सफ़रनामा | उत्सव की तैयारी के बीच झेंप के बहाने
बालीकोरिया पहुंचते-पहुंचते शाम होने लगी थी. दिसंबर-जनवरी के दिनों में तो देश के इस हिस्से में तीन-साढ़े तीन बजे तक शाम होने लगती है और पांच-साढ़े पांच बजे तक रात हो जाती है. मेरी सास मेरी पत्नी के साथ पहले ही दिल्ली से यहां आ पहुंची थीं. इन दिनों वर्क फ्रॉम होम ही चल रहा है, सो मुझे दफ़्तर के ज़रूरी काम निपटाने थे. जो कमरा मुझे दिया गया, वहां अपने लैपटॉप के साथ जमकर बैठ गया.
काम निपटाने के बाद वापस लिविंग रूम में पहुंचा तो देखा कि डॉ.सदानंद रायबरुआ आ चुके थे, थोड़ी ही देर बाद डॉ. निबिर रायबरुआ भी आ पहुंचे. वह अपने साथ पढ़ने वाले किसी दोस्त के ढाबे से मुर्ग़ भुनवाकर लाए थे, और आते ही नए साल की पार्टी में कुछ लज़्ज़त भरने के काम में जुट गए. तय हुआ कि रात को छत पर बॉनफ़ायर और डॉ. निबिर के पकाए मुर्ग़ के साथ सबको नए साल का ख़ैरमक़दम करना है. अलाव जलाने का ज़िम्मा मुझे सौंपा गया, यह कहकर कि एक तो यूपी वाला, ऊपर से ब्राह्मण- इससे जल्दी और इससे अच्छी आग भला कौन लगाएगा? और मेरी पत्नी ने तुरंत गवाही देते हुए इसकी तस्दीक़ भी कर दी कि घर पर रखी कोयले की अंगीठी को यह यूपी वाला पांच-दस मिनट में दहका देता है.
रात की तैयारियां अभी चल ही रही थी कि मेरी तलब ने मुझे कुछ बेचैन कर डाला. मैं घर से बाहर निकल आया और पैदल ही उस अंधेरे में धुंआ उड़ाते हुए नामघर की ओर बढ़ गया. रास्ते में गांव के ही एक साहब नबाज्योति टकरा गए. अपनी ओर के राहुल या विजय की तरह यहां भी आपको दो नाम खूब मिलेंगे- नबाज्योति और ध्रुबाज्योति. उन्होंने पहले असमिया में मुझसे कुछ पूछा, तो मैंने जवाब दिया कि मुझे असमिया नहीं आती, हिंदी भाषी हूं. इस बार उन्होंने पूछा – किसके घर? मैंने बता दिया. कहने लगे, फिर तो आप हमारे भी मान्य हुए. अब आपको हमारे घर चलना पड़ेगा. मेरी सिगरेट और तलब दोनों बाक़ी थीं, पर बड़ी अनिच्छा से मैं उनके साथ चल पड़ा.
नामघर के पहले ही उनका घर था. अंदर घुसते ही बड़ा-सा ख़ाली दलान, जिसमें चूल्हा जलाकर उनकी पत्नी मुर्ग़ी पका रही थीं. दुआ-सलाम हुई, परिचय हुआ. पता चला कि नबाज्योति अच्छे तैराक हैं और इन दिनों गुवाहाटी में कहीं तैराकी कोच हैं. उनकी पत्नी भी एनसीसी में रही हैं और उनका बेटा गुवाहाटी में बारहवीं की पढ़ाई कर रहा है. उनकी पत्नी ने तुरंत कड़ाही से मांस निकालकर मुझे पेश करना चाहा, पर मैंने बड़ी विनम्रता से यह कहकर इन्कार किया कि मैं मांसाहारी नहीं हूं. यह सुनते ही नबाज्योति घर के अंदर चले गए और दो बिस्कुट के साथ रसगुल्ला लेकर लौटे.
मैं जितनी देर तक उनके घर में रहा, मेरी सहाफ़ी वाली नाक को चूल्हे पर पकती मुर्ग़ी के अलावा भी कोई और गंध मिल रही थी. उधर नबाज्योति कह रहे थे कि सिद्धार्थ को समझाते क्यों नहीं? यहां इतनी खेती-बाड़ी है, पिता का इतना बड़ा नाम है, अमेरिका में क्या रखा है? रसगुल्ले के बाद किसी तरह से बिस्कुट पानी से निगले और यह कहते हुए मैं वहां से उठ खड़ा हुआ कि आपका कहना बिलकुल वाजिब है, मैं आपकी बात आगे तक पहुंचा दूंगा. वह मेरे पीछे-पीछे मुझे छोड़ने घर तक आए. घर के बाहर जैसे ही उन्होंने डॉ. सदानंद को देखा, तुरंत छुप गए. यानी मेरी सहाफ़ी वाली नाक दुरुस्त थी.
