धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ इंसानियत के पक्ष में विवेकानंद

  • 10:55 am
  • 4 July 2020

स्वामी विवेकानंद प्रज्ञापुरुष थे, आधुनिक भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक राजदूत भी. देश के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक जगत की कितनी ही हस्तियां उनकी ज़िंदगी और विचारों से किसी न किसी रूप में प्रभावित रहीं. सिर्फ़ अपने समय में ही नहीं, आज भी अपने क्रांतिकारी विचारों से नौजवानों के दिलो-दिमाग़ को वह उद्वेलित करते हैं. उनके विचार कितने ही लोगों भी प्रेरणा के स्रोत हैं.

ख़ुद विवेकानंद मानते थे कि नौजवान ही राष्ट्र की असली शक्ति हैं. दिनकर ने उनके बारे में कहा था,‘‘विवेकानंद वो समुद्र हैं जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता तथा उपनिषद और विज्ञान सब के सब समाहित होते हैं.’’ और यह बात सही भी है. विवेकानंद ऋषि, विचारक, सन्त और दार्शनिक थे, जिन्होंने आधुनिक इतिहास की समाजशास्त्रीय व्याख्या की. उनके दर्शन के तीन मुख्य स्रोत रहे हैं – पहला, वेद तथा वेदान्त की महान परम्परा, दूसरा श्रीरामकृष्णदेव का शिष्यत्व और तीसरा अपने जीवन का अनुभव. वह मानते थे, ‘‘किसी की भी कोई बात या सिद्धांत को तर्क और बहस-मुबाहिसे के ज़रिए परखे बिना नहीं मानना चाहिए.’’

पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबर, कट्टरता और रूढ़ियों के वह सख़्त ख़िलाफ़ थे. उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया. उनका कहना था,‘‘मैं उस ईश्वर का उपासक हूं, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं.’’ स्वभाव से ही विद्रोही प्रकृति के विवेकानंद के तेवर अक्सर उनके इस तरह के भाषणों में झलकते, ‘‘इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए.’’ विवेकानंद ने अपनी किताबों और भाषणों में पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकांड और रूढ़ियों की जमकर आलोचना की और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के ख़िलाफ हल्ला बोला. उनका कहना था,‘‘जब पड़ोसी भूखों मरता हो, तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं पाप है. जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो तब हवन में घृत डालना अमानुषिक कर्म है.’’

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने लिखा है,‘‘स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था. नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगाई. उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उनके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की. उनके उद्गारों से लोगों में आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान के भाव जगे हैं.’’ वे विवेकानंद ही थे, जिन्होंने पतंजलि के प्रकृति योग के सिद्धान्त का पूरक सिद्धान्त प्रतिपादित किया. ऋग्वेद से लेकर कालिदास तक देश के अन्यतम ग्रन्थों से वे अच्छी तरह वाक़िफ़ थे. यही नहीं विवेकानंद ने पश्चिमी विद्वानों को भी पढ़ा था. कांट, शोपेनहावर, मिल तथा स्पेन्सर जैसे विचारकों का उन्होंने ख़ूब अध्ययन किया. स्वामी विवेकानंद की मेधा से प्रभावित होकर पश्चिम ने उन्हें ‘हिन्दू-नेपोलियन‘ और ‘चक्रवातिक हिन्दू‘ की संज्ञा दी.

धार्मिक कट्टरता उन्हें बेहद नापसंद थी और इस तरह की प्रवृतियों से उन्होंने हमेशा संघर्ष किया. उनका कहना था,‘‘जिनके लिए धर्म एक व्यापार बन गया है, वे संकीर्ण हो जाते हैं. उनमें धार्मिक प्रतिस्पर्धा का विष पैदा हो जाता है और वे अपने स्वार्थ में अंधे होकर वैसे ही लड़ते हैं, जैसे व्यापारी अपने लाभ के लिए दांव-पेंच लगाते हैं.’’वह न सिर्फ धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवाद के विरोधी थे, बल्कि साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को भी इंसानियत का बड़ा दुश्मन मानते थे. उनका विचार था,‘‘साम्प्रदायिक हठधर्मिता और उसकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुंदर धरती पर बहुत समय तक राज कर चुकी है. वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही, उसको बार-बार मानवता के रक्त से नहलाती रही है. सभ्यताओं का विध्वंस करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं. यदि वे वीभत्स और दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता.’’

विश्व बंधुत्व के पक्षधर थे इसलिए उनके मन में सभी धर्मों के प्रति सम्मान था. धर्म उनकी नजरों में अलग ही मायने रखता था. उनका कहना था,‘‘अगर कोई इसका ख़्वाब देखता है कि सिर्फ़ उसी का धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे सभी नष्ट हो जाएंगे, तो मैं अपने दिल की गहराइयों से उस पर तरस ही खा सकता हूं. जल्द ही सभी झंडों पर, कुछ लोगों के विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, विनाश नहीं मेलजोल, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शांति.’’

