रहा था.
-‘क्या होता है यह? तब भी यही था, आज भी यही हुआ. दिनों-दिन सोचते रहते थे कि मिलेंगे तो ये कहेंगे, वो कहेंगे. मिलने पर ऐसा कुछ होता कि घंटों-घंटों बैठ-बतिया लेने के बाद भी यह मलाल साथ लौटता कि ये नहीं कह पाए, वो नहीं कह पाए… . सबके साथ तो नहीं होता न यह? आपको क्या लगता है? किसी एक के साथ ही ऐसा क्यों लगता है? उससे सब कुछ कहने का मन क्यों होता हे? न कह पाओ तो मन इतना भरा-भरा,रोया-रोया-सा क्यों होता रहता है?’
तुम्हारी क्यों, क्यों की इतनी लम्बी क़तार ने मुझे उलझा-सा दिया था-‘एक साथ इतनी ढेर सारी क्यों-मतलब यही कि तुम किसी एक क्यों का भी उत्तर सुनना नहीं चाहतीं?’
लाड़ का दूधिया-सा एक दरिया उमड़ा था तुम्हारी आँखों में. लगा कि हम दोनो की देह ने एक-दूसरे को अब छुआ, कि अब छुआ.—‘इसमें ग़लत भी क्या है? औरत जब अपनी चुप्पी तोड़ती है तो चाहती है कि उसे मन से, ढंग से, तहज़ीब के साथ सुना जाए. जो उसे जितना मन-ढंग से सुन पाता है, वह उतनी ही अधिक और मन से उसके पास होती है-उसके साथ होती है.’ मेरी सीधी कलाई को तुम्हारी हथेलियों ने झटके से अपनी गिरफ़्त में ले लिया था. कलाई को झटकती, उद्विग्न-अधीर-सी तुम कहे जा रही थीं—‘कुछ करो. ..कुछ तो करो! यह समय आज इतनी जल्दी क्यों भाग रहा है?…मुझे आप से कुछ शेयर करना था… . हाँ, ये ज़माना भी तो शेयर का ज़माना है न?’ खिलखिला कर कुछ इस तरह हँसी थीं तुम कि तुम्हारे चहरे पर ख़ूबसूरत-सी एक रौशनी आ फैली थी—‘तब भी मैं आपके पास कभी अकेली नहीं आई. ढ़ूँढ-मनाकर हर बार कोई न कोई एक सवाल ज़रूर अपने साथ लाती थी. बिना सवाल साथ लिए आने पर आप कैसे-कैसे सवाल करने लगते थे मुझसे. ऐसे पेश आते जैसे मैंने अपराध कर दिया हो आकर. आज-मैं आपसे अपने बेटे का एक सवाल शेयर करना चाहती थी. वह सवाल साथ न आया होता तो शायद आज भी मैं यहाँ आ नहीं पाती.’ अबकी बार ठहाके की एक ज़ोरदार गूँज गूँज गई थी कमरे में. –‘अब जो भी अंजाम हो बाद में देखेंगे…! दुनिया की ईद-होली तब भी साल दर साल आती रहती है, पर मनों की ईद और होली के आने में तो कल्पों जितना काल बीत जाता है.’
तुम फिर से कुर्सी पर बैठ गई थीं. तुम्हें बैठते देखा तो दिखा कि तुम्हारी देह के कई हिस्सों ने रूप और आकार बदल लिए हैं. कुछ हिस्से उदार हुए हैं, कुछ विस्तृत. कुछ हिस्सों ने चमक और स्निग्धता त्यागी है तो कुछ ने ख़ुद को सिकुड़न और झाइयों से दाग़-दाग़ कर लिया है. मेरी निगाह को चुप-चुप अपने शरीर पर टहलते तुमने देखा लिया था. तुम्हारी दृष्टि में चोरी पकड़ लेने वाली कुशलता और बहादुरी का एक भाव तुरन्त आया था. ग़नीमत थी कि दंड देने की कोई क्रूर चाह वहाँ नहीं जन्म पाई थी. तुम्हें अपनी आंखों में झाँकते देखा तो याद आया कि तुम मेरी आँखें पढ़कर मेरे मन की बात तुरन्त भाँप-जान लेती थीं. तुम्हारे लाल-लाल होठों के बीच अचानक अनार के दानों की-सी एक कतार चमकी थी-‘मैं बताऊँ इस समय आपके मन में क्या चल रहा है?’