अपनी नाक पर अपनी सहाफ़त लेकर मैं आगे बढ़ा. डॉ.सदानंद नबाज्योति की परछाईं भी पहचानते थे. इससे पहले कि वो कुछ बोलें, मैंने बोल पड़ा – आपके गांव में कोई नबाज्योति हैं, वो मुझे अपने घर लिवा ले गए थे. डॉ.सदानंद तुरंत बोले, उसके घर नहीं जाना चाहिए था. वह अच्छा आदमी नहीं है. एकाध बार जेल के चक्करों में भी पड़ चुका है. मैंने कहा, इसका कुछ-कुछ अंदाज़ा तो मुझे हो चला था, बस मेरे अंदाज़े पर आपकी मुहर लगनी बाक़ी थी.
वहां से मैं सीधे छत पर पहुंचा. डॉक्टर साहब की इकलौती बेटी डॉ. दीक्षिता रायबरुआ ने – जो ख़ुद भी डेंटिस्ट हैं- तसले में आग सुलगा दी थी. वहां अभी धुंआ था, लपटें नहीं, सो मैंने पहुंचते ही आग भड़का दी. साथ ही अलाव के आसपास बैठे लोगों को यह ख़बर भी दी कि नबाज्योति के घर से होकर आ रहा हूं. सबका वही कहना था, जो कुछ देर पहले डॉ. सदानंद ने कहा था. इतने में देखता हूं कि मेरे फ़ोन पर नबाज्योति का नाम चमक रहा था. डॉ. दीक्षिता ने सवाल किया, फ़ोन नंबर भी दे आए? मैं उनसे कहा, अब कोई नंबर मांगता है तो सहाफ़ी होने के नाते मुझे कभी हिचकिचाहट नहीं होती, सबको दे देता हूं.
उन्होंने कहा, अब ये आपको परेशान करेगा. ‘वो मैं देख लूंगा, पहले आप मेरी इस जिज्ञासा का समाधान कीजिए कि यहां मारवाड़ियों के घर अपने चैनल डोर की वजह से पहचान लिए जाते हैं. मगर आपके यहां तो बिहारी भी रहते हैं, बंगाली भी. सिर्फ़ बाहर से ही पहचानने हों तो उनके घर कैसे पहचाने जाएं?’ उन्होंने बताया कि बिहारी लोगों के घर हम ऐसे पहचानते हैं कि उनके छोटे से घर में बड़ी भीड़ रहती है. एक घर में दस से पंद्रह लोग पाए जाते हैं. और बंगालियों के घर महिलाओं की आवाज़ से पहचानते हैं. अगर घर के अंदर से किसी के चिल्लाकर बात करने की आवाज़ आ रही है तो हम समझ जाते हैं कि बंगाली परिवार है.
मगर यह मेरे सवाल का जवाब नहीं था. मैंने फिर से चैनल डोर वाला सवाल दोहराया. इस बार उन्होंने कहा कि बिहारी और बंगाली के घर के बाहर ऐसी कोई पहचान नहीं मिलेगी, जो उन्हें मारवाड़ियों की तरह अलग करती हो. उनके घर की बनावट भी यहां के बाक़ी घरों की तरह होती है.
फिर उन्होंने मुझसे सवाल पूछा. पूछा क्या, सवाल दागा- आपके यूपी में तो जात-पात बहुत चलता है? मैंने कहा, ख़ूब, बल्कि ज़रूरत से ज्यादा. ख़ुद मेरे ही घर में ख़ूब जात-पात और छूत-छिरकन है. उन्होंने अपना अनुभव बताया कि पढ़ने के लिए जब वह लखनऊ गई थीं तो पहले तो किराए पर कमरा न मिले. बड़ी मुसीबत से एक कमरा मिला तो यूपी वालों को रायबरुआ न समझ में आए. फिर एक दिन मकान मालकिन ने पूछ ही लिया- ये रायबरुआ क्या चीज़ होते हैं? उन्होंने बताया – कायस्थ होते हैं. और जब उन्होंने यह क़िस्सा कॉलेज में अपने सीनियर को बताया तो उनका कहना था, उसे बता देतीं कि तुम ब्राह्मण हो तो जब तक तुम रहती, तुमसे ज्यादा सवाल या किचकिच करने की जगह बड़े सलीक़े से पेश आती.
मैं खिसियानी हंसी हंसा. यूपी की जो छूत-छिरकन और जात-पात की आदत है, उसकी वजह से इकलौता मैं ही नहीं हूं जो बाहर की दुनिया में बेइज़्ज़त होता हो, मेरी तरह और भी बहुतेरे हैं. मगर इससे यूपी को क्या, यूपी वालों को क्या? यूपी की छूत-छिरकन की इन कहानियों के साथ नया साल आया, हमने एक दूसरे को मुबारकबाद दी और अपने-अपने बिस्तरों के हवाले हुए. कल सुबह घर पर देवता बैठाए जाएंगे, कुछ लोग उपवास रखेंगे और सैकड़ों लोग जीमेंगे. कल हमारे यहां नलबाड़ी में ब्रह्मभोज है.
(…जारी)
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