भारतीय होने पर विवेकानंद को बहुत गर्व था. भारतीयों के गुणों का बखान करते हुए उन्होंने कहा था, ‘’हम भारतीय केवल सहिष्णु ही नहीं हैं. हम सभी धर्मों से स्वयं को एकाकार कर देते हैं. हम पारसियों की अग्नि को पूजते हैं. यहूदियों के सिनेगॉग में प्रार्थना करते हैं. मनुष्य की आत्मा की एकता के लिए तिल-तिलकर अपना शरीर सुखाने वाले महात्मा बुद्ध को हम नमन करते हैं. हम भगवान महावीर के रास्ते के पथिक हैं. हम ईसा की सलीब के सम्मुख झुकते हैं. हम हिन्दू देवी-देवताओं के विश्वास में बहते हैं.’‘ स्वामी विवेकानंद ने दुनिया के दो बड़े मजहब, हिंदू और इस्लाम की बीच आपसी सहकार की बात करते हुए कहा था,‘‘हमारी मातृभूमि, दो समाजों हिंदुओं और मुस्लिम की मिलनस्थली है. मैं अपने मानस नेत्रों से देख रहा हूं कि आज के संघात और बवंडर के अंदर से एक सही और अपराजेय भारत का आविर्भाव होगा, वेदांत का मस्तिक और इस्लाम का शरीर लेकर.’’ विवेकानंद ने न सिर्फ़ पूरे भारत को क़रीब से देखा था, बल्कि जापान, चीन, इंग्लैंड, अमेरिका और यूरोप के कई देशों की भी यात्राएं कीं. शिकागो में 1893 में आयोजित ‘विश्व धर्म महासभा’ में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. स्वामी विवेकानंद की वक्तव्य शैली और ज्ञान को देखकर वहां का मीडिया भी हैरान हुआ और उन्हें ‘साइक्लॉनिक हिंदू’ का ख़िताब दिया. सच बात तो यह है कि अमेरिका और यूरोप में वेदांत दर्शन यदि पहुंचा, तो उसमें भी उन्हीं का योगदान था.

जातिवाद, अस्पृश्यता, स्त्री-पुरुष की बराबरी, वैज्ञानिकता, सर्वधर्मसम्भाव सम्बन्धी विवेकानंद के विचार अधुनातन हैं. उन्होंने परम्परावादी भारतीय बौद्धिकों से अलग हटकर पश्चिम के स्वस्थ्य मूल्यों की न केवल तारीफ़ की, बल्कि उन्हें अपनाए जाने का भी आग्रह किया. वे कहते थे, ‘‘विज्ञान निरपेक्ष है. उससे भारत का भला ही हो सकता है, नुकसान नहीं.’’ भारतीय राष्ट्रवाद की नदी में बहते हुए विवेकानंद एक प्रतिधारा की तरह थे. उन्होंने प्रचलित, पारम्परिक और ऐतिहासिक विचारधाराओं के ख़िलाफ हमेशा संघर्ष किया. अपने भाषण में एक बार उन्होंने कहा था,‘‘मैं समाजवादी हूं.’’ उनके विचार इस बात की तस्दीक भी करते हैं. विवेकानंद अस्पृश्यता जैसी घातक, अन्यायपूर्ण और अर्थहीन प्रथा के प्रति बेहद आक्रामक थे. उनके भाषण, लेख और पत्र इस समाज विरोधी आचरण के ख़िलाफ लगातार आह्वान करते हैं.

समाज की कुरीतियां, जिनमें जातिवाद प्रमुख है, हमेशा उनके निशाने पर रहा. वह ऐसे पहले शख़्स थे, जिन्होंने देश में पिछड़ी जातियों अर्थात् शूद्र राज की ऐतिहासिक भविष्यवाणी की थी. अस्पृश्यता का विवेकानंदीय अनुवाद है ‘मतछुओवाद‘. वे कटाक्ष करते हैं, ‘‘वेदान्त के इस देश में जहां मनुष्य की नैसर्गिक आध्यात्मिकता और समानता का दर्शन ईजाद किया गया, वहां अस्पृश्यता की बीमारी एक सामाजिक लक्षण के रूप में अट्टहास करती रहती है.’’ वे विवेकानंद ही थे जिन्होंने ‘रसोई धर्म‘ जैसा शब्द भी गढ़ा. अपनी बेलाग शैली में उन्होंने कहा था,‘‘तुम हिन्दुओं का कोई धर्म नहीं है. तुम्हारा ईश्वर रसोईघर में है. तुम्हारी बाइबिल खाना पकाने के बर्तन हैं. लोगों ने वेद तो छोड़ दिए हैं और तुम्हारा सारा दर्शन रसोईघर में आ गया है. भारत का धर्म हो गया है ‘मत छुओवाद‘, मौजूदा हिन्दुत्व पतन की पराकाष्ठा.’’ अस्पृश्यता की बीमारी के खिलाफ विवेकानंद का यह आक्रमण रस्मी नहीं था. अस्पृश्यता और जातिवाद के वे घोर विरोधी थे. दलितों का जीवन ऊपर उठे यह उनकी प्रतिबद्धताओं में शामिल था. उन्होंने अपने भाषणों में बार-बार यह कहा है कि ‘मत छुओवाद‘ एक तरह की मानसिक व्याधि है.

उनके विचार इतने आधुनिक थे कि वर्तमान के कई ज्वलंत सवालों के जवाब उनमें ढ़ूढ़े जा सकते हैं. उन्नीसवीं सदी में जब भारतीय समाज अपेक्षाकृत ज्यादा मदांध, संकीर्ण और दकियानूस था, उस वक्त विवेकानंद ने जो कुछ भी कहा, वह हर लिहाज से क्रांतिकारी था. समाज की परवाह न करते हुए, वे अपने साहसिक और मौलिक विचार पूरी दुनिया के बीच बांटते रहे. वे देश के पहले सांस्कृतिक राजदूत थे, जिन्होंने भारतीय परंपरा, दर्शन और संस्कृति को पश्चिमी देशों तक पहुंचाया. उनकी किताबों और भाषणों का सम्यक अध्ययन करने से मालूम चलता है कि उनके विचारों में समकालीन शब्दार्थों से कहीं ज्यादा भविष्य के निहितार्थ छिपे हैं.


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