-‘मेरे मन में? हाँ, कुछ भी तो नहीं…! अच्छा बताओ-क्या?’
-‘अच्छा, पहले ये बताओ कि अब मैं केसी लगती हूँ? पहले से मोटी हो गई हूँ न?’
–‘हाँ, नहीं, नहीं-पर पहले से तो कुछ अधिक ही…’
-‘कुछ अधिक-क्या? सुन्दर या असुन्दर…?’
जल्दी से कुछ सुनने की उत्तेजित-सी एक अधीरता दिखाई दी थी तुम्हारे चेहरे पर -‘दोनों ही…’ कहकर मैं हँसा. तुमने अपने ठहाके से तुरन्त जैसे मेरी हँसी के स्वर को एक संगत देनी चाही थी -‘यही तो-यही. अपनी कीली पर लगातार घूम रहे इन रिश्तों में भी तो ये दोनों ही चीज़ें साथ-साथ घूम रही हैं. कभी हम एक से रूबरू होते हैं, कभी दूसरी से. हाँ, धूप-छाँव की तरह, रात-दिन की तरह! अरे हाँ, याद आया…! आपने पढ़ा तो होगा वह समाचार! मैंने पढ़ा था-तभी से मन था कि आपसे शेयर करूँ! पता है, अबकी बार दिन-रात तेईस सितम्बर की बजाय छब्वीस सितम्बर को बराबर हुए. पता है क्यों? क्योंकि पृथ्वी का अक्ष बदल रहा है. उसका कोणीय संवेग क्षीण हो रहा है. अक्ष बदलने के कारण उसका झुकाव अब ध्रुव तारे की बजाय वेगा तारे की तरफ़ हो गया है. पहले उसका झुकाव साढ़े तेईस डिग्री था, अब इक्कीस डिग्री हो गया है…’
-‘तो?’
– ‘तो क्या? मौसम में आए बदलाव को नहीं देखते क्या आप? प्रकृति की भाषा को हम समझना क्योंय नहीं चाहते? जब धरती अपना अक्ष बदलेगी तो उस पर बस रह रहे जीवों-प्राणियों का भी तो अक्ष बदलेगा. उनका भी तो कोणीय संवेग क्षीण होगा. इसीलिए तो मौसम में बदलाव आ रहा है. आदमी-औरत का भी अक्ष बदल रहा है. उनका भी झुकाव अब ध्रुव की बजाय वेगा की तरफ़ होता जा रहा है. शायद इसीलिए उनकी वृत्तियों, मान्यताओं, सोचों में भी बदलाव आता जा रहा है…’
-‘यानी-?’
-‘यानी कुछ नहीं-यानी यह कि औरत की भी तो अपनी एक धरती है. जैसे धरती की ऊपरी सतह से उसके अन्दर की उथल-पुथल, हलचल का पता नहीं चल पाता वैसे ही देह के परीक्षणों के आधार पर औरत के मन का सच भी नहीं जाना जा सकता. ब्रह्म और ब्रह्मांड की तरह उसका भी तो काफ़ी कुछ अनजाना, अनसमझा है अभी तक !…ओफ्फो…अरे, ये सब छोड़ो-अभी आपको बिट्टू के चाचा की लड़की वाली बात भी तो बतानी थी… टी.वी. देखकर, अख़बार पढ़कर हैरानी होती है कि इन लड़के-लड़कियों को होता क्या जा रहा है! ज़रा-ज़रा उम्र, मिलने के साथ ही ‘आई लव यू’ के तराने, गुत्थम-गुत्था होते इनके शरीर. कपड़ों की तरह पहने-बदले जाते इनके सम्बन्ध. एक-दो नहीं, कई-कई ब्ऑय-गर्ल फ्रेंड्स. इनकी ये बेचैनी, ये रोमांच, ये रोमांस, ये निर्णय. घर-परिवार, रिश्ते-नातों का न कोई भय, न संकोच, न बंधन. ये टी.वी., ये इंटरनेट, ये चैट! इनकी ये ड्रेसें, पसंदें, ये सोच! तू नहीं तो कोई और, वो भी नहीं तो कोई और. हे भगवान, देह को दिखाने के ऐसे नंगे अन्दाज़, देह देने-पाने की इतनी बेहिचक उतावली. हम लोग रोज़ देखते हैं आस-पास यह सब. कोचिंग, शॉपिंग, कम्प्यूटर सेंटर्स या कॉलिजों से निकल भागकर दोस्तों के साथ माटरसाइकिलों, कारों में सुनसान सड़कों-इलाक़ों में मौज-मस्ती करते ये लड़के-लड़कियाँ. रोज़ नया कुछ न कुछ सुन लो-उसने ये किया, उसके साथ ये हुआ. हमें सुनकर डर लगता है, इन्हें करने में भी कुछ नहीं होता. कितनी हिम्मत है इनमें? कितने साहसी हो गए हैं ये लोग? किन घरों-परिवारों से आ रहे हैं ये सब? कैसे हैं इनके माँ-बाप? आपको याद है? एक बार आपने डॉ.सुशान्त वाले घर पर सुबह छह बजे आने को कहा था. उस दिन वे लोग कहीं गए थे. आप अकेले थे घर पर. आप देखिए कि जाड़े के दिन-उस अँधेरे में भी ठीक छह बजे पहुँच गई थी मैं. और आपने क्या किया-कुछ याद है? आप जंगले के पास खड़े मेरे आने का इन्तज़ार कर रहे थे. मुझे देखते ही हाथ बाहर निकालकर इशारे से लौट जाने के लिए कह दिया. फुसफुसा कर कह दिया कि वे लोग लौट आए हैं रात में. उस दिन को याद करती हूँ तो काँप-कॉप जाती हूँ. कैसे हुआ वो सब? कैसे कर पाई मैं उतनी हिम्मत?’ घबराहट के गहरे-गहरे कई निशान तुम्हारे चेहरे पर दिखाई दिए थे-‘हाँ, तो बिट्टू के चाचा की लड़की वाली बात तो रह ही जाएगी. आप ने देखा नहीं है उसे. उसका पहनावा, रहना-सहना देखेंगे तो हैरान रह जाएँगे. उसके माँ-बाप को ही कुछ बुरा नहीं लगता तो और कोइ क्यों कुछ कहे? उस दिन बिट्टू उसके घर गया था. रात में लौटा तो बेहद उत्तेजित, हैरान. बहुत पूछा तो बोला-‘मॉम, दीदी के तो इतने सारे ब्यॉअ फ्रैंडस हैं. उन्होंने सबके मैसेज मुझे पढ़वाए. बता रही थीं कि उसके साथ ताज देखा, उसके साथ सिकन्दरा, उसके साथ फतेहपुर सीकरी…! उसका यह अच्छा है, उसका यह बुरा. बड़ी ख़ुश थीं कोर्ट के अभी आए फ़ैसले पर-सोलह वर्ष की उम्र में भी शादी कर लेना ग़लत नहीं है. मुझसे पूछने लगीं कि तुम्हारी कितनी गर्लफ्रेंड्स हें. मैंने कहा एक भी नहीं. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ. आँखें फाड़ इस तरह देखने लगीं मेरी ओर जैसे कि मैं अजीब-सा कोई जानवर हूँ. फिर बोलीं-धत्. यू आर नॉट लिविंग…जस्ट किलिंग योर सेल्फ़. यू विल ऑलवेज़ बी ए लूज़र…लेमेंटर… . मेरी समझ में कुछ नहीं आया. उनसे मतलब पूछा तो झल्ला पड़ीं, न जाने क्या-क्या. बोलती रहीं. शान्त हुईं तो दास्तों से मिले प्रेजेंट्स के बारे में बताती रहीं! आने लगा तो बोलीं-बिट्टू मैंने जीत के बारे में मम्मी को बताया था सब….अगर वो तैयार हो गया तो मैं उसी से शादी कर लूँगी….तुम भी-ऐसा कभी कुछ हो तो अपनी मम्मी से शेयर कर लेना. उनसे पूछना – कांट वी लव समवन मॉम?’ लगा जैस तुम्हारी पूरी देह कांप उठी है.
‘ठीक है-अब सिर्फ़ दस मिनट हैं-और मुझे स्टैण्ड पहुँचना है…’
तुम खड़ी हुई तो मुझ भी खड़ा हो ही जाना था.
-‘तब कितना तरसते थे इतने पास तक आने को. कैसी-कैसी प्रार्थनाएँ कि ज़रा मौक़ा मिले तो वहाँ घूम आएँ, वहाँ चलकर बैठें, वहाँ बैठकर साथ-साथ कुछ खाएँ…! अब तो सच सचमुच प्यास लग आई…’
-‘इसी में से पी लो दो-चार बूँद.’
-‘आपका ये पानी…उफ!’
-‘अच्छा, मैं कुछ और करता हूँ….’
-‘इतना समय कहाँ है अब! पानी छोड़ो…हाँ, इस पानी से याद आया.’
-‘क्या?’
-‘क्या हाइड्रोजन और ऑक्सीज़न के होने या मिलने भर से पानी बन सकता है?’
-‘नहीं, तो…?’
-‘यानी अनुकूल अनुपात और परिवेश-परिस्थितियों के बिना दोनों के होने और मिलने पर भी पानी नहीं बन सकता.’
– ‘हाँ, तो?’
-‘तो क्या-फिर आदमी और औरत के होने या मिलने भर से प्रेम कैसे पैदा हो सकता है?’
तुमन चल पड़ने को मुड़ना चाहा. मैं मुश्किल से कह पाया-‘तुम आईं-मुझे…’
-‘हाँ, मैं आई-आपने मुझे कहने-बोलने दिया, मन से मुझे सुना-मुझे अच्छा लगा.
-थैंक्स… !’
तुम्हारी आँखों में चंचल-सी एक शैतानी ने जन्म ले लिया था-‘हे भगवान-इस ज़रा से एक शब्द ने पल भर में मुझे एकदम ग़ैर-बहुत दूर का-सा बना दिया…’
दरवाज़े की ओर बढ़ चले क़दम यकायक रुके-‘पर मेरे बेटे के सवाल का उत्तर? आप पत्र तो ख़ैर क्याच लिखेंगे…फ़ोन तो कर ही सकते हैं? और हाँ, आज भी मैं अपने एक सवाल के साथ आप के पास आई थी. उस सवाल का भी तो उत्तर देना है अभी आपको…’
-‘सवाल? क्या?’
-‘यही कि-आख़िर हम जिसे प्रेम कहते हैं-वो किस मिट्टी का बना है? उसकी केमिस्ट्री क्या है? वह जब भी, जहाँ भी जन्म लेता है-भूकम्प-सा क्यों ला देता है? ऐसा क्या होता है उसमें…ऐसा क्यों होता है आख़िर-कि हम कुछ भी, कैसे भी करें, अपना सब कुछ पुण्य लगता है, वरदान लगता है प्रेम में-पर वही सब कोई और करे तो वह पाप-सा, शाप-सा क्यों लगने लगता है?’
विदा के उस अन्तिम क्षण में हम दोनों के आसपास सिर्फ़ शान्त-सी एक ख़ामोशी थी. न किसी के आने-देख लेने का कोई भय यहाँ था और न अपने ही होने का कोई बोध! जब घट चला तो पता लगा कि-अधरों के अचानक हुए एक समागम ने निमिष भर में मीठी-प्यारी-सी एक किलकारी को जन्म दे दिया था. किलकारी की वह ध्वनि हवा के साथ-साथ कुछ इस तरह बढ़ी-उड़ी-बही कि पल भर बाद ही वह नाद बन गई. तुम जा चुकी थीं-पर विभाग में अकेला बैठा मैं जैसे किसी भूकंप के बाद के हल्के-हल्के झटकों को देर तक महसूस करता रहा था.
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जